Author: कविता बहार

  • बाबूलाल शर्मा के लावणी छंद

    बाबूलाल शर्मा के लावणी छंद

    बाबूलाल शर्मा के लावणी छंद

    बाबूलाल शर्मा के लावणी छंद

    काव्य रंगोली- लावणी छंद


    पूजा की थाली सजती है
    अक्षत पुष्प रखें रोली।
    काव्यजगत में ध्रुव सी चमके,
    कवि प्रिया,काव्य रंगोली।

    हिन्दी साहित सृजन साधना,
    साध करे भाषा बोली।
    कविता गीत गजल चौपाई,
    लिखे कवि काव्य रंगोली।

    दोहा छंदबद्ध कविताई,
    मुक्तछंद,प्रीत ठिठोली।
    प्रेम रीति शृंगार सलौने,
    पढ़ि देख काव्य रंगोली।

    लिखे सभी पर्व की बातें,
    ईद दीवाली व होली।
    गंगा जमनी रीत निभाती,
    अरमान काव्य रंगोली।

    नीरज खिलते काव्य सरोवर,
    बीच सभा कविजन टोली।
    करे पुरस्कृत कलमकार को,
    यही वह काव्य रंगोली।

    रामायण गीता की बातें,
    बाइबिल कुरान सतोली।
    देश धर्म मर्याद मुसाफिर,
    पथ,यही काव्य रंगोली।

    देश सुरक्षा,सीमा रक्षा,
    शत्रु की छाती में गोली।
    जागरूक साहित्यिक प्रहरी,
    रहे प्रिय काव्य रंगोली।

    *बाबू लाल शर्मा “बौहरा”*

    प्यारी  पृथ्वी

    प्यारी  पृथ्वी  जीवन दात्री,
    सब  पिण्डों में, अनुपम है।
    जल,वायु का मिलन यहाँ पर,
    अनुकूलन भी उत्तम है।
    सब जीवो को जन्माती है,
    माँ  के जैसे पालन    भी।
    मौसम ऋतुएँ वर्षा,जल,का
    करती यह संचालन भी।
    ?
    सागर हित भी जगह बनाती,
    द्वीपों   में  यह बँटती  है।
    पर्वत नदियाँ ताल तलैया,
    सब के  संगत  लगती  है।
    मानव ने निज स्वार्थ सँजोये,
    देश   प्रदेशों  बाँट  दिया।
    पटरी  सड़के  पुल बाँधो से,
    माँ  का  दामन  पाट  दिया।
    ?
    इससे आगे सुख सुविधा मे,
    भवन,  इमारत  पथ भारी।
    कचरा  गन्द प्रदूषण बाधा,
    घिरती  यह  पृथ्वी  प्यारी।
    पेड़ वनस्पति जंगल जंगल,
    जीव जन्तु जड़ दोहन कर।
    प्राकृत की सब छटा बिगाड़े,
    मानव  ने  अन्धे   हो  कर।
    ?
    विपुल भार,सहती माँ धरती,
    निजतन  धारण करती है।
    अन,धन,जल,थल,जड़चेतन का,
    सब का पालन करती है।
    प्यारी पृथ्वी का संरक्षण,
    अपनी   जिम्मेदारी   हो।
    विश्व सुमाता पृथ्वी रक्षण,
    महती  सोच  हमारी  हो।
    ?
    माँ वसुधा सी अपनी माता,
    यह शृंगार नहीं जाए।
    आज नये संकल्प करें मनु,
    माँ की क्षमता बढ़ जाए।
    नाजायज पृथ्वी उत्पीड़न,
    विपदा को आमंत्रण है।
    धरती  माँ की इज्जत करना,
    वरना  प्रलय निमंत्रण है।
    ?
    पृथ्वी संग संतुलन छेड़ो,
    कीमत  चुकनी है  भारी।
    इतिहासो के पन्ने  पढ़लो,
    आपद ने संस्कृति मारी।
    प्यारी पृथ्वी प्यारी ही हो,
    ऐसी  सोच  हमारी    हो।
    सब जीवों से सम्मत रहना,
    वसुधा माँ सम प्यारी हो।
    ?
    माँ काया से,स्वस्थ रहे तो,
    मनु में क्या बीमारी हो।
    मन से सोच बनाले  मानव,
    कैसी, क्यों  लाचारी  हो।
    माँ पृथ्वी प्राणों की दाता,
    प्राणो  से   भी  प्यारी  है।
    पृथ्वी प्यारी माँ भी प्यारी,
    माँ   से   पृथ्वी  प्यारी है।
    ?
    मानव तुमको आजीवन ही,
    धरती  ने माँ सम पाला।
    बन,दानव तुमने वसुधा में,
    क्यूँ,तीव्र हलाहल डाला।
    मानव  ने  खो दी  मानवता,
    छुद्र स्वार्थ के फेरों में।
    माँ का अस्तित्व बना रहता,
    आशंका के घेरों में।
    ?
    वसुधा का श्रृंगार छिना अब
    पेड़  खतम वन कर डाले।
    जल, खनिजों का दोहन कर के,
    माँ के तन मन कर छाले।
    मातु मुकुट से मोती छीने,
    पर्वत नंगे  जीर्ण किए।
    माँ को घायल करता पागल,
    उन  घावों  को  कौन  सिंए।
    ?
    मातु नसों में अमरित बहता,
    सरिता दूषित क्यूँ कर दी।
    मलयागिरि सी हवा धरा पर,
    उसे  प्रदूषित क्यूँ कर दी ।
    मातृशक्ति गौरव अपमाने,
    मानव  भोले  अपराधी।
    जिस शक्ति को आर्यावर्त में,
    देव  शक्ति  ने  आराधी।
    ?
    मिला मनुज तन दैव दुर्लभम्,
    “वन्य भेड़िये” क्यूँ बनते।
    अपनी माँ अरु बहिन बेटियाँ,
    उनको भी तुम क्यों छलते।
    माँ की सुषमा नष्ट करे नित,
    कंकरीट तो मत सींचे।
    मातृ शक्ति की पैदाइश तुम,
    शुभ्र केश तो मत खींचे।
    ?
    ताल  तलैया  सागर,नाड़ी,
    नदियों को मत अपमानो।
    क्षितिजल,पावकगगन,समीरा,
    इनसे  मिल जीवन मानो।
    चेत अभी तो समय बचा है,
    करूँ जगत का आवाहन।
    बचा सके तो बचा मानवी,
    कर पृथ्वी का आराधन।
    ?
    शस्य श्यामला इस धरती को,
    आओ मिलकर नमन करें।
    पेड़ लगाकर उनको सींचे,
    वसुधा आँगन चमन करें।
    स्वच्छ जलाशय रहे हमारे,
    अति दोहन से बचना है।
    पर्यावरणन शुद्ध रखें हम,
    मुक्त प्रदूषण  रखना  है।
    ?
    ओजोन परत में छिद्र बढ़ा,
    उसका भी उपचार करें।
    कार्बन गैस की बढ़ी मात्रा,
    ईंधन  कम  संचार  करे।
    प्राणवायु भरपूर मिले यदि,
    कदम कदम पर पौधे हो।
    पर्यावरण प्रदूषण रोकें,
    वे  वैज्ञानिक  खोजें  हो।
    ?
    तरुवर पालें पूत सरीखा,
    सिर के बदले पेड़ बचे।
    पेड़ हमे जीवन देते है,
    मानव-प्राकृत नेह बचे।
    गउ बचे संग पशुधन सारा,
    चिड़िया,मोर पपीहे भी।
    वन्य वनज,ये जलज जीव ये,
    सर्प  सरीसृप गोहें भी।
    ?
    धरा संतुलन बना रहे ये,
    कंकरीट वन कम कर दो।
    धरती का शृंगार करो सब,
    तरु वन वनज अभय वर दो।
    पर्यावरण सुरक्षा से हम,
    नव जीवन पा सकते हैं।
    जीव जगत सबका हित साधें,
    नेह गीत  गा सकते  हैं।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”

    बेटी -बाबूलाल शर्मा (लावणी छंद)


    बेटी है अनमोल धरा पर,
    उत्तम अनुपम  सौगातें।
    सृष्टि नियंता मात् पुरुष की,
    ईश जनम जिससे पाते।

    बेटी से घर आँगन खिलता,
    परिजन प्रियजन सब हित में।
    इनका भी सम्मान करें ये
    जीवन बाती परहित में।

    बेटी सबकी रहे लाड़ली,
    सबको वह दुलराती है।
    ईश भजन सी शुद्ध दुआएँ,
    माँ बनकर सहलाती हैं।

    बेटी तो वरदान ईश का ,
    जो दुख सुख को भी साधे।
    बहिन बने तो आशीषों से,
    रक्ष सूत बंधन बाँधे।

    मात पिता घर रोशन करती,
    पिय घर जाकर उजियाली।
    मकानात को घर कर देती,
    घर लक्ष्मी ज्यों दीवाली।

    बेटी जिनके घर ना जन्मे,
    लगे भूतहा वह तो घर।
    जिस घर बेटी चिड़िया चहके,
    उस घर में काहे का डर।

    मर्यादा बेटी से निभती,
    बहु बनती है लाड़ो जब।
    रीत प्रीत के किस्से कहती,
    नानी दादी बनती तब।

    दुर्गा सी रण चण्डी बनती,
    मातृभूमि की रक्षा को।
    कौन भूलता भारत भू पर,
    रानी झाँसी,इन्द्रा को।

    करे कल्पना अंतरिक्ष की,
    सच में सुता कल्पना थी।
    पेड़ के बदले शीश कटाए,
    उनके संग अमृता थी।

    सिय सावित्री राधा मीरा,
    रजिया पद्मा याद करो।
    अनुराधा व लता के गीतों,
    संगत भी आह्लाद भरो।

    शिक्षा और चिकित्सा देखो,
    पीछे कब ये रहती हैं।
    दिल दूखे तब पूछूँ सबसे,
    अनाचार क्यों सहती है।

    जग जननी को गर्भ मारते,
    हम ही तो सब दोषी हैं।
    नारिशक्ति को जो अपमाने,
    पूर्वाग्रह संपोषी है।

    बेटी का सम्मान करें हम,
    नारि शक्ति को सनमाने।
    विविध रूप संपोषे इनके,
    सुता शक्ति को पहचाने।

    इनको बस इनका हक चाहे,
    लाड़ प्यार अकसर दे दो।
    आसमान छू लेंगी तय है,
    बेटे ज्यों अवसर दे दो।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
    सिकंदरा,303326
    दौसा,राजस्थान,9782924479

