कोरोनावायरस कविता : कोरोनावायरस कई प्रकार के विषाणुओं (वायरस) का एक समूह है जो स्तनधारियों और पक्षियों में रोग उत्पन्न करता है। यह आरएनए वायरस होते हैं। इनके कारण मानवों में श्वास तंत्र संक्रमण पैदा हो सकता है जिसकी गहनता हल्की (जैसे सर्दी-जुकाम) से लेकर अति गम्भीर (जैसे, मृत्यु) तक हो सकती है।
यहाँ पर आपको कोरोना कविता ( Corona kavita ) कुछ दिए जा रहे हैं जिससे आपको कोरोना से सम्बंधित जानकारी मिलेगी .
कोरोना से ऐ इंसान तू अब मत घबरा,
श्रद्धा व सबूरी का एक दीप तो जला।
मौत तो निश्चित है चंदेल आनी एक दिन,
हर पल ख़ौफ से अब ख़ुद को न सता।
रब की बनाई सृष्टि से न कर भेदभाव,
सावधानी से ख़ुद व समाज का कर बचाव।
बहुत शक्तिशाली है ह्यूमन इम्यून सिस्टम,
स्वयं भी जाग एवं दुनिया को भी जगा।
कोरोना से ऐ इंसान तू अब मत घबरा, श्रद्धा व विश्वास का एक दीप तो जला।
कोरोना से युद्ध -डिजेन्द्र कुर्रे
उनकी खातिर प्रार्थना, मिलकर करना आज। जो जनसेवा कर रहे, भूल सभी निज काज। भूल सभी निज काज, प्राण जोखिम में डाले। कोरोना से युद्ध , चले करने दिलवाले। कह डिजेन्द्र करजोरि, सुनो उनके भी मन की। बस सेवा का भाव, हृदय में बसती उनकी।।
डिजेन्द्र कुर्रे
कोरोना विषय पर कविता – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
इंसानियत की आजमाईश है कोरोना कहता है कोरोना कहता है कोरोना
अपने बड़ों का सम्मान कर न एक दूसरे को नमस्ते और राम – राम करो न
उड़ा ले जाऊंगा मैं तुमको सूखे पत्तो न की तरह स्वयं पर अभिमान करो न
संस्कृति , संस्कारों पर विश्वास धरो न एक दूसरे पर अविश्वास करो न
रिश्तों की डोर की पकड़ को बनाए रखो इंसानियत का ज़ज्बा बनाये रखो न
मुसीबत के इस दौरे – कोरोना में उस खुदा पर एतबार करो न
कहता है कोरोना कहता है कोरोना
धर्म कर्म की राह चलो न वर्णशंकर प्रजाति से इस धरा को प्रदूषित करो न अपने धर्म पर विश्वास करो न
मंदिर, चर्च, गुरूद्वारे और मस्जिद तेरे लिए हैं उस खुदा से अपना दर्द एक बार कहो न
चंद पुष्प उसके चरणों में अर्पित कर दो और उस खुदा से गुजारिश करो इस कोरोना से हमें मुक्त करो न
इस कोरोना से हमें मुक्त करो न इस कोरोना से हमें मुक्त करो न
सिरमौर कोरोना -राजाभइया गुप्ता ‘राजाभ’
वायरस दल का बना सिरमौर कोरोना। साथ लाया त्रासदी का दौर कोरोना।।
चीन से आकर जगत में पैर फैलाये, बन महामारी डराये और कोरोना।
आक्रमण छुपकर करे फिर कष्ट दे भारी, आज जीवन लीलता ज्यों कौर कोरोना।
भेद बिन पीड़ित सभी को कर रहा अब तो, हो गया है क्रूर कितना पौर कोरोना।
सावधानी से नियम जो पाल लेता है, हार उससे छोड़ दे निज ठौर कोरोना।
दूर जब ‘राजाभ’ करता संक्रमण अपना, पास आने को न करता गौर कोरोना।
रचयिता-राजाभइया गुप्ता ‘राजाभ’ लखनऊ.
