Author: कविता बहार

  • मेरी बिल्ली मुझसे म्याऊँ-उपमेंद्र सक्सेना

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    मेरी बिल्ली मुझसे म्याऊँ

    जिससे अपना मतलब निकला, क्यों मैं उसके लात लगाऊँ
    दुनिया का सिद्धांत अनोखा, मेरी बिल्ली मुझसे म्याऊँ।

    मगरमच्छ के आँसू गिरते, जब वह सुख से भोजन करता
    बगुला भगत यहाँ पर देखो,अपनों पर यों कभी न मरता

    जिस थाली में भोज खिलाया, क्यों मैं उसमें छेद बनाऊँ
    दुनिया का सिद्धांत अनोखा, मेरी बिल्ली मुझसे म्याऊँ।

    आपाधापी के इस युग में, कौन किसी का हुआ सगा है
    जीवन की परिभाषा बदली, अपनेपन में मिला दगा है

    आज यहाँ पर बोलो किसको, क्यों मैं अपना भेद बताऊँ
    दुनिया का सिद्धांत अनोखा, मेरी बिल्ली मुझसे म्याऊँ।

    कितनी बनी संस्थाएँ हैं, होते कितने गोरख धंधे
    अब समाज- सेवा के पीछे, लोग हो रहे कितने अंधे

    काला धन उजला करके क्यों, लाचारों को सबक सिखाऊँ
    दुनिया का सिद्धांत अनोखा, मेरी बिल्ली मुझसे म्याऊँ।

    लोग गधे को बाप बनाकर, सीधा करते उल्लू अपना
    गिरगिट जैसा रंग बदलते,होता पूरा उनका सपना

    तिकड़म के ताऊ से मिलकर, क्यों अपना कर्तव्य भुलाऊँ
    दुनिया का सिद्धांत अनोखा, मेरी बिल्ली मुझसे म्याऊँ।

    कोतवाल हों जिसके सइयाँ, उसको नहीं किसी का भी डर
    चाँदी का जूता जो मारे, उसका काम करें सब मिलकर

    खाली हाथ यहाँ पर बोलो, किस पर अपना रौब जमाऊँ
    दुनिया का सिद्धांत अनोखा, मेरी बिल्ली मुझसे म्याऊँ।

    ऊँट भला किस करवट बैठे, किसका चमके यहाँ सितारा
    अब आँसू पीकर रहता है, बेचारा किस्मत का मारा

    आस्तीन में साँप छिपे हैं, कैसे उनसे मैं बच पाऊँ
    दुनिया का सिद्धांत अनोखा, मेरी बिल्ली मुझसे म्याऊँ।

    रचनाकार उपमेंद्र सक्सेना एड.
    ‘कुमुद- निवास’
    बरेली (उ०प्र०)
    मोबा०- 98379 44187

    ( सर्वाधिकार सुरक्षित)

  • अब तो भर्ती-विनोद सिल्ला

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    अब तो भर्ती

    अब तो भर्ती खोलिए, बहुत हुआ सरकार।
    पढ़-लिखकर हैं घूमते, युवा सभी बेकार।।

    नयी-नयी नित नीतियां, सत्ता ने दी थोप।
    रोजगार की खोज में, चले युवा यूरोप।।

    जितना जो भी है पढ़ा, दे दो वैसा काम।
    वित पोषण हो देश का, सुखी रहे आवाम।।

    पढ़-लिखकर भी बन रहे, मजबूरन मजदूर।
    ठोकर दर-दर खा रहे, पीड़ा है भरपूर।।

    छाला छाती पर हुआ, बढ़ती जाए पीर।
    उपाधियाँ ले घूमते, बहता नैनन नीर।।

    जूते तक हैं घिस गए, खोज सके नहि काम।
    चाव गए सब भाड़ में, गया चैन आराम।।

    सिल्ला भी विनती करे, दे दो सबको काम।
    हँसी-खुशी से बसर हो, सुखमय सबकी शाम।।

    विनोद सिल्ला

  • खुशनसीब -माधुरी डड़सेना मुदिता

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    खुशनसीब


    मैं खुशनसीब हूँ कि मुझे यार मिल गया
    दिल को बड़ा सकूं है दिलदार मिल गया ।

    दर दर भटक रहे थे कभी हम यहाँ वहाँ
    अब डर नहीं किसी से सरकार मिल गया ।

    हमराज बन गए हैं दिन रात अब नया
    रंगत बहार में है इतबार मिल गया ।

    दुनिया बड़ी ही जालिम जीने कहाँ वो दे
    सारे सितम मिटे अभी यलगार मिल गया ।

    कश्ती फँसी भँवर में किनारे सभी थे गुम
    तुम जो मिले जहान में पतवार मिल गया ।

    कोई बहार आये तमन्ना लिए हुए
    अब खलवते हयात को इकरार मिल गया ।

    बनके मिसाल तुम तो हमारे करीब हो
    सबसे बड़े मुकाम का किरदार मिल गया ।

    जिनको तलाशते थे हजारों की भीड़ में
    मुदिता मेरे नसीब को आकार मिल गया ।


    *माधुरी डड़सेना ” मुदिता “

  • आओ गिलहरी बनें -डाॅ.संजय जी मालपाणी

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    आओ गिलहरी बनें

    सागर पर जब सेतु बना था,
    गिलहरी ने क्या काम किया था

    जहां-जहां भी दरार रहती,
    उसने उसको मिटा दिया था

    वैसे तो वह छोटी सी थी,
    राम कार्य में समर्पित थी

    रेती उठाकर चल पड़ती थी,
    अथक निरंतर प्रयासरत थी

    प्रभु ने जब उसको था देखा,
    हाथ घुमाया बन गई रेखा

    युगों युगों से स्मरण कराती,
    सेवा उसकी याद दिलाती

    आज हो रहा फिर नवसृजन,
    गीता पहुंचेगी अब जन मन

    एक गिलहरी की है जरूरत,
    अहर निश जो रहे कर्मरत

    क्यों ना बनूं मैं स्वयं गिलहरी,
    कृष्ण कार्य में हो ना देरी

    योग पताका ऊंची लहरे,
    यही भाव हो मन में गहरे

    अपने अस्तित्व को भुलाकर,
    एक दूजे का हाथ थाम कर

    चलो चलें इस योग मार्ग पर,
    सेवारत गिलहरी से बनकर।

    *डॉ. संजय जी मालपाणी*
    (राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष, गीता परिवार)

  • राजनीति बना व्यापार जी – राजकुमार मसखरे

    राजनीति बना व्यापार जी

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    देखो आज इस राजनीति क
    कैसे बना गया ये व्यापार जी ,
    लोक-सेवक अब गायब जो हैं
    मिला बड़ा उन्हें रोज़गार जी !
    राजनीति अब स्वार्थ- नीति है
    कर रहे अपनों का उपकार जी,
    कुर्सी में चिपके रहने की लत
    बस एक ही इनका आधार जी !
    चमचा बनो व जयकारा लगाओ
    फ़लफूल रहा है ये बाज़ार जी,
    छुट-भैये नेता पीछे झंडा उठाये
    इस धंधे का है ख़ूब पगार जी !
    कुछ नही करते तो नेता बनो
    या नेता के अच्छे चाटुकार जी,
    जनता, देश से न कोई मतलब
    बस बन तो जाये सरकार जी !
    कई पीढ़ियों के भर लिए ख़ज़ाने
    सोना-चांदी है इनका आहार जी,
    इन बंगलों में खूब गुलछर्रे उड़ाते
    वो ‘वोटर’ बीच फँसे मझधार जी !

    — *राजकुमार ‘मसखरे’*