    पर्यावरण संरक्षण


    .(लावणी छंद १६,१४)

    सुनो मनुज इस,अखिल विश्व में,
    पृथ्वी पर जीवन कितने।
    पृथ्वी जैसे पिण्ड घूमते,
    अंतरिक्ष में वे कितने।।

    नभ में गंगा , सूरज मंडल,
    कैसे,किसने बना दिए।
    इतने तारे,चन्द्र, पिण्ड,ग्रह,
    उप ग्रह कितने गिना दिए।।

    पृथ्वी पर जल वायू जीवन,
    और सभी सामान सजे।
    सबसे सुन्दर मनुज बना है,
    मनु ने कितने साज सृजे।।

    ईश सृष्टि और मानव निर्मित,
    दृग से दिख रहे आवरण।
    चहूँ मुखी है अर्थ समाहित,
    मिल कर बने पर्यावरण ।।

    मानव विकास के ही निमित्त,
    नित नूतन इतिहास रचें।
    इसी दौड़ में भूल रहे मनु ,
    पर्यावरण जरूर बचे।।

    पर्यावरण जरूर संतुलन
    स्वच्छ,स्वस्थ आवरण रहे।
    मनु बस मानवता अपनाले,
    शुद्ध,सत्य , सदाचरण हो।।

    मातप्रकृति ब्रह्माण्ड सुसृष्टा,
    कुल संचालन करती है।
    सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, सितारे,
    ग्रह, उपग्रह, सरती है।।

    जगमाता का रक्षण वंदन,
    पर्यावरण सुरक्षण कर।
    ब्रह्माण्ड संतुलन बना रहे,
    अपना मन संकल्पित कर।

    मात् प्रकृति,है माता जननी,
    सृष्टा का साम्राज्य चले।
    आज अभी संकल्प करे हम,
    माता समता रहे भले।।

    नीर प्रदूषण, वायु प्रदूषण,
    भू प्रदूषण,ध्वनि प्रदूषण।
    अमन प्रदूषण,गगन प्रदूषण,
    मानव मन, मनो प्रदूषण।

    ओजोन पर्त भी भेद रहे,
    नितनूतन राकेटो से।
    अंतरिक्ष में भेज उपग्रह,
    नभ वन में आखेटों से।।

    ‘ग्रीनहाउस इफेक्ट’ चलाते,
    तापमान भू का बढ़ता।
    ध्रुवक्षेत्रों की बर्फ पिघलती,
    सागर जल थल को चढ़ता।

    कहीं बाढ़ है,सूख कहीं है,
    कंकरीट के वन भारी।
    प्राकृत से यूँ खेल खेलना,
    बस हल्की सोच हमारी।।

    एटम बम या युद्ध परीक्षण,
    नये नये हथियार,खाद।
    देश,होड़ से दौड़ मे दौड़े,
    नित नित करे विवाद।।

    “बीती ताहि बिसारि मनुज” तू
    जीवन की तैयारी कर।
    पेड़ लगे बचे पर्यावरण,
    संरक्षण तैयारी कर।

    पर्यावरण अशुद्ध रहा तो,
    जीवन क्या बच पाएगा।
    वरना प्यारे, मनुज हमारे,
    धरा धरा रह जाएगा।
    . ____
    बाबू लाल शर्मा,बौहरा


    धरा पुत्र


    अन्न उगाए, कर्म देश हित,
    कुछ अधिकार इन्हे भी दो।
    मेघ मल्हारें दे न सको तो,
    मन आभार इन्हे भी दो।
    टीन , छप्परों में रह लेता,
    जगते जगते..सो लेता।
    धूप,शीत,में हँसता रहता,
    गिरे शीत हिम रो लेता।

    वर्षा रूठ रही तो क्या है,
    वर्ष निकलते रहतें है।
    फसलें सूखे तो तन सूखे,
    विवश सिसकते रहतें है।
    बच्चों की शिक्षा भी कैसी,
    अन पढ़ जैसे रहतें है।
    कर्जे ,गिरवी , घर के खर्चे,
    सदा ठिनकते ..रहतें है।

    वही दिगम्बर खेतों का नृप
    जून दिसम्बर रहा खड़े।
    हक मांगे तो मिलें गोलियाँ,
    या नंगे तन बैंत पड़े।
    फसल बचे तो सेठ चुकेगा,
    पिछले कर्जे ब्याज धरे।
    बिजली बिल, अरु बैंक उधारी ,
    मनु , राधा की फीस भरे।

    बिटिया के कर करने,पीले
    माता का उपचार करे।
    खर्च बहुत राजस्व मुकदमे,
    गिरते घर पर छान धरे।
    सब की थाली भरे सदा वह
    रूखी रोटी खाता है।
    सब को दूध दही घी देता,
    बिना छाछ रह जाता है।

    रहन रखे अपने खेतों कोे,
    बैंको में रिरियाता है।
    सबको अन्न खिलाने वाला,
    खुद क्यों फाँसी खाता है?
    धरती के धीर सपूतों की,
    साधें सच में पूरी हों।
    आने वाली पीढ़ी को भी,
    कुछ सौगात जरूरी हों।

    इससे ज्यादा धरा पूत को,
    कब कोई दरकार रहीं।
    आप और हम नही सुन रहे,
    सुने राम, सरकार नहीं।
    धरा पुत्र अधिकार चाहता,
    हक उसका,खैरात नहीं।
    मत भूलो इस मजबूरी में,
    इससे बढ़ सौगात नहीं।

    जाग उठे ये भूमि पुत्र तो,
    फिर – सिंहासन खैर नहीं।
    लोकतंत्र की सरकारों के,
    निर्धारक ये, गैर नहीं।
    ठाठ बाट अय्याश तम्हारे,
    होली जला जला देंगे।
    सत्ता की रबड़ी भूलोगे,
    मिथ भ्रम सभी गला देंगे।

    भू सपूत भगवान हमारे,
    सच वरदान यही तो हैं।
    फटेहाल यह जब रहते हो,
    लगे मशान मही तो है।
    धरा देश की सोना उगले,
    गौरव गान किसानी का।
    सोने की चिड़िया कहलाया,
    यह, वरदान, किसानी का।

    इनके तो पेट रहे चिपके
    दूध दही तुम. .पीते हों।
    सबके हित में दुख ये झेलेे,
    मौज, तुम्ही बस जीते हो।
    इनके हक, को छीन,छीन कर,
    ठाठ बाट तुम जीते हो।
    इनके घर को जीर्ण शीर्ण कर,
    राज मद्य तुम पीते हो।

    वोट किसानी, जीते हो तुम,
    पुश्तैनी जागीर नहीं।
    ठकुर सुहाती करे किसी की,
    कृषकों की तासीर नहीं।
    सुनो सभी नेता शासन के,
    भारी अमला सरकारी।
    अगर किसानो को तड़पाया
    भूलोगे सब अय्यारी।

    परिवर्तन का चक्र चला तो,
    सुन्दर साज जलेंं वे सब।
    इनको खोने को क्या, बोलो,
    कोठी,कार जलेंगे तब।।
    राज, राम, से हार रहे ये
    गैरो की औकात नहीं।
    धरा पुत्र हो दुखी देश में,
    ….शेष शर्म की बात नहीं।

    जयजवान,या जयकिसान के,
    … नारों का सम्मान करें।
    पर …साकार तभी ये होंगें,
    कृषकों के.. अरमान सरे।
    खाद,बीज ,औजार दवाएँ,
    बिना दाम बिजली दे दो।
    जीने का अधिकार दिला कर,
    संगत काम इन्हे दे दो।

    पीने और सिँचाई लायक,
    जल ,की सुविधा दिलवादो।
    मंदिर, मस्जिद मुद्दों पहले,
    …..घर शौचालय बनवा दो।
    हँसते सुबहो, शाम दिखे ये,
    मन का मान दिला दो जन।
    बच्चों का पालन हो जाए,
    नव अरमान दिला दो मन।


    बाबू लाल शर्मा ‘बौहरा’ विज्ञ
    सिकंदरा,303326

    मातृशक्ति

    जननी आँचल,भूमि धरातल,
    पावन भावन होता है।
    मानस करनी दैत्य सरीखी,
    अहसासो को खोता है।
    路‍♀
    मानव तन को माँ आजीवन,
    भू ने भी माँ सम पाला।
    बन,दानव तुमने वसुधा में,
    तीव्र हलाहल क्यूँ डाला।
    路‍♀
    मानव  ने  खो दी  मानवता,
    छुद्र स्वार्थ के फेरों में।
    बना हुआ अस्तित्व मात का,
    आशंका के घेरों में।
    路‍♀
    वसुधा का शृंगार छीन कर,
    जन, वन पेड़ काट डाले।
    जल,खनिजों का अति दोहन कर,
    माँ के तन मन दे छाले।
    路‍♀
    मात् मुकुट से मोती छीने,
    पर्वत नंगे जीर्ण किए।
    मानव  घायल होती माता,
    उन घावों को कौन सिंए।
    路‍♀
    अमृत मात् के नस नस बहता,
    सरिताएँ  दूषित कर दी।
    मलयागिरि सी पवन धरा पर,
    उसे  प्रदूषित क्यूँ  कर दी।
    路‍♀
    मातृशक्ति गौरव अपमाने,
    ओ मन,भोले अपराधी।
    जिस माता को आर्य सभ्यता,
    देव शक्ति ने आराधी।
    路‍♀
    मिला मनुज तन दैव दुर्लभम्,
    “वन्य भेड़िये”  क्यों बनते हो।
    अपनी माँ अरु बहिन बेटियां,
    उनको तुम क्यों छलते हो।
    路‍♀
    माँ की सुषमा नष्ट करे नित,
    कंकरीट से उसको क्यों भींचे।
    मातृ शक्ति की पैदाइश हो,
    शुभ्र केश फिर क्यों खींचे।
    路‍♀
    ताल तलैया सागर,नाड़ी,
    नदियों को मत अपमानो।
    क्षिति,जल,पावक,गगन,समीरा,
    इनसे  मिल जीवन मानो।
    路‍♀
    माँ तो दुर्लभ अमरित फल है,
    समझ सको तो कद्र करो।
    माँ की सेवा सात धाम फल,
    भव सागर से पार तरो।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”

    गया साल ये गया गया

    साल गया फिर नूतन आता
    ऐसा चलता आया है।
    हम भी कभी हिसाब लगालें,
    क्या खोया क्या पाया है।

    ईस्वी सन या देशी सम्वत,
    फर्क करें बेमानी है।
    साथ समय के चलना सीखें,
    बात यही ईमानी है।