कोरोना अब तुम कब जाओगे –रमेश लक्षकार लक्ष्यभेदी
इतना तो सता लिया हमें और कितना सताओगे कोरोना, सच-सच बतलाना अब तुम कब जाओगे ?
जिस किसी को पाश में जकड़ा तो पहले उसका गला पकड़ा किसी को न तुम छोड़ रहे हो पतला-दुबला हो या मोटा-तगडा़
इतना तो रूला दिया और कितना रुलाओगे कोरोना, सच-सच बतलाना अब तुम कब जाओगे ?
बाजार खाया, रोजगार खाया धन्धा खाया, व्यवसाय खाया नौकरीयाँ खाई, मजदूरी खाई अब शेष क्या रह गया भाई ?जाओगे
पहले ही बहुत छीन लिया तुमने क्या सब कुछ छीनकर जाओगे कोरोना, सच-सच बतलाना अब तुम कब जाओगे ?
नवीन रिश्तों-नातों को खाया बैंड-बाजों-बारातों को खाया हसीन सपनों को भी निगला फिर भी तेरा मन न पिघला ।
तुम कब? कैसे? पिघलोगे हमें भी कुछ तो बताओगे कोरोना सच-सच बतलाना अब तुम कब जाओगें ?
जन-जीवन कितना गया बदल कोई आज गया, कोई गया कल आकाश को भी यही रहा खल रवि असमय ही क्यों गया ढल ?
निराशा का तिमिर तो फैल गया अब और कितना फैलाओगे कोरोना, सच-सच बतलाना अब तुम कब जाओगे?
कवि रमेश लक्षकार लक्ष्यभेदी बिनोता
कोरोना काल- मधु सिंघी
जो भी सोचें समझें पहले , जीवन की उपयोगी शाम।। काल मिला हमको चिंतन का , सोच समझकर करना काम।
मानव जाति पड़ी संकट में , हाहाकार करे हर ग्राम।। कोरोना सबको सिखलाता , एक रहो मिल कर हो काम।
पहले सब हिलमिल रहते थे , आज अकेले बीते शाम। जान पड़ी है अब सांसत में , क्या सूझे अब कोई काम।।
बदला काल यही अब देखो , रोजाना करना व्यायाम। बदलो अब तो जीवन शैली, आवश्यक है अब ये काम।।
साफ सफाई ज्यादा रखना , सासों पर करना है ध्यान । ऐसी है ये अलग बिमारी , जिंदा रखना अपनी जान ।।
साँसों का सौदा होता है , देखें होती जीवन शाम। दूर रहो पर मिलकर रहना , आना हमको सबके काम।।
जीवन जीना एक कला है , सीखें इसको लेना काम। रह जायेगी कोरी यादें , लेंगे सब अपना फिर नाम।।
मधुसिंघी (नागपुर)
रोग बड़ा कोरोना आया – बाबा कल्पनेश
रोग बड़ा कोरोना आया,लाया भारी हाहाकार। रुदन-रुदन बस रुदन चतुर्दिक्,छाया प्रातः ही अँधियार।। बंद सभी दरवाजे देखे,मिलने जुलने पर भी रोक। पत्थर दिल मानव का देखा,शीश पटकता जिस पर शोक।।
लहर गगन तक उठती-गिरती,देखा लहर-लहर उद्दाम। दूरभाष पर कल बतियाया,गया मृत्यु के अब वह धाम।। अपने जन का काँध न पाया,विवश खड़े सब अपने दूर। अपने-अपने करतल मींजे,स्वजन हुए इतने मजबूर।।
घर के भीतर कैद हुए सब,वैद न कर पाए उपचार। अधर-अधर सब मास्क लगाए,दिखे अधिक मानव हुशियार।। प्रथम लहर आयी थी हल्की,धक्का रही दूसरी मार। हट्टे-कट्टे स्वस्थ दिखे जो,गिरते वे भी चित्त पिछार।।
इतनी आफत कभी न आई,मानव हुए सभी लाचार। शिष्टाचार सभी जन भूले,सामाजिकता खाये मार।। गए-गए सो दूर गये जो,जो हैं उन्हें मिले धिक्कार। सब जन निज लघुता में सिमटे,विवश कर रही है सरकार।।
नये सिरे से छुआ-छूत का,खुलता देख रहा हूँ द्वार।। भले मुबाइल व्हाट्स एप पर,दीखे सुंदर शिष्टाचार। पर अपने जीवन में मानव,लगा भूलने निज व्यवहार।। सरक रहा है मानवता का,बना बनाया दृढ़ आधार।।
जितना डरा हुआ है मानव,कलम बोलती केवल हाय। देह रक्त के संबंधों पर,रही भयानकता मड़राय।। कोरोना की काली छाया,करती बहुत दूर तक मार। कौन यहाँ इसका अगुवा है,देने वाला इतना खार।।