    साल गया हर साल गया जो,
    आगे भी फिर जाएगा।
    गया समय लौट नहीं आता,
    वह इतिहास कहाएगा।

    समय कीमती कद्र करो तो,
    सारे काम सुहाने हो,
    समय गँवाना जीवन खोना,
    लगते सब बेगाने हो।

    इसीलिए समय संग सीखो,
    सुर व कदम ताल मिलाना।
    सतत सजग जीवन में रहना।
    जग के व्यवहार निभाना।

    जाने कितने साल बीतते,
    कोई गया नया आता।
    कीर्ति बची बस शेष किसी की,
    बीत गया जो कब पाता।

    इतिहास लिखे जाते जिनके,
    मानव वर्ष कभी होते।
    शेष वेश जीवन व समय को,
    मन के वश में ही खोते।

    इसीलिए सब जतन करो जी,
    आने वाला साल नया।
    पीछे पछतावा न कभी हो,
    गया साल ये गया गया।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”

    माँ

    दिव्य जनों के,देव लोक से,
    कैसे,नाम भुलाएँगे।
    कैसे बन्धुः इन्द्रधनुष के
    प्यारे रंग चुराएँगे।

    सिंधु,पिण्ड,नभ,हरि,मानव भी
    उऋण कभी हो पाएँगें?
    माँ के प्रतिरूपों का बोलो,
    कैसे कर्ज चुकाएँगे।

    माँ को अर्पित और समर्पित,
    अक्षर,शब्द सहेजे है।
    उठी लेखनी मेरे कर से,
    भाव *मातु* ने भेजे है।

    पश्चिम की आँधी में अपना,
    निर्मल मन, क्यों बहकाएँ।
    आज नया संकल्प करें हम,
    *माँ* की ऋजुता महकाएँ।

    *मात्* प्रकृति ब्रह्माण्ड सुसृष्टा,
    कुल संचालन करती है।
    सूरज,चन्द्र,नक्षत्र,सितारे,
    ग्रह,उप ग्रह,सब सरती है।

    जग माता का रक्षण वंदन,
    पर्यावरण सुरक्षा हो।
    ब्रह्माण्ड संतुलन बना रहे,
    निज मन में यह इच्छा हों।

    माता प्राकृत,माता जननी,
    सृष्टि क्रम सदैव चलाए।
    आज नया संकल्प करे हम,
    *माँ*, की समता महकाएँ।

    *माँ* धरती सहती विपुल भार,
    तन पर धारण करती है।
    अन,धन,जल,थल,जड़ चेतन के,
    सम् पालन जो करती है।

    इस धरती का संरक्षण तो,
    अपनी जिम्मेदारी हो।
    विश्व *सुमाता* पृथ्वी रक्षण,
    महती सोच हमारी हो।

    माँ,वसुधा सम् अपनी माता,
    माँ का श्रृंगार न जाए।
    आज नया संकल्प करें हम,
    *माँ*, की क्षमता महकाएँ।
    *मात* भारती,स्वयं देश की,
    आरती नित्य उतारती।
    निज संतति के सृजन कर्म से,
    सर्व सौभाग्य सँवारती।

    माँ, बलिवेदी प्रज्वल्य रहे,
    बस इतना अरमान रहे।
    दुष्ट जनों के आतंको से,
    मुक्त रहे *माँ* ध्यान रहे।

    भारत माता सी निज माता,
    माँ के हित शीश नवाएं।
    आज नया संकल्प करे हम,
    *माँ* की ममता महकाएँ।

    *मात्* शारदे सबको वर दे,
    तम हर ज्योति विज्ञान दें।
    शिक्षा से ही जीवन सुधरे,
    वे संस्कार सम्मान दे।

    चले लेखनी सतत हमारी,
    ब्रह्मसुता अभिनंंदन में।
    सैनिक,कृषक,श्रमिक,माता,के,
    मानवता के वंदन में। उठा लेखनी, ऐसा रच दें,
    सारे काज सँवर जाए।
    आज नया संकल्प करें हम,
    *माँ* की शिक्षा महकाएँ।

    *माँ* जननी है हर दुख हरनी,
    प्राणों का जो सृजन करे।
    सर्व समर्पित करती हम पर,
    निज श्वाँसों से श्वाँस भरे।

    माँ के हाथों की रोटी का,
    रस स्वादन पकवान परे।
    माँ की बड़ बड़ वाली लोरी,
    सप्त स्वरों से तान परे।

    माँ का आँचल स्वर्गिक सुन्दर,
    कैसे गौरव गान करें।
    माँ के चरणों में जन्नत है,
    क्या,क्या हम गुणगान करें।

    माँ की ममता मान सरोवर,
    सप्तधाम सेवा फल है।
    माँ का तप हिमगिरि से ऊँचा,
    हम भी उस तप के बल है।

    माँ की सारी बाते लिख दे
    किस की वह औकात अरे।
    वसुन्धरा को कागज करले,
    सागर यदि मसिपात्र करे।

    और लेखनी छोटी पड़ती,
    सब वृक्षों को कलम करे।
    राम,खुदा,सत संत,पीर,जन,
    माँ के चरणों नमन करे।

    उस माँ का सम्मान करें हम,
    वह भी शुभफल को पाए।
    सोच समर्पण की रखले तो,
    वृद्धाश्रम  *माँ* क्यों जाए।

    मातृशक्ति जन की जननी है,
    बात समझ यह आ जाए।
    आज नया संकल्प करें हम,
    *माँ* की सत्ता  महकाएँ।

    *गौमाता* है खान गुणों की,
    भारत में सनमानी है।
    युगों युगों से महिमा इसकी,
    जन गण मन ने मानी है।

    भौतिकता की चकाचौंध में,
    गौ,कुपोषित हो न जाएँ।
    अल्प श्रमी हम बने अगर तो,
    गौ कशी, हरकत न आए।

    निज माता सम् गौ माता हो,
    भाव भक्तिमय बन पाए।
    आज नया संकल्प करे हम,
    *माँ* की शुचिता महकाएँ ।

    *माँ* गंगा,माँ यमुना,नर्मद,
    कावेरी सी सरिताएँ।
    वसुधा का श्रृंगार करें ये,
    लगे खेत ज्यों वनिताएँ।

    इनका भी सम्मान करें ये,
    तृषिता कभी न हो पाएँ।
    सब पापों को हरने वाली,
    *माँ*  न प्रदूषित हो जाएँ।

    सरिताएँ अरु माता निर्मल,
    निर्मल मन साज सजाएँ।
    आज नया संकल्प करें हम,
    *माँ* पावनता महकाएँ।

    मैने शब्द सुमन चुन चुन के,
    शब्दमाल में गिन जोड़े।
    भाव,सुगंध वीणापाणि के,
    मैने  दोनो कर जोड़े।

    मात् कृपा से हर मानव को,
    मानवता सुधि आ जाए।
    आज नया संकल्प करें हम
    *माँ* वरदानी हो जाए।
           
    *बाबू लाल शर्मा “बौहरा”*

    अमर शहीद

    आजादी के हित नायक थे,
    .        उनको शीश झुकाते हैं।
    भगत सिह सुखदेव राजगुरु,
    .         अमर शहीद कहातें हैं।
    *भगतसिंह* तो बीज मंत्र सम,
    .          जीवित है अरमानों में।
    भारत भरत व भगतसिंह को,
    .            गिनते है सम्मानों में। *राजगुरू* आदर्श हमारे,
    .          नव पीढ़ी की थाती है।
    इंकलाब की ज्योति जलाती,
    .         दीपक  वाली  बाती है।
    *सुख देव* बसे हर बच्चे में,
    .          मात भारती चाहत है।
    जब तक इनका नाम रहेगा,
    .         अमर तिरंगा भारत है। जिनकी गूँज सुनाई देती,
    .          अंग्रेज़ों की छाती में।
    वे हूंकार लिखे हम भेजें,
    .          वीर शहीदी पाती में।
    इन्द्रधनुष के रंग बने वे,
    .          आजादी के परवाने।
    उन बेटों को याद रखें हम,
    .        वीर शहादत सनमाने। याद बसी हैं इन बेटों की,
    .          भारत माँ की यादों में।
    बोल सुनाई देते अब भी,
    .            इंकलाब के नादों में।
    तस्वीरों को देख आज भी,
    .            सीने  फूले  जाते हैं।
    उनके देशप्रेम के वादे,
    .       सैनिक आन निभाते हैं। वीर शहीदी परंपरा को,
    .        उनकी  याद  निभाएँगे।
    शीश कटे तो कटे हमारे,
    .       ध्वज का मान  बढ़ाएँगे।
    श्रद्धांजलि हो यही हमारी,
               भारत माँ के पूतों को।
    याद रखें पीढ़ी दर पीढ़ी,
    .          सच्चे  वीर सपूतों को।

    बाबू लाल शर्मा,”बौहरा”

    आतंकवाद एक खतरा

    खतरा बना आज यह भारी,विश्व प्रताड़ित है सारा।
    देखो कर लो गौर मानवी, मनु विकास इससे हारा।

    देश देश में उन्मादी नर, आतंकी बन जाते हैं।
    धर्म वाद आधार बना कर, धन दौलत पा जाते हैं।

    भाई चारा तोड़ आपसी, सद्भावों को मिटा रहे।
    हो,अशांत परिवेश समाजी,अपनों को ये पिटा रहे।

    भय आतंकवाद का खतरा, दुनिया में मँडराता है।
    पाक पड़ौसी इनको निशदिन,देखो गले लगाता है।

    मानवता के शत्रु बने ये,जो खुद के भी सगे नहीं।
    कट्टरता उन्माद खून में, गद्दारी की लहर बही।

    बम विस्फोटों से बारूदी,करे धमाके नित नाशक।
    मानव बम भी यह बन जाते, आतंकी ऐसे पातक।

    अपहरणों की नित्य कथाएँ, हत्या लूट डकैती की।
    करें तस्करी चोरी करते, आदत जिन्हे फिरौती की।

    मादक द्रव्य रखें, पहुँचाए,हथियारों का नित धंधे।
    आतंकी उन्मादी होकर, बन जाते है मति अंधे।

    रूस चीन जापान ब्रिटानी,अमरीका तक फैल रहे।
    भारत की स्वर्गिक घाटी में,देखें सज्जन दहल रहे।

    बने सख्त कानून विश्व में, मारें बिन सुनवाई के।
    मानवता भू रहे शांति पथ, हित देखो जगताई के।

    जेल भरे मत बैठो इनसे, रक्षा खातिर बंद करो।
    वैदेशिक नीति कुछ बदलो, तुष्टिकरण पाबंद करो।

    गोली का उत्तर तोपों से, अब तो हमको देना है।
    मानवता को घाव दिए जो, उनका बदला लेना है।

    गोली मारो फाँसी टाँगो, प्रजा हवाले इन्हे करो।
    उड़ा तोप से सभी ठिकाने,कहदो अपनी मौत मरो।

    जगें देश मानवता हित में, सोच बनालें सब ऐसी।
    करो सफाया आतंकी का, सूत्र निकालो अन्वेषी।

    मिलें देश सब संकल्पित हों, आतंकी जाड़े खोएँ।
    विश्वराज्य की करें कल्पना,बीज विकासी ही बोएँ।

    बाबू लाल शर्मा,बौहरा
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    लेखनी

    एक हाथ में थाम लेखनी,
    गीत स्वच्छ भारत लिखना
    दूजे कर में झाड़ू लेकर,
    घर आँगन तन सा रखना
    स्वच्छ रहे तन मन सा आंगन,
    घर परिवेश वतन अपना
    शासन की मर्यादा मानें
    सफल रहेगा हर सपना

    अपनी श्वाँस थमें तो थम लें,
    जगती जड़ जंगम रखना
    जग कल्याणी आदर्शों में
    तय है मृत्यु स्वाद चखना
    आदर्शो की जले न होली
    मेरी चिता जले तो जल
    कलम बचेगी शब्द अमर कर,
    स्वच्छ पीढ़ि सीखें अविरल

    रुके नही श्वाँसों से पहले
    मेरी कलम रहे चलती
    जाने कितनी आस पिपासा
    इन शब्दों को पढ़ पलती
    स्वच्छ रखूँ साहित्य हिन्द का
    विश्व देश अपना सारा
    शहर गाँव परिवेश स्वच्छ लिख
    चिर सपने सो चौबारा

    आज लेखनी रुकने मत दो,
    मन के भाव निकलने दो।
    भाव गीत ऐसे रच डालो,
    जन के भाव सुलगने दो।
    जग जाए लहू उबाल सखे,
    भारत जन गण मन कह दो।
    आग लगादे जो संकट को,
    वह अंगार उगलने दो।

    सवा अरब सीनों की ताकत,
    हर संकट पर भारी है।
    ढाई अरब जब हाथ उठेंगे,
    कर पूरी तैयारी है।
    सुनकर सिंह नाद भारत का,
    हिल जाएगी यह वसुधा।
    काँप उठें नापाक वायरस,
    रच दे कवि ऐसी समिधा।

    कविजन ऐसे गीत रचो तुम,
    मंथन हो मन आनव का,
    सुनकर ही जग दहल उठे दिल,
    संकटकारी दानव का।
    जन मन में आक्रोश जगादो,
    देश प्रेम की ज्वाला हो।
    मानवता मन जाग उठे बस,
    जग कल्याणी हाला हो।

    आनव=मानवोचित
    बाबू लाल शर्मा विज्ञ

  • बाबूलाल बौहरा के कुण्डलियाँ छंद

    बाबूलाल बौहरा के कुण्डलियाँ छंद

    छंद
    छंद

    संवेदना -कुण्डलिया छंद

    होती है संवेदना, कवि  पशु  पंछी  वृक्ष।
    मानव मानस हो रहे, स्वार्थ पक्ष विपक्ष।
    स्वार्थ पक्ष विपक्ष, शून्य  संवेदन  बनते।
    जाति धर्म के वाद,बंधु आपस में तनते।
    भूल रहे संस्कार,खो रहे संस्कृति मोती।
    हो खुशहाल समाज,जब संवेदना होती।

    बढ़ती  है  संवेदना, राज  धर्म संग  साथ।
    व्यक्ति वर्ग समाज भी,रखें मनुजता माथ।
    रखें मनुजता माथ, मान मानव  मन होवेें।
    मिल के हो संघर्ष, शक्ति  आतंकी  खोवें।
    समझें मनु की बात,अराजकतायें घटती।
    सत्ता  साथ  समाज, तब  संवेदना बढ़ती।

    बाबू लाल शर्मा, “बौहरा”
    सिकंदरा, दौसा,राजस्थान

    अधिकार पर कुण्डलिया

    भारत के संविधान में,दिए मूल अधिकार।
    मानवता  हक में  रहे, लोकतंत्र  सरकार।
    लोकतंत्र  सरकार, लोक से निर्मित होती।
    भूलो मत  कर्तव्य, कर्म  ही सच्चे  मोती।
    कहे लाल कविराय, अकर्मी पाते  गारत।
    मिले खूब अधिकार,सुरक्षा अपने भारत।

    दाता ने हमको दिया, जीवन का अधिकार।
    बुरी आदतें  छोड़ दें, अपने  को  मत मार।
    अपने को मत मार,समझ सुकृत मानव के।
    पर पीड़ा  का पंथ, कहाते मग  दानव  के।
    कहे लाल कविराय,करे सब भला विधाता।
    निभे  सतत  कर्तव्य, कर्मफल  देंगे  दाता।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
    सिकंदरा, दौसा,राजस्थान

    साधु    

    ऐसे सच्चे  साधु जन, जैसे सूप स्वभाव।
    यह तो बीती  बात है, शेष बचा पहनाव।
    शेष बचा पहनाव,तिलक छापे ही खाली।
    जियें विलासी ठाठ, सुनें तो बात निराली।
    कहे  लाल  कविराय, जुटाते  भारी पैसे। 
    सुरा  सुन्दरी  शान, बने   स्वादू अब ऐसे।
      ✨✨✨✨✨
    टोले  साधु  सनेह जन, चेले   चेली  संग।
    कार गाड़ियाँ काफिला, सुरा सुन्दरी भंग।
    सुरा  सुन्दरी  भंग, विलासी भाव अनोखे।
    दौलत  के  हैं  दास, ज्ञान  ये  बाँटे  चोखे।
    बुरे कर्म तन लाल, धर्म धन के बम गोले।
    नाम  कथा  सत्संग, माल ठगते  ये टोले।
        ✨✨✨✨✨

    बाबू लाल शर्मा, बौहरा
    सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

    ऋतु फागुन

    लाया अलि ऋतुराज अब, पछुआ शुष्क समीर!
    प्राकृत रीति प्रतीत जग, चुभे मदन मन तीर!
    चुभे मदन मन तीर, लता तरु वन बौराए!
    चाहत प्रीत सजीव, मदन तन मन दहकाए!
    कहे “लाल” कविराय, विहग पशु जन भरमाया!
    मृग आलिंगन बद्ध, मिलन ऋतु फागुन लाया!

    बाबू लाल शर्मा, बौहरा
    सिकंदरा दौसा राजस्थान

    अबला  नारी  को कहे, होता है अपमान।
    बल पौरुष की खान ये,सबको दे वरदान।
    सबको दे  वरदान, ईश  भी  यह जन्माए।
    महा  बली  विद्वान, धीर   नारी  के  जाए।
    देश रीति इतिहास,बदलती धरती सबला।
    करें आत्मपहचान, नहीं  ये होती अबला।

    होती पीड़ा  प्रसव में, छूट सके  ये  प्रान।
    जानि  गर्भ धारण करे,नारी सबल महान।
    नारी सबल  महान, लहू से  संतति  सींचे।
    खान पान सब देय,श्वाँस जो अपने खींचे।
    सूखे में शिशु सोय, समझ गीले  में सोती।
    ममता सागर नारि, तभी ये सबला  होती।

    सबला ममता के लिए,त्याग सके हैं प्रान।
    देश धर्म  मर्याद हित, ले भी सकती जान।
    ले भी सकती जान,जान इतिहास रचाती।
    पढ़लो  पन्ना धाय, और जौहर  जज्बाती।
    देती  लेती जान, जान क्यों कहते अबला।
    सृष्टि धरा सम्मान,नारि प्राकृत सी सबला।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
    सिकंदरा, दौसा,राजस्थान

    सुन्दरता पर कुण्डलिया

    सुन्दर अपना देश है, सुन्दर जग  में  शान।
    वन्य खेत गिरि मेखला,सरिता सिंधु महान।
    सरिता सिंधु महान, ऋतु  ये हैं मन भावन।
    पेड़,गाय,जल,आग, इन्हे मानें  हम पावन।
    कहे लाल  कविराय,  बरसते  यहाँ  पुरंदर।
    सुन्दर सोच विचार, बोल भाषा सब सुन्दर।

    वंदन  सुन्दर  हो  रहा, सुन्दर शुभ परिवेश।
    सुन्दर फल फूलों सजे,सुन्दर जिसका वेश।
    सुन्दर जिसका वेश, कहें हम भारत माता।
    सागर चरण पखार, लगे ज्यों  वंदन गाता।
    कहे लाल कविराय,करें हम भी अभिनंदन।
    सुन्दर  साज  सँवार, करें  भारत  माँ वंदन।

    सुन्दरता  मन की भली, तन को  देखे भूल।
    सिया स्वर्ण मृग  देख के, भूली ज्ञान समूल।
    भूली  ज्ञान  समूल, लोभ  मन  में  गहराया।
    जागा नहीं विवेक, विचित्र निशाचरि  माया।
    कहे लाल कविराय, छले सुन्दरता  तन की।
    सुन्दरता सत भाव, प्रीत गुण होती मन की।

    कंचन वर्णी  गात हो, गुण मर्याद  विहीन।
    सुन्दरता  कैसे कहूँ, रीत प्रीत  मति  हीन।
    रीत प्रीत मति हीन,गर्व जो तन पर करते।
    सुन्दरता वह मान, मान हित देश पे मरते।
    कहे लाल  कविराय, शहीदी  गाथा मंचन।
    सुन्दरता  मत मान, छलावा काया  कंचन।


    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
    सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

    भारत वतन  महान

    भारत वतन  महान है, विश्व गुरू  पहचान।
    लोकतंत्र  सबसे  बड़ा, सोन  चिरैया  मान।
    सोन  चिरैया  मान, बहे  नद  पावन  गंगा।
    जन गण मन अरमान,रहे बस शान तिरंगा।
    कहे “लाल” कविराय,बचे यह धरा अमानत।
    वतन शान  कश्मीर, तिरंगा अपना  भारत।
      

    आजादी, महँगी  मिली, हुए लाल  कुर्बान।
    राज फिरंगी देश में,जन गण मन अपमान।
    जन गण मन अपमान, रहे  अंग्रेजी  चंगा।
    बलिदानों की बाढ़, लिये  हर हाथ  तिरंगा।
    कहे लाल कविराय, हुई  जागृत  आबादी।
    छिड़ी तिरंगे तान,मिली तब यह आजादी।