बाबा कल्पनेश सारंगापुर-प्रयागराज
डरे कोरोना भागे – दुर्गेश मेघवाल
सौ करोड़ , हां, सौ करोड़ हम, दुनियां में हुए आगे । एक सुरक्षा कवच बना , जहां ,डरे कोरोना भागे । ताली , थाली, लॉकडाउन सब , जनता के बने हथियार । दुनियां केवल ताकती रह गई, वैक्सीन हमारी हुई तैयार । शासन भी मुस्तैद खड़ा रहा, सजग प्रशासन जागे । सौ करोड़ , हां, सौ करोड़ हम, दुनियां में हुए आगे । एक सुरक्षा कवच बना , जहां ,डरे कोरोना भागे ।
कुछ सख्ती,कुछ प्यार मोहब्बत, साथ सभी का बना रहा । एक-एक का मिला सहयोग , हाथ सभी का लगा रहा । सब मिल एक प्रयासों से ही , हम असीम ऊंचाइयां लांघे। सौ करोड़ , हां, सौ करोड़ हम, दुनियां में हुए आगे । एक सुरक्षा कवच बना , जहां ,डरे कोरोना भागे ।
साठ ,पैतालीस, अठारह का , समय निर्धारण मिसाल बना । मात्र उम्र नहीं समता का भी , जनता-मन विश्वास जमा । वयस्क सभी ही बने सुरक्षित, जब टीका-कोरोना लागे । सौ करोड़ , हां सौ करोड़ हम, दुनियां में हुए आगे । एक सुरक्षा कवच बना , जहां ,डरे कोरोना भागे ।
बचपन भी हो निकट भविष्य , सुरक्षा चक्र के घेरे में । सभी भारतीय तब ही सुरक्षित , कोरोना के पग-फेरे से । स्वस्थ हो भारत ,सदा सुरक्षित, ‘अजस्र ‘ दुआ यही मांगे । सौ करोड़ , हां, सौ करोड़ हम, दुनियां में हुए आगे । एक सुरक्षा कवच बना , जहां ,डरे कोरोना भागे ।
काशी के मोरोपंत के घर गूँजी एक तनया की किलकारी, मनु, छबीली, मणिकर्णिका सब पुकारते बारी – बारी, तलवारबाजी में तेज़, घुड़सवारी में तरबेज़ तेरह वर्षीय, गंगाधर राव की रानी, बन गयी झाँसी की पटरानी, खोया नन्हा दामोदर और गंगाधर राव को, फिर दत्तक लिया आनंद उर्फ दामोदर राव को 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन की बहादुर सिपहसालार, अपनी झाँसी नहीं दूँगी, शपथ ली हर बार । साहस और पराक्रम की ऐसी मिशाल, जिसने जलाए रखी स्वतंत्रता आंदोलन की मशाल। जनरल ह्यूम ने कहे गौरव उद्गार, रानी को कहा स्वतंत्रता आंदोलन का साहसी किरदार । साथियों संग लड़ी वह बलिदानी, अंतिम समय तक हार न मानी, घायल होकर गिरी खून से लथ-पथ, उन्तीस वर्ष की रानी निकली अंतिम पथ पर। यही तो हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
भूल-ग़लती आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर तख्त पर दिल के, चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक, आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी, खड़ी हैं सिर झुकाए सब कतारें बेजुबां बेबस सलाम में,
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे दरबारे आम में।
सामने बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा चेहरा कि जिस पर काँप दिल की भाप उठती है… पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद समूचे जिस्म पर लत्तर झलकते लाल लम्बे दाग बहते खून के वह क़ैद कर लाया गया ईमान… सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता, बेख़ौफ नीली बिजलियों को फैंकता खामोश !! सब खामोश
मनसबदार शाइर और सूफ़ी, अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार हैं खामोश !!