    बाबू लाल शर्मा, बौहरा

    दीवाली  शुभ पर्व

    माटी  का  दीपक लिया, नई  रुई  की बाति।
    तेल डाल दीपक जला,आज अमावस राति।
    आज अमावस राति, हार तम सें  क्यों माने।
    अपनी दीपक शक्ति, आज प्राकृत भी जाने।
    कहे लाल कविराय, राति तम की बहु काटी।
    दीवाली  पर  आज, जला इक  दीपक माटी।
                   
    दीवाली  शुभ पर्व  पर, करना  मनुज प्रयास।
    अँधियारे  को  भेद  कर, फैलाना  उजियास।
    फैलाना  उजियास, भरोसे  पर  क्या  रहना।
    परहित जलना सीख,यही दीपक का कहना।
    कहे लाल कविराय, रीति  अपनी  मतवाली।
    करते   तम   से  होड़, भारती  हर  दीवाली।

    ✍©
    बाबू लाल शर्मा, बौहरा
    सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

    रंग बसंती संत

    मधुकर  बासंती  हुए, भरमाए  निज  पंथ।
    सगुण निर्गुणी  बहस में, लौटे  प्रीत सुपंथ।
    लौटे   प्रीत  सुपंथ, हरित परवेज चमकते।
    गोपी विरहा  संत, भ्रमर दिन रैन खटकते।
    कहे लाल कविराय,सजे फागुन यों मनहर।
    कली गोपियों बीच, बने  उपदेशी  मधुकर।

    भँवरा  कलियों  से करे, निर्गुण  पंथी  बात।
    कली गोपियों सी सुने, भ्रमर कान्ह  सौगात।
    भ्रमर  कान्ह  सौगात,स्वयं का ज्ञान सुनाता।
    देख गोपियन प्रेम,कली,अलि कृष्ण सुहाता।
    कहे लाल कविराय, भ्रमर का जीवन सँवरा।
    रंग   बसन्ती  सन्त,  फिरे  मँडराता  भँवरा।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
    सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

    भाई दूज

    चलती रीति सनातनी, पलती प्रीत विशेष!
    भाई बहिना दोज पर, रीत  प्रीत  परिवेश!
    रीत प्रीत  परिवेश, हमारी  संस्कृति न्यारी!
    करे तिलक इस दूज,बंधु को बहिनें प्यारी!
    शर्मा  बाबू लाल, सुहानी  संस्कृति पलती!
    राखी  भैया  दूज, रीति  भारत  में चलती!

    मीरा  जैसी  हो  बहिन, ऐसा  हो  अरमान!
    बहिन चाहती है  सदा, भ्राता  कृष्ण समान!
    भ्राता कृष्ण समान,रखे सुख दुख में समता!
    मात पिता सम प्यार, रखे जो सच्ची ममता!
    शर्मा  बाबू  लाल, बहिन  सब  चाहत  बीरा!
    मिलते सब सौभाग्य, सभी को बहिना मीरा!
    (बीरा~भाई)

    भैया , भैया   दूज   पर, ले  भौजाई   संग!
    मेरे  घर  आजाइयो, चाहत   मनो   विहंग!
    चाहत  मनो विहंग, याद  पीहर  की आती!
    कर बचपन की याद,आज भर आई छाती!
    शर्मा  बाबू  लाल, बहिन  अरु  गैया, मैया!
    रख  तीनों  का  मान, दूज पर  प्यारे भैया!

    ✍©
    बाबू लाल शर्मा,बौहरा
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    कविता

    कविता काव्य कवित्त के, करते कर्म कठोर।
    कविजन केका कोकिला,कलित कलम की कोर।
    कलित कलम की कोर, करे कंटकपथ कोमल।
    कर्म करे कल्याण, कंठिनी काली कोयल।
    कहता कवि करजोड़, करूँ कविताई कमिता।
    काँपे काल कराल, कहो कम कैसे कविता।

    कमिता ~कामना

    …… बाबू लाल शर्मा,बौहरा

    चितवन

    चंचल चर चपला चषक, चण्डी चूषक चाप्!
    चितवन चीता चोर चित, चाह चुभन चुपचाप!
    चाह चुभन चुपचाप, चाल चल चल चतुराई!
    चमन चहकते चंद, चतुर्दिश चष चमचाई!
    चाबुक चण्ड चरित्र, चतुर चतुरानन चंगुल!
    चारु चमकमय चित्र, चुनें चॅम चंदन चंचल!

    *चॅम ~ मित्र, चष ~ दृश्य शक्ति या नेत्र रोग*
    बाबू लाल शर्मा,बौहरा

    हिन्दी हिन्दुस्तान की


    हिन्दी हिन्दुस्तान की, भाषा मात समान।
    देवनागरी लिपि लिखें, सत साहित्य सुजान।
    सत साहित्य सुजान, सभी की है अभिलाषा।
    मातृभाष सम्मान , हमारी अपनी भाषा।
    सजे भाल पर लाल, भारती माँ के बिन्दी।
    भारत देश महान, बने जनभाषा हिन्दी।

    भाषा संस्कृत मात से, हिन्दी शब्द प्रकाश।
    जन्म हस्तिनापुर हुआ, फैला खूब प्रभास।
    फैला खूब प्रभास, उत्तरी भारत सारे।
    तद्भव तत्सम शब्द, बने नवशब्द हमारे।
    कहे लाल कविराय, तभी से जन अभिलाषा।
    देवनागरी मान, बसे मन हिन्दी भाषा।

    भाषा शब्दों का बना, बृहद कोष अनमोल।
    छंद व्याकरण के बने, व्यापक नियम सतोल।
    व्यापक नियम सतोल, सही उच्चारण मिलते।
    लिखें पढ़ें अरु बोल, बने अक्षर ज्यों खिलते।
    कहे लाल कविराय, मिलेगी सच परिभाषा।
    हर भाषा से श्रेष्ठ, हमारी हिन्दी भाषा।

    दोहा चौपाई रचे, छंद सवैया गीत।
    सजल रुबाई भी हुए, अब हिन्दी मय मीत।
    अब हिन्दी मय मीत, प्रवासी जन मन धारे।
    कविताई का भाव, भरें ये कवि जन सारे।
    हो जाता है लाल, तपे जब सोना लोहा।
    तुलसी रहिमन शोध, बिहारी कबिरा दोहा।


    भारत भू भाषा भली, हिन्दी हिंद हमेश।
    सुंदर लिपि से सज रहे, गाँव नगर परिवेश।
    गाँव नगर परिवेश, निजी हो या सरकारी।
    हिन्दी हित हर कर्म, राग अपनी दरबारी।
    कहे लाल कविराय, विरोधी होंगें गारत।
    कर हिन्दी का मान, श्रेष्ठ तब होगा भारत।

    हिन्दी सारे देश की, एकीकृत अरमान।
    प्रादेशिक भाषा भले, प्रादेशिक पहचान।
    प्रादेशिक पहचान, सभ्यता संस्कृति वाहक।
    उनका अपना मान, विवादी बकते नाहक।
    शर्मा बाबू लाल , सजे गहनों पर बिन्दी।
    प्रादेशिक हर भाष, देश की भाषा हिन्दी।

    वाणी देवोंं की कहें, संस्कृत संस्कृति शान।
    तासु सुता हिन्दी अमित, भाषा हिंदुस्तान।
    भाषा हिंदुस्तान, वर्ण स्वर व्यंजन प्यारे।
    छंद मात्रिका ज्ञान, राग रस लय भी न्यारे।
    गयेे शरण में लाल, मातु पद वीणा पाणी।
    रचे अनेकों ग्रंथ, मुखर कवियों की वाणी।

    बाबू लाल शर्मा

    जाड़ा

    जाड़ो पड़ गो जोर को, थर थर  काँपै गात।
    पाल़ो पड़तो फसल पै,होय जियाँ हिमपात।
    होय जियाँ हिमपात, ओस रात्यूँ  या टपकै।
    म्हारै  मरुधर  माँय, गाय  सूनी   ही  भटकै।
    गाड़ोलिया  लुहार, शरण उनकै बस  गाड़ो।
    सहै,  घाम  बरसात, बिगाड़ै   काँई   जाड़ो।


    जाड़ा तू है खोड़लो,दुशमन गुरबत ढोर।
    माकड़ कीट पखेरवाँ, विरहा  बूढ़ै  चोर।
    बिरहा  बूढ़ै चोर, शीत मैं  थर थर काँपै।
    होय साँस को रोग,जियाँ ये विरहा हाँपै।
    खाँसू  ल्यावै  ढोर, रजाई  बकरी,,पाड़ा।
    किय्याँ करै मजूँर, पड़ै जद जोराँ जाड़ा।


    पाणत फसलाँ मै करै,धरती पूत किसान।
    रात रात  रुल़ता फिरै, वै  भी  छै  इंसान।
    वै  भी  छै  इंसान, आज  गुरबत के मारै।
    भूख  नंग  महादेव , भरै   वै  पेट  हमारै।
    शर्मा बाबू लाल, देय अब कुण नै लानत।
    मंत्री,नेता दोय, एक दिन करल्यो पाणत।


    चारो  पटको  माछल़ी, पंछी   चींटी  ढोर।
    वस्त्र दान करताँ कहो,प्रात सबै शुभ भोर।
    प्रात सबै शुभ भोर,लगै फिर जाड़ो थोड़ो।
    गुड़ बाँटो अरु खाय, खींचड़ो  होवै घोड़ो।
    सबल़ाँ ताप अलाव, डरो क्यूँ जाड़ै  यारो।
    सबकी   करो  सहाय, बणैलो  भाई चारो।


    बाबू लाल शर्मा,”बौहरा”
    सिकंदरा, दौसा,राजस्थान

  • बाबूलाल शर्मा बौहरा के नवगीत

    बाबूलाल शर्मा बौहरा के नवगीत

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    कहानी मोड़ मन मानस

    कहानी मोड़ मन मानस
    उदासी छोड़नी होगी।
    पिपासा पीर विश्वासी
    निराशा भूल मन योगी।।

    गरीबी की नहीं गिनती
    दुखों का जब पहाड़ा हो
    नही बेघर नदी समझो
    किनारा तल अखाड़ा ।
    वृथा भटको नहीं बादल
    विरह पथ दर्द संयोगी।,।

    उजाले भूल मन चातक
    अँधेरे सिंधु से ले लो
    बहे सावन दृगों से ही
    अकालों का यजन झेलो
    बहे गंगा कठौती में
    किसानी श्वेद श्रम भोगी।