नामंजूर उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त नामंजूर हठ इनकार का सिर तान..खुद-मुख्तार कोई सोचता उस वक्त- छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह, सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का, वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह, शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !! (लेकिन, ना जमाना साँप का काटा) भूल (आलमगीर) मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार हाँ खूँखार आलीजाह, वो आँखें सचाई की निकाले डालता, सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता करता हमे वह घेर बेबुनियाद, बेसिर-पैर.. हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में शाही मुकाम में !!
इतने में हमीं में से अजीब कराह सा कोई निकल भागा भरे दरबारे-आम में मैं भी सँभल जागा कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार बख्तरबंद समझौते सहमकर, रह गए, दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए, दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे, दढ़ियल सिपहसालार संजीदा सहमकर रह गये !!
लेकिन, उधर उस ओर, कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा, अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में कहीं पर खो गया, महसूस होता है कि यह बेनाम बेमालूम दर्रों के इलाक़े में ( सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में) मुहैया कर रहा लश्कर; हमारी हार का बदला चुकाने आयगा संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर, हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर प्रकट होकर विकट हो जायगा !!
( कविता संग्रह, “चाँद का मुँह टेढ़ा है से”
ब्रह्मराक्षस / गजानन माधव मुक्तिबोध
शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़ परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी ठण्डे अंधेरे में बसी गहराइयाँ जल की… सीढ़ियाँ डूबी अनेकों उस पुराने घिरे पानी में… समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार लेकिन बात गहरी हो।
बावड़ी को घेर डालें खूब उलझी हैं, खड़े हैं मौन औदुम्बर। व शाखों पर लटकते घुग्घुओं के घोंसले परित्यक्त भूरे गोल। विद्युत शत पुण्यों का आभास जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर हवा में तैर बनता है गहन संदेह अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि दिल में एक खटके सी लगी रहती।
बावड़ी की इन मुंडेरों पर मनोहर हरी कुहनी टेक बैठी है टगर ले पुष्प तारे-श्वेत
उसके पास लाल फूलों का लहकता झौंर– मेरी वह कन्हेर… वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का शून्य अम्बर ताकता है।
बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य ब्रह्मराक्षस एक पैठा है, व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज, हड़बड़ाहट शब्द पागल से। गहन अनुमानिता तन की मलिनता दूर करने के लिए प्रतिपल पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात स्वच्छ करने– ब्रह्मराक्षस घिस रहा है देह हाथ के पंजे बराबर, बाँह-छाती-मुँह छपाछप खूब करते साफ़, फिर भी मैल फिर भी मैल!!
और… होठों से अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार, अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार, मस्तक की लकीरें बुन रहीं आलोचनाओं के चमकते तार!! उस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह…. प्राण में संवेदना है स्याह!!
किन्तु, गहरी बावड़ी की भीतरी दीवार पर तिरछी गिरी रवि-रश्मि के उड़ते हुए परमाणु, जब तल तक पहुँचते हैं कभी तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने झुककर नमस्ते कर दिया।
पथ भूलकर जब चांदनी की किरन टकराये कहीं दीवार पर, तब ब्रह्मराक्षस समझता है वन्दना की चांदनी ने ज्ञान गुरू माना उसे।
अति प्रफुल्लित कण्टकित तन-मन वही करता रहा अनुभव कि नभ ने भी विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!