    बनाले मीत वर्णों को
    लिखो हर पीर परिजन सी
    बसे परिवार छंदों के
    सृजन कविता प्रिया तन स
    वियोगी घन उठो बन कर
    सृजन संगीत संभोगी।।

    नदी की धार सम पर्वत
    पराई पीर हरनी है
    समंदर प्रीति का खाली
    जगत की गंद भरना ।
    तपन से भाप बन उड़ना
    बरसना खूब घन जोगी।।

    दुखों के ताल रीते कर
    तलाई बो मिताई की
    नहर बाँधों नदी नालों
    सनेही मन सिँचाई की ।
    मिटा अक्षर अभावों के
    सँभलना आज मन रोग।।


    ✍©
    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    बौहरा भवन, सिकंदरा,
    दौसा,राजस्थान ९७८२९२४४७९

    सूरज उगने वाला है

    मीत यामिनी ढलना तय है,
    कब लग पाया ताला है।
    *चीर तिमिर की छाती को अब,*
    *सूरज उगने वाला है।।*

    आशाओं के दीप जले नित,
    विश्वासों की छाँया मे।
    हिम्मत पौरुष भरे हुए है,
    सुप्त जगे हर काया में।

    जन मन में संगीत सजे है,
    दिल में मान शिवाला है।
    चीर तिमिर…………. ।

    हर मानव है मस्तक धारी,
    जिसमें ज्ञान भरा होता।
    जागृत करना है बस मस्तक,
    सागर तल जैसे गोता।

    ढूँढ खोज कर रत्न जुटाने,
    बने शुभ्र मणि माला है।
    चीर ………………….।

    सत्ता शासन सरकारों मे,
    जनहित बोध जगाना है।
    रीत बुराई भ्रष्टाचारी,
    सबको दूर भगाना है।

    मिले सभी अधिकार प्रजा को,
    दोनो समय निवाला है।
    चीर तिमिर……………..।

    हम भी निज कर्तव्य निभाएँ,
    बालक शिक्षित व्यवहारी।
    देश धरा मर्यादा पालें,
    सत्य आचरण हितकारी।

    शोध परिश्रम करना होगा,
    लाना हमे उजाला है।
    चीर तिमिर …………..।

    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    आज लेखनी रुकने मत दो


    आज लेखनी,रुकने मत दो
    गीत स्वच्छ भारत लिखना।
    दूजे कर में झाड़ू लेकर,
    घर आँगन तन सा रखना।।

    आदर्शो की जले न होली
    मेरी चिता जले तो जल
    कलम बचेगी शब्द अमर कर,
    स्वच्छ पीढ़ि सीखें अविरल

    रुके नही श्वाँसों से पहले
    फले लेखनी का सपना।
    आज……………………।।

    स्वच्छ रखूँ साहित्य हिन्द का
    विश्व देश अपना सारा
    शहर गाँव परिवेश स्वच्छ लिख
    चिर सपने निज चौबारा

    अपनी श्वाँस थमे तो थम ले,
    तय है मृत्यु स्वाद चखना।
    आज………………………।।

    एक हाथ में थाम लेखनी,
    मन के भाव निकलने दो
    भाव गीत ऐसे रच डालो,
    जन के भाव सुलगने दो

    खून उबलने जब लग जाए,
    बोलें जन गण मन अपना।
    आज……………………,।।

    सवा अरब सीनों की ताकत,
    हर संकट पर भारी है
    ढाई अरब जब हाथ उठेंगे,
    कर पूरी तैयारी है

    सुनकर सिंह नाद भारत का,
    नष्ट वायरस, तय तपना।
    आज……………………।।

    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    बौहरा भवन
    सिकदरा,303326
    दौसा,राजस्थान,9782924479

    गोरी दर्पण देख रही है

    नयन सीप से, दाड़िम दंती,
    अधर पंखुरी, खोल सही।
    मन मतवाली रेशम चूनर
    गोरी .. दर्पण देख रही ।।

    झीनी चूनर बणी ठणी सी
    नयन कटोरी कजरारी
    चिबुक सुहानी, नागिन वेणी
    कटि तट झूमर शृंगारी

    मोहित हो जाए दर्पण भी
    पछुआ शीतल श्वाँस बही
    अधर…………………।।

    माँग सजी मोती से अनुपम
    नथ टीका कुण्डल चमके
    जल दर्शी है कंठ सुकंठी
    कंठहार झिल मिल दमके

    दर्पण क्या प्रति उत्तर देगा
    मन मानस में खड़ग गही।
    अधर……..।।

    कंगन चूड़ी हिना प्रदर्शित
    छिपा कभी यौवन अँगिया
    लाल गुलाबी नील वर्ण में
    यौवन वन महके बगिया

    शायद मन नवनीत तुम्हारा
    तन की चाहत मथन दही।
    अधर………….।।

    रात चाँदनी जैसी टिम टिम
    धानी चूनर मय लहँगा
    प्रीत पायलें कदली पद में
    स्वप्न फले सावन महँगा

    मन का अवगुंठन तो खोलो
    प्रीत रीत की बात कही।
    अधर…………………..।।

    ✍ ©
    बाबू लाल शर्मा, विज्ञ
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    शूल से अब प्रीत पलती

    भागे भँवरे ताप देखकर
    शूल से अब प्रीत पलती।
    मरुस्थली का नेह पाकर
    विरह की गंगा छलकती।।

    गगन भाल की बिंदी रूठी
    रात अमावस चमक रही
    रंग बहे गंगा की धारा
    श्वेत वसन तन दमक रही

    पीर विरह में डूब चकोरी
    लगती संध्या सी ढलती।
    मकरंद……………….।।

    सागर में मिल नदिया अपना
    बिम्ब खोजती पानी में
    ओस जमी सूखी रेती पर
    आँसू की मनमानी में

    अवगुंठन में सूखी पलकें
    आँसू की श्रद्धा छलती।
    मकरंद……………….।।

    रीत प्रीत आकाशी खेती
    संयोगों की आशा है
    बरसाती नालो से भू की
    बुझती कहाँ पिपासा है

    नेह मेह चाहत में वसुधा।
    प्रिय घन की माला भजती।
    मकरंद………………….।।


    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    बौहरा-भवन
    सिकंदरा दौसा राजस्थान

    शांत सागर सा हृदय ले

    शांत सागर सा हृदय ले
    मेघ बैठा नद किनारे।
    छंद मन में गुन गुना कर
    उम्र सावन की विचारे।।

    ले कुहासा भोर जगती
    धुंध की चादर लपेटे
    मेघ धरती पर उतर कर
    साँझ की शैय्या समेटे

    बाग की आशा सुलगती
    भृंग का पथ रथ सँवारे।
    शांत………………..।।

    शीत में सावन सरसता
    प्रीत की बदरी लुभाए
    आग हिय में भर सके वह
    पुष्प ही नव गंध लाए

    बिजलियों की आस लेकर
    चंद्र भी भूला सितारे।
    शांत………………।।

    नाव बिन माँझी सरकती
    रेत की पगडंडियों में
    नेह की पतवार बिकती
    आसमानी मंडियों में

    गीत सुन सुन कर हवाएँ
    आँधियों का रूप धारे।
    शांंत………………..।।

    प्यास से व्याकुल हुआ घन
    ओस सुमनो को टटोले
    आस भँवरे में जगी है
    गीत गा कर मन सतोले

    फूल का मन डोल जाता
    पंथ तितली का निहारे।
    शांत सागर सा हृदय ले
    मेघ ..बैठा नद किनारे।।

    ✍©
    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    बौहरा- भवन ३०३३२६
    सिकंदरा, जिला-दौसा

    राजस्थान ९७८२९२४४७९

    बना लेखनी वह कविता


    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।
    स्वर दे दो मय भाव सनेही,
    बह जाए मन की सरिता।

    शब्द शब्द को ढूँढ़ ढूँढ़ कर,
    भाव पिरो दूँ मन भावन।
    ज्येष्ठ ताप पाठक को भाए,
    जैसे रमणी को सावन।
    मानव मानस मानवता हित,
    छंद लिखूँ भव शुभ फलिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    बात बुजुर्गों के हित चित लिख,
    याद दिला दूँ बचपन की।
    बच्चों के कर्तव्य लिखूँ सब,
    समझ जगा दूँ पचपन की।
    बेटी बने सयानी पढ़ कर,
    वृद्धा गाए बन बनिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    लिखूँ गुटरगूँ युगल कपोती,
    नाच उठे वन तरुणाई।
    मोर मोरनी नृत्य लिखूँ वन,
    बाज बजाए शहनाई।
    नीड़ सहेजे चील बया का,
    सारस बक संगत चकिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    चातक पपिहा पीड़ा भूले,
    काग करे पिक से यारी।
    जंगल में मंगलमय फागुन,
    शेर दहाड़ें भयहारी।
    भालू चीता संगत चीतल,
    रखें धरा को शुभ हरिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    श्रमिक किसानी पीड़ा हर लें,
    ऐसे भाव लिखूँ सुख कर।
    स्वेद सुगंधित जग पहचाने,
    कहें प्रसाधन विपदा कर।
    बने सत्य श्रम के जन साधक,
    भाव हरे तन मन थकिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    राजनीति के धर्म लिखूँ कुछ,
    पावन शासक शासन हो।
    स्वच्छ बने सत्ता गलियारे,
    सरकारें जन भावन हो।
    ध्रुव तारे सम मतदाता बन,
    नायक चुनलें भल भविता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    प्रीत रीत से पाले जन मन,
    खिला खिला जीवन महके।
    कटुता द्वेष भूल हर मानव,
    मानस मनुज हँसे चहके।
    रिश्ते नाते निभें पड़ोसी,
    याद करें क्यों नर अरिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    सोच विकासी भाव जगे भव,
    भूल युद्ध बन अविकारी।
    कर्तव्यों की होड़ मचे मन,
    बात भूल जन अधिकारी।
    देश देश में जगे बंधुता,
    विश्व राज्य की मम कमिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    जय जवान लिख जय किसान की,
    जय विज्ञान लिखूँ जग हित।
    नारी का सम्मान करें सब,
    बिटिया को लिख दूँ शुभ चित।
    गौ धरती जग मात मान लें,
    समझें जग पालक सविता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    सागर नदी भूमि नभ प्राकृत,
    मानवता के हित लिख दूँ।
    लिख आभार पंख धर का मैं,
    कलम शारदे पद रख दूँ।
    पहले लिख कर निज मन मंशा,
    भाव जगा माँ शुभ शुचिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*

    आज पंछी मौन सारे


    देख कर मौसम बिलखता
    आज पंछी मौन सारे
    शोर कल कल नद थमा है
    टूटते बस तट किनारे।।