और तब दुगुने भयानक ओज से पहचान वाला मन सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से मधुर वैदिक ऋचाओं तक व तब से आज तक के सूत्र छन्दस्, मन्त्र, थियोरम, सब प्रेमियों तक कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी सभी के सिद्ध-अंतों का नया व्याख्यान करता वह नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम प्राक्तन बावड़ी की उन घनी गहराईयों में शून्य।
……ये गरजती, गूँजती, आन्दोलिता गहराईयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः उद्भ्रान्त शब्दों के नये आवर्त में हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता, वह रूप अपने बिम्ब से भी जूझ विकृताकार-कृति है बन रहा ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ
बावड़ी की इन मुंडेरों पर मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं टगर के पुष्प-तारे श्वेत वे ध्वनियाँ! सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुम्बर सुन रहा हूँ मैं वही पागल प्रतीकों में कही जाती हुई वह ट्रेजिडी जो बावड़ी में अड़ गयी।
x x x
खूब ऊँचा एक जीना साँवला उसकी अंधेरी सीढ़ियाँ… वे एक आभ्यंतर निराले लोक की। एक चढ़ना औ’ उतरना, पुनः चढ़ना औ’ लुढ़कना, मोच पैरों में व छाती पर अनेकों घाव। बुरे-अच्छे-बीच का संघर्ष वे भी उग्रतर अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर गहन किंचित सफलता, अति भव्य असफलता …अतिरेकवादी पूर्णता की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं… ज्यामितिक संगति-गणित की दृष्टि के कृत भव्य नैतिक मान आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान… …अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना कब रहा आसान मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!
रवि निकलता लाल चिन्ता की रुधिर-सरिता प्रवाहित कर दीवारों पर, उदित होता चन्द्र व्रण पर बांध देता श्वेत-धौली पट्टियाँ उद्विग्न भालों पर सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए अनगिन दशमलव से दशमलव-बिन्दुओं के सर्वतः पसरे हुए उलझे गणित मैदान में मारा गया, वह काम आया, और वह पसरा पड़ा है… वक्ष-बाँहें खुली फैलीं एक शोधक की।
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा, प्रासाद में जीना व जीने की अकेली सीढ़ियाँ चढ़ना बहुत मुश्किल रहा। वे भाव-संगत तर्क-संगत कार्य सामंजस्य-योजित समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ हम छोड़ दें उसके लिए। उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन- शोध में सब पण्डितों, सब चिन्तकों के पास वह गुरू प्राप्त करने के लिए भटका!!
किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी …लाभकारी कार्य में से धन, व धन में से हृदय-मन, और, धन-अभिभूत अन्तःकरण में से सत्य की झाईं निरन्तर चिलचिलाती थी।
आत्मचेतस् किन्तु इस व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन… विश्वचेतस् बे-बनाव!! महत्ता के चरण में था विषादाकुल मन! मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य उसकी महत्ता! व उस महत्ता का हम सरीखों के लिए उपयोग, उस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व!!
पिस गया वह भीतरी औ’ बाहरी दो कठिन पाटों बीच, ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!
बावड़ी में वह स्वयं पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा वह कोठरी में किस तरह अपना गणित करता रहा औ’ मर गया… वह सघन झाड़ी के कँटीले तम-विवर में मरे पक्षी-सा विदा ही हो गया वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी यह क्यों हुआ! क्यों यह हुआ!! मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य होना चाहता जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य, उसकी वेदना का स्रोत संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक पहुँचा सकूँ।