    विश्व है बीमार या फिर
    मौत का तांडव धरा पर
    जीतना है युद्ध नित नित
    व्याधियों का तम हरा कर

    छा रहा नैराश्य नभ में
    रो रहे मिल चंद्र तारे।
    देख कर…………….।।

    सिंधु में लहरें उठी बस
    गर्जना क्यूँ खो गई है
    पर्वतो से पीर बहती
    दर्द की गंगा नई है

    रोजड़े रख दिव्य आँखे
    खेत फसलों को निहारे।
    देख कर……………..।।

    तितलियाँ लड़ती भ्रमर से
    मेल फुनगी से ततैया
    ओस आँखो की गई सब
    झूठ कहते गाय मैया

    प्रीति की सब रीत भूले
    मीत धरते शर करारे।
    देख कर………….।।

    राज की बातें विषैली
    गंध मद दर देवरों से
    बैर बिकते थोक में अब
    सत्य ले लो फुटकरों से

    ज्ञान की आँधी रुकी क्यों
    डूबते जल बिन शिकारे।
    देख कर……………….।।


    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    आपके बिन सब अधूरी


    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।
    गया भूल भी मधुशाला,
    वह गुलाबी मद सरूरी।

    सो रही है भोर अब यह,
    जागरण हर यामिनी को।
    प्रीत की ठग रीत बदली,
    ठग रही है स्वामिनी को।
    दोष देना दोष है अब,
    प्रीत की बाजी कसूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।

    प्रीत भूले रीत को जब,
    मन भटक जाता हमारा।
    भूल जाता गात कँपता,
    याद कर निश्चय तुम्हारा।
    सत्य को पहचानता मन,
    जगत की बाते फितूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।

    उड़ रहा खग नाव सा मन,
    लौट कर आए वहीं पर।
    सोच लूँ मन मे भले सब,
    बात बस मन में रही हर।
    प्रेम घट अवरोध जाते,
    हो तनों मन में हजूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।

    प्रेम सपन,तन पाश लगे,
    यह मन मे रही पिपासा।
    शेष जगत में बची नहीं,
    अपने मन में जिज्ञासा।
    आओ तो जी भर देखूँ,
    कर दो मन्शा यह पूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।
    . °°°°°°°
    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा दौसा राजस्थान

    आज दलदल में फँसे हैं

    आज दलदल में फँसे है, प्राण भी!
    यह सरल मन चाहता अब, त्राण भी।

    तन मन लगा है नयन शर , घाव है!
    भटक रहा तन माँझी मन, नाव है!!
    चंदा चुभता हिय लगे, कृपाण भी!
    आज दलदल में फँसे हैं, प्राण भी!

    बैरिन सम ऋतु बासंती, लग रही!
    कूँक कोयल बन हलाहल, मन बही!!
    पढ़े मन अब चाह गरुड पुराण भी!
    आज दलदल में फँसे है, प्राण भी!!

    झूठे हृदय ठगे माया, रीति से!
    सदा पालता जग रिपुता,प्रीति से!!
    लगता है दिल होता पाषाण भी!
    आज दलदल में फँसे हैं, प्राण भी!!

    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    पीर जलाए आज विरह फिर

    पीर जलाए आज विरह फिर,बनती रीत!
    लम्बी विकट रात बिन नींदे, पुरवा शीत!

    लगता जैसे बीत गया युग, प्यार किये!
    जीर्ण वसन हो बटन टूटते, कौन सिँए!
    मिलन नहीं भूले से अब तो, बिछुड़े मीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    याद रहीं बस याद तुम्हारी, भोली बात!
    बाकी तो सब जीवन अपने, खाए घात!
    कविता छंद भुलाकर लिखता, सनकी गीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    नेह प्रेम में रूठ झगड़ना, मचना शोर!
    हर दिन ईद दिवाली जैसे, जगना भोर!
    हर निर्णय में हिस्सा किस्सा, हारे जीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर,बनती रीत!

    याद सताती तन सुलगाती, बढ़ती पीर!
    जितना भी मन को समझाऊँ, घटता धीर!
    हुआ चिड़चिड़ा जीवन सजनी,नैन विनीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    प्रीत रीत की ऋतुएँ रीती, होती साँझ!
    सुर सरगम मय तान सुरीली, बंशी बाँझ!
    सोच अगम पथ प्रीत पावनी, मन भयभीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    सात जन्म का बंधन कह कर, बहके मान!
    आज अधूरी प्रीत रीत जन, मन पहचान!
    यह जीवन तो लगे प्रिया अब, जाना बीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!


    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा दौसा राज

    पत्थर दिल कब पिघले

    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!
    शिक्षा के उत्तम स्वर फूटे,
    जो रागों को निँगले!

    सत्य बिके नित चौराहे पर,
    गिरवी आस रखी है
    दूध दही घी डिब्बा बंदी,
    मदिरा खुली रखी है!
    विश्वासों की हत्या होती,
    पत्थर दिल कब पिघले!
    लता लता को खाना चाहे
    कली कली को निँगले!

    गला घुटा है यहाँ न्याय का,
    ईमानों का सौदा!
    कर्ज करें घी पीने वाले
    चाहे बिके घरौंदा!
    होड़ा होड़ी मची निँगोड़ी,
    किस्से भूले पिछले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!

    अण्डे मदिरा मांस बिक रहे,
    महँगे दामों ठप्पे से!
    हरे साग मक्खन गुड़ मट्ठा,
    गायब चप्पे चप्पे से!
    पढ़े लिखे ही मौन मूक हो,
    मोबाइल से निकले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!

    बेटी हित में भाषण झाड़े,
    भ्रूण लिंग जँचवाते!
    कहें दहेजी रीति विरोधी,
    बहु को वही जलाते!
    आदर्शो की जला होलिका
    कर्म करें नित निचले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!

    संस्कारों को फेंक रहे सब,
    नित कचरा ढेरों में!
    मात पिता वृद्धाश्रम भेजें
    प्रीत ढूँढ गैरों में!
    वृद्ध करे केशों को काले,
    भीड़ भाड़ में पिट ले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!


    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा दौसा राजस्थान

    सन्नाटों के कोलाहल में

    सन्नाटों के कोलाहल में
    नदियों के यौवन पर पहरा।
    लम्पट पोखर ताल तलैया
    सोच रहे सागर से गहरा।।
    . १
    ज्वार उठा सागर में भारी
    लहरों का उतरा है गहना
    डरे हुए आँधी अँधियारे
    वृक्ष गर्त में ठाने रहना।

    मन पंछी उन्मुक्त गगन उड़
    वापस नीड़ों में आ ठहरा।
    . २
    खेत खेत सूखी तरुणाई
    मुख पर चीर दुपट्टा बाँधे
    काल कहार मसलते देखो
    तेल हाथ ले अपने काँधे

    जूहू चौपाटी नदिया तट
    रक्तबीज का झण्डा फहरा।
    . ३
    कंचन कामी तरुण कामिनी
    लता चमेली मुँह को ढाँपे
    प्रेम गली पथ दीवारें तम
    शयन कक्ष भी थर थर काँपे

    मीत मिताई रिश्ते नाते
    रोक पंथ ही पढे ककहरा।
    . ४
    चौक चाँदनी जंतर मंतर
    पगडंडी पथ गलियारों के
    घूँघट के पट लगे हुए हैं
    माँझी नद खेवनहारों के
    लाशें शोर मचाएँ भारी
    पुतले देखें दहन दशहरा।
    सन्नाटों के…………..।।


    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    बौहरा – भवन, ९७८२९२४४७९
    सिकंदरा ,दौसा, राजस्थान ३०३३२६

    रूठ भले कैसे गाएँगे

    रूठ भले कैसे गाएँगे
    विलग चंद्रिका से राकेश।
    रश्मिरथी से बना दूरियाँ
    कब दमके नभ घन आवेश।।

    नित्य शिलाओं से टकराए
    बहती गंगा अविरल धार
    नौकाएँ जल चीर चीर कर
    करे पथिक को नदिया पार
    प्राकृत सृष्टा मेल रहे तब
    खिलता है नूतन परिवेश।
    रूठ…………………..।।

    धरा रूठ कर शशि से कैसे
    धवल चंद्रिका ओढे नित्य
    सागर पर्वत ग्रह पिण्डों को
    उर्जा देता है आदित्य
    करे नही वे भेद किसी से
    सम रखते हर देश विदेश।
    रूठ…………………….।।

    व्रती चातकी शशि को ताके
    व्याकुल उल्लू चीखे रात
    चकवा चकवी नित्य बिछुड़ते
    करते रहते दिन भर बात
    चकमक देता अग्नि तभी जब
    संघर्षण हो मीत विशेष।
    रूठ………………….।।

    छंद रूठ जाए कविता से
    जल बिन जीए कैसे मीन
    कवि से रूठ लेखनी छिटके
    स्वर देगी फिर कैसे बीन
    सात स्वरों के इंद्रधनुष को
    देख खिले घन श्यामल वेश।
    रूठ……………………..।।

    मनो मनाओ श्यामल केशी
    विलग करो मत वीणा तार
    शब्द लेखनी कवि मिल रचिए
    नव गीतों से नव संसार
    मन में प्राकृत भाव पिरो लो
    बिम्ब रहे क्यों कोई शेष।
    रूठ………………….।।


    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

    नेह की बरसात पावन

    चाह सागर से मिलन की
    पर्वतों से पीर पलती।
    मोम की मूरत समंदर
    प्रीत की नदिया मचलती।।

    नेत्र खोले झाँकता मुख
    नेह की बरसात पावन
    दर्द की सौगात खुशियाँ
    जन्म दृग ले नित्य सावन

    पाहनों को चूम कर ही
    नीर ले नर्मद निकलती।

    मोम के पुतले बुलाते
    मौन आँखों के इशारे
    नाव बिन माँझी चली है
    रेत के सागर किनारे

    केश कंटक से चुभे कर
    गाल पर गंगा छलकती।

    पेड़ से लिपटी लता को
    खींच चूमे रेत के कण
    आँधियों के ज्वार भाटे
    सिंधु थामें आवरण

    नासिका की श्वाँस से तप
    आह की दरिया झलकती।

    जब छुए पाहन हृदय को
    मेघ सा मन हिय धड़कता
    बन्द आँखो की लपट वन
    कौंध नभमंडल कड़कता

    मूर्ति से अभिसार करती
    जाह्नवी धारा उछलती।
    चाह सागर ………….