मैं तुम लोगों से दूर हूँ / गजानन माधव मुक्तिबोध
मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।
मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है, अकेले में साहचर्य का हाथ है, उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है !! सबके सामने और अकेले में। ( मेरे रक्त-भरे महाकाव्यों के पन्ने उड़ते हैं तुम्हारे-हमारे इस सारे झमेले में )
असफलता का धूल-कचरा ओढ़े हूँ इसलिए कि वह चक्करदार ज़ीनों पर मिलती है छल-छद्म धन की किन्तु मैं सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ जीवन की। फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ विष से अप्रसन्न हूँ इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए पूरी दुनिया साफ़ करन के लिए मेहतर चाहिए वह मेहतर मैं हो नहीं पाता पर , रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है कि कोई काम बुरा नहीं बशर्ते कि आदमी खरा हो फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता। रिफ्रिजरेटरों, विटैमिनों, रेडियोग्रेमों के बाहर की गतियों की दुनिया में मेरी वह भूखी बच्ची मुनिया है शून्यों में पेटों की आँतों में न्यूनों की पीड़ा है छाती के कोषों में रहितों की व्रीड़ा है
शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम है सत्य केवल एक जो कि दुःखों का क्रम है
मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ शेव्रलेट-डॉज के नीचे मैं लेटा हूँ तेलिया लिबास में पुरज़े सुधारता हूँ तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।
नाश देवता / गजानन माधव मुक्तिबोध
घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा, तेरी प्रत्यंचा का कंपन सूनेपन का भार हरेगा हिमवत, जड़, निःस्पंद हृदय के अंधकार में जीवन-भय है तेरे तीक्ष्ण बाणों की नोकों पर जीवन-संचार करेगा ।
तेरे क्रुद्ध वचन बाणों की गति से अंतर में उतरेंगे, तेरे क्षुब्ध हृदय के शोले उर की पीड़ा में ठहरेंगे कोपुत तेरा अधर-संस्फुरण उर में होगा जीवन-वेदन रुष्ट दृगों की चमक बनेगी आत्म-ज्योति की किरण सचेतन ।
सभी उरों के अंधकार में एक तड़ित वेदना उठेगी, तभी सृजन की बीज-वृद्धि हित जड़ावरण की महि फटेगी शत-शत बाणों से घायल हो बढ़ा चलेगा जीवन-अंकुर दंशन की चेतन किरणों के द्वारा काली अमा हटेगी ।
हे रहस्यमय, ध्वंस-महाप्रभु, जो जीवन के तेज सनातन, तेरे अग्निकणों से जीवन, तीक्ष्ण बाण से नूतन सृजन हम घुटने पर, नाश-देवता ! बैठ तुझे करते हैं वंदन मेरे सर पर एक पैर रख नाप तीन जग तू असीम बन ।
दिमाग़ी गुहान्धकार का ओरांग उटांग / गजानन माधव मुक्तिबोध
स्वप्न के भीतर स्वप्न, विचारधारा के भीतर और एक अन्य सघन विचारधारा प्रच्छन!! कथ्य के भीतर एक अनुरोधी विरुद्ध विपरीत, नेपथ्य संगीत!! मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क उसके भी अन्दर एक और कक्ष कक्ष के भीतर एक गुप्त प्रकोष्ठ और
कोठे के साँवले गुहान्धकार में मजबूत…सन्दूक़ दृढ़, भारी-भरकम और उस सन्दूक़ भीतर कोई बन्द है यक्ष या कि ओरांगउटांग हाय अरे! डर यह है… न ओरांग…उटांग कहीं छूट जाय, कहीं प्रत्यक्ष न यक्ष हो। क़रीने से सजे हुए संस्कृत…प्रभामय अध्ययन-गृह में बहस उठ खड़ी जब होती है– विवाद में हिस्सा लेता हुआ मैं सुनता हूँ ध्यान से अपने ही शब्दों का नाद, प्रवाह और पाता हूँ अक्समात् स्वयं के स्वर में ओरांगउटांग की बौखलाती हुंकृति ध्वनियाँ एकाएक भयभीत पाता हूँ पसीने से सिंचित अपना यह नग्न मन! हाय-हाय औऱ न जान ले कि नग्न और विद्रूप असत्य शक्ति का प्रतिरूप प्राकृत औरांग…उटांग यह मुझमें छिपा हुआ है।
स्वयं की ग्रीवा पर फेरता हूँ हाथ कि करता हूँ महसूस एकाएक गरदन पर उगी हुई सघन अयाल और शब्दों पर उगे हुए बाल तथा वाक्यों में ओरांग…उटांग के बढ़े हुए नाख़ून!!
दीखती है सहसा अपनी ही गुच्छेदार मूँछ जो कि बनती है कविता
अपने ही बड़े-बड़े दाँत जो कि बनते है तर्क और दीखता है प्रत्यक्ष बौना यह भाल और झुका हुआ माथा
जाता हूँ चौंक मैं निज से अपनी ही बालदार सज से कपाल की धज से।
और, मैं विद्रूप वेदना से ग्रस्त हो करता हूँ धड़ से बन्द वह सन्दूक़ करता हूँ महसूस हाथ में पिस्तौल बन्दूक़!! अगर कहीं पेटी वह खुल जाए, ओरांगउटांग यदि उसमें से उठ पड़े, धाँय धाँय गोली दागी जाएगी। रक्ताल…फैला हुआ सब ओर ओरांगउटांग का लाल-लाल ख़ून, तत्काल… ताला लगा देता हूँ में पेटी का बन्द है सन्दूक़!! अब इस प्रकोष्ठ के बाहस आ अनेक कमरों को पार करता हुआ संस्कृत प्रभामय अध्ययन-गृह में अदृश्य रूप से प्रवेश कर चली हुई बहस में भाग ले रहा हूँ!! सोचता हूँ–विवाद में ग्रस्त कईं लोग कई तल
सत्य के बहाने स्वयं को चाहते है प्रस्थापित करना। अहं को, तथ्य के बहाने। मेरी जीभ एकाएक ताल से चिपकती अक्ल क्षारयुक्त-सी होती है और मेरी आँखें उन बहस करनेवालों के कपड़ों में छिपी हुई सघन रहस्यमय लम्बी पूँछ देखती!! और मैं सोचता हूँ… कैसे सत्य हैं– ढाँक रखना चाहते हैं बड़े-बड़े नाख़ून!!
किसके लिए हैं वे बाघनख!! कौन अभागा वह!!
अंधेरे में / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध
ज़िन्दगी के… कमरों में अँधेरे लगाता है चक्कर कोई एक लगातार; आवाज़ पैरों की देती है सुनाई बार-बार….बार-बार, वह नहीं दीखता… नहीं ही दीखता, किन्तु वह रहा घूम तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक, भीत-पार आती हुई पास से, गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा अस्तित्व जनाता अनिवार कोई एक, और मेरे हृदय की धक्-धक् पूछती है–वह कौन सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई ! इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से फूले हुए पलस्तर, खिरती है चूने-भरी रेत खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह– ख़ुद-ब-ख़ुद कोई बड़ा चेहरा बन जाता है, स्वयमपि मुख बन जाता है दिवाल पर, नुकीली नाक और भव्य ललाट है, दृढ़ हनु कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति। कौन वह दिखाई जो देता, पर नहीं जाना जाता है !! कौन मनु ?
बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब… अँधेरा सब ओर, निस्तब्ध जल, पर, भीतर से उभरती है सहसा सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है और मुसकाता है, पहचान बताता है, किन्तु, मैं हतप्रभ, नहीं वह समझ में आता।
अरे ! अरे !! तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष चमक-चमक उठते हैं हरे-हरे अचानक वृक्षों के शीशे पर नाच-नाच उठती हैं बिजलियाँ, शाखाएँ, डालियाँ झूमकर झपटकर चीख़, एक दूसरे पर पटकती हैं सिर कि अकस्मात्– वृक्षों के अँधेरे में छिपी हुई किसी एक तिलस्मी खोह का शिला-द्वार खुलता है धड़ से …………………… घुसती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी अन्तराल-विवर के तम में लाल-लाल कुहरा, कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक, रहस्य साक्षात् !!
तेजो प्रभामय उसका ललाट देख मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख सम्भावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर विलक्षण शंका, भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात् गहन एक संदेह।
वह रहस्यमय व्यक्ति अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है पूर्ण अवस्था वह निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की, मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव, हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह, आत्मा की प्रतिमा। प्रश्न थे गम्भीर, शायद ख़तरनाक भी, इसी लिए बाहर के गुंजान जंगलों से आती हुई हवा ने फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी- कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर मौत की सज़ा दी !
किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही आँखों में बँध गयी, किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया, किसी शून्य बिन्दु के अँधियारे खड्डे में गिरा दिया गया मैं अचेतन स्थिति में !