    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान


  • अविनाश तिवारी की रचना

    अविनाश तिवारी की रचना

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    मां मंदिर की आरती

    मां मंदिर की आरती,मस्जिद की अजान है।
    मां वेदों की मूल ऋचाएं, बाइबिल और कुरान है।

    मां है मरियम मेरी जैसी,
    मां में दिखे खुदाई है।
    मां में नूर ईश्वर का
    रब ही मां में समाई है।
    मां आंगन की तुलसी जैसी
    सुन्दर इक पुरवाई है।
    मां त्याग की मूरत जैसी
    मां ही पन्ना धाई है।।
    मां ही आदि शक्ति भवानी
    सृष्टि की श्रोत है
    मां ग्रन्थों की मूल आत्मा
    गीता की श्लोक है।
    मां नदिया का निर्मल पानी
    पर्वत की ऊंचाई है
    मां में बसे हैं काशी गंगा,
    मन की ये गहराई है।
    मां ही मेरा धर्म है समझो
    मां ही चारों धाम है।
    मां चन्दा की शीतल चाँदनी
    ईश्वर का वरदान है।
    अविनाश तिवारी

    गांधी फिर कभी आओगे

    नमन बापू नमन गांधी
    गांधी तुम फिर आओगे
    जनमानस के पटल पर
    छुद्र स्वार्थ हटाओगे।


    जाति पाती ही ध्येय बना
    सत्ता के गलियारों का
    सत्य अहिंसा नारे बन गए
    जनता को भरमाने का
    बढ़ती पशुता नग्नता सी
    कैसी वैचारिक विषमता है
    मानवता शर्मिंदा होती
    ये कैसी समरसता है।
    चरखा पर हम सूत कातते
    स्वालम्बन कभी सिखाओगे
    भटकी देश की जनता सारी
    गांधी फिर कभी आओगे


    खादी बन गया सपना देखो
    चरखा गरीब ही कात रहा
    नारा स्वदेशी का देते देते
    विदेशी को अपना रहा।
    सत्याग्रह को अस्त्र बनाकर
    स्वराज फिर लाओगे
    पूछ रही है जनता सारी
    गांधी फिर कब आओगे
    बापू तुम फिर आओगे।।



    अविनाश तिवारी
    अमोरा
    जांजगीर चाम्पा

    मैं भारत का लोकतंत्र

    मैं भारत का लोकतंत्र,
    जन गण मुझमें समाया है ।
    संसद मेरा मंदिर,
    जनता ने मुझे बनाया है ।।


    मैं गरीब की रोजी रोटी,
    भूखों का निवाला हूँ ।
    मैं जनों का स्वाभिमान भी
    भारत का रखवाला हूँ ।।

    मैं जन हूँ जनता के खातिर,
    जनता द्वारा पोषित हूँ ।
    बन अधिकार जनता का मैं,
    पौधा जन से रोपित हूँ ? ।।


    ऐसे जनतंत्र को दाग लगाने,
    भेड़चाल तुम न चलना ।
    मत बिकना कभी नोटों से,
    प्रजातन्त्र अमर रखना ।।


    कहना दिल्ली सिंहासन से,
    ये जनता का दरबार है।
    भूल से भी भरम न रखना,
    ये तेरी सरकार है ।।


    अमर हमारा लोकतंत्र है,
    खुशियां रोज मनाते हैं ।
    ईद दिवाली वैसाखी क्रिसमस,
    मिलकर हम मनाते हैं ।।

    अविनाश तिवारी
    अमोरा जांजगीर चाम्पा 495668
    मो-8224043737

    एक पाती प्रेम की

    एक पाती प्रेम की
    तेरे नाम लिख रहा हूँ,
    तेरी आँखों की सुरमई पे
    जीवन तेरे नाम कर रहा हूँ।

    तेरा आँचल जब लहराये
    क्यों मन मेरा हर्षाये
    तेरे अधरों की है लाली
    तेरी लटकती कान की बाली
    तेरे पग पग को कमल
    लिख रहा हूँ
    इक पाती प्रेम की
    तेरे नाम कर रहा हूँ।

    यूँ लट से गिरती बुँदे
    मोती सा जो दमके
    तेरी खनखनाती बोली
    तेरी हंसी तेरी ठिठोली
    बस यही इकरार कर रहा हूँ
    प्रिये प्रेम की प्रथम पाती
    तेरे नाम कर रहा हूँ।
    कैसे भेजूं किससे भेजूं
    दिल का दर्द कैसे सहेजूं
    दिन को तेरे लिये रात कह रहा हूँ
    प्रिये ये पाती तेरे नाम
    कर रहा हूँ।
    तेरा खिड़की पे आना वो पर्दा उठाना
    उठाकर गिराना
    गजब ढा जाता है।
    नयनों के बाण से घायल बनाना
    रिझाकर हमसे आँखे चुराना
    क्यों तुमको भाता है।
    तेरी जुल्फों के छांव की
    आस ढूंढ़ रहा हूँ।
    प्रिये प्रीत की प्रथम पाती
    तेरे नाम कर रहा हूँ।।

    अविनाश तिवारी
    अमोरा
    जांजगीर चाम्पा

    हमसफ़र पर कविता

    अख्श मेरा वो ऐसे मिटाने लगे,
    न मिले थे कभी ऐसे दिखाने लगे

    कल तलक बसते थे धड़कन में जिनके,
    आज पर्दे में मुँह को छुपाने लगे।
    अख्श मेरा………

    आंख झुकती रही कुछ कह न सकी,
    राज दिल मे ही खुद दबाने लगे।

    न पूछे थे हम क्यूँ प्यार तूने किया
    अश्क आंखों से वो यूं बहाने लगे।
    अख्श……….

    पास आये थे यूं बनेंगे हमसफ़र
    आज अपने से ही दूर जाने लगे।
    वफ़ा हमने  कि जो बेवफा न कहा
    दर्द दिल का था उसे बहलाने लगे।
    अख्श…………..


    अविनाश तिवारी
    अमोरा जांजगीर चाम्पा

    रोम रोम में बसते प्रभु तुम

    शून्यता से पूर्णता
    अनन्त तुम्हारा विस्तार है।
    सृष्टि के कण कण में विराजित
    तेरा ही साम्राज्य है।

    आख्यान तुम व्याख्यान  हो
    अपरिमेय संपूरित  ज्ञान हो
    हे अनादि अनदीश्वर तुम्ही
    सांख्य विषय कला और विज्ञान हो।

    सूत्र हो सूत्र धार हो
    नियति तुम करतार हो
    हो परिभाषित संचिता
    अपरिभाषित तुम भरतार हो।

    जग नियंत्रक परिपालक
    संहारक प्राणवान हो
    उदित जीव जीवात्मा
    के बस तुम्ही आधार हो।

    हूँ अबोध शिशु तेरा
    मर्म न तेरा जान सका
    आदि तुम अंत तुम
    परम् सत्य न पहचान सका।

    तुम नसों में बहते रुधिर
    स्वांस और उच्छ्वास हो
    रोम रोम में बसते प्रभु तुम
    प्रतिपल मेरे पास हो
    कण कण में निवास हो।

    अविनाश तिवारी

    कोई तो है-ईश्वरीय सत्ता पर कविता

    बीज से पौधा फिर बीज
    क्रम है निरन्तर
    नियंता भी है
    सुनो कोई तो है।

    सुख और दुख अंतर्निहित
    मन के भाव द्वन्दित
    इन्हें सुलझाता है कौन
    सुनो कोई तो है

    नदिया से गागर गागर में सागर
    बूंदों का बनना
    फिर नीचे गिरना
    क्रम अनवरत
    कोई तो है

    जीवन और मृत्यु
    चिर निरन्तर अनुक्रम
    पाप और मोक्ष
    कर्मो का निर्वहन
    संतृप्त की खोज
    आत्म अन्वेषण
    सुनो कोई तो है

    आत्मा परमात्मा
    परम् सुख जीवात्मा
    मोह का बन्धन
    प्रेम अनुबन्धन
    बंधे है सब नियति की डोर
    कोई तो है
    तो क्यो नकारते
    तुम अदृश्य सत्ता
    क्यों झुठलाते
    निर्विकार रूप
    सत्य असत्य की कसौटी
    परमेश्वर का सत
    हां यही है यही है
    अनादि अनीश्वर का रूप
    हां कोई तो है
    कोई तो है।

    @अवि
    अविनाश तिवारी
    अमोरा जांजगीर चाम्पा

  • महान क्रिकेटर कपिल देव पर कविता

    महान क्रिकेटर कपिल देव पर कविता

    महान क्रिकेटर कपिल देव पर कविता

    क्रिकेट के असली हीरो”कपिल देव”

    क्रिकेट के इतिहास में ,
    जिसने किया कुछ ऐसा काम।
    विश्वकप हासिल करके,
    रौशन किया देश का नाम।

    क्रिकेट का जुनून नहीं उस वक्त,
    आपने क्रिकेट के खेल को सजाया।
    विश्वकप का खिताब जमाकर,
    आपने देश का मान बढ़ाया।

    हर भारतीय को गर्व है आप पर,
    भारत माँ के लाल,
    विश्व क्रिकेट में जग जीता आपने,
    बेहतर किया कमाल।

    भारत रत्न नहीं मिला आपको,
    इसका कोई गम नहीं।
    विश्व क्रिकेट के महान खिलाड़ी,
    आप किसी से कम नहीं।

    पुरस्कार के मोहताज नहीं आप,
    न इसका कोई संताप है।
    खेल प्रेमियों के ह्रदय में बसे हो,
    क्रिकेट के असली हीरो आप है।

    ✍️ रचनाकार-महदीप जँघेल ग्राम- खमतराई, खैरागढ़ जिला- राजनांदगांव(छ.ग)

    महान क्रिकेटर कपिल देव

    लॉर्ड्स के मैदान में
    भारत का डंका बजाया
    महान क्रिकेटर कपिल देव ने
    विश्वकप जीतकर दिखाया

    वेस्टइंडीज था महारथी
    उसको भी धूल चटाया
    क्रिकेट के इस महाकुंभ में
    भारत का मान बढ़ाया

    अद्भुत जीवट के आप खिलाड़ी
    साहस का पाठ पढ़ाया
    प्रतिद्वंदीयों की थी शामत आई
    एक-एक कर सब को हराया

    गर्व है हर हिंदुस्तानी को आप पर
    चिर प्रतिक्षित गौरव दिलाया
    बदल सकते हैं हम भी किस्मत
    हर भारतीय को एहसास दिलाया

    आप जैसा खिलाड़ी बनना
    बड़े सौभाग्य की है बात
    विरले ही मिलती है जग में
    अनूठी जीवटता वाली यह सौगात

    – आशीष कुमार मोहनिया बिहार