इन मेरी सूखी टहनियों पर न जाना, मुझे देख यूँ नजर न चुराना सूखा दरख्त समझ मुंह न चिढ़ाना, पतझड को देख दिल में उदासी छाई, फिर भी चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई, बहारे फिर भी आयेंगी ये है हकीकत पुरानी, फिर से हर पत्ता, हर डाल हो जाएगी धानी, मैं फिर पनपूँगा,मैं फिर पनपूँगा! नयी शाखाओं, नयी पत्तियों से सज जाऊँगा, परिन्दें गीत सुनायेंगे, पथिक शीतलता पायेंगे । मैं फिर पनपूँगा,मैं फिर पनपूँगा!!! माला पहल ‘मुंबई’
यह सपने सुकुमार तुम्हारी स्मित से उजले! कर मेरे सजल दृगों की मधुर कहानी, इनका हर कण हुआ अमर करुणा वरदानी, उडे़ तृणों की बात तारकों से कहने यह चुन प्रभात के गीत, साँझ के रंग सलज ले!
लिये छाँह के साथ अश्रु का कुहक सलोना, चले बसाने महाशून्य का कोना कोना, इनकी गति में आज मरण बेसुध बन्दी है, कौन क्षितिज का पाश इन्हें जो बाँध सहज ले।
पंथ माँगना इन्हें पाथेय न लेना, उन्नत मूक असीम, मुखर सीमित तल देना, बादल-सा उठ इन्हें उतरना है, जल-कण-सा, नभ विद्युत् के बाण, सजा शूलों को रज ले!
जाते अक्षरहीन व्यथा की लेकर पाती, लौटानी है इन्हें स्वर्ग से भू की थाती, यह संचारी दीप, ओट इनको झंझा दे, आगे बढ़, ले प्रलय, भेंट तम आज गरज ले!
छायापथ में अंक बिखर जावें इनके जब, फूलों में खिल रूप निखर आवें इनके जब, वर दो तब यह बाँध सकें सीमा से तुमको, मिलन-विरह के निमिष-गुँथी साँसों की स्रज ले!
ओ पागल संसार! | नीरजा कविता | महादेवी वर्मा
ओ पागल संसार! माँग न तू हे शीतल तममय! जलने का उपहार!
करता दीपशिखा का चुम्बन, पल में ज्वाला का उन्मीलन; छूते ही करना होगा जल मिटने का व्यापार! ओ पागल संसार!
दीपक जल देता प्रकाश भर, दीपक को छू जल जाता घर, जलने दे एकाकी मत आ हो जावेगा क्षार! ओ पागल संसार!
जलना ही प्रकाश उसमें सुख बुझना ही तम है तम में दुख; तुझमें चिर दुख, मुझमें चिर सुख कैसे होगा प्यार! ओ पागल संसार!
शलभ अन्य की ज्वाला से मिल, झुलस कहाँ हो पाया उज्जवल! कब कर पाया वह लघु तन से नव आलोक-प्रसार! ओ पागल संसार!
अपना जीवन-दीप मृदुलतर, वर्ती कर निज स्नेह-सिक्त उर; फिर जो जल पावे हँस-हँस कर हो आभा साकार! ओ पागल संसार!
बताता जा रे अभिमानी! कविता | महादेवी वर्मा
बताता जा रे अभिमानी! कण-कण उर्वर करते लोचन स्पन्दन भर देता सूनापन जग का धन मेरा दुख निर्धन तेरे वैभव की भिक्षुक या कहलाऊँ रानी! बताता जा रे अभिमानी! दीपक-सा जलता अन्तस्तल संचित कर आँसू के बादल लिपटी है इससे प्रलयानिल, क्या यह दीप जलेगा तुझसे भर हिम का पानी? बताता जा रे अभिमानी! चाहा था तुझमें मिटना भर दे डाला बनना मिट-मिटकर यह अभिशाप दिया है या वर; पहली मिलन कथा हूँ या मैं चिर-विरह कहानी! बताता जा रे अभिमानी!
मैं नीर भरी दुख की बदली! कविता | महादेवी वर्मा
मैं नीर भरी दुख की बदली! स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा क्रन्दन में आहत विश्व हँसा नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झारिणी मचली! मेरा पग-पग संगीत भरा श्वासों से स्वप्न-पराग झरा नभ के नव रंग बुनते दुकूल छाया में मलय-बयार पली। मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल चिन्ता का भार बनी अविरल रज-कण पर जल-कण हो बरसी, नव जीवन-अंकुर बन निकली! पथ को न मलिन करता आना पथ-चिह्न न दे जाता जाना; सुधि मेरे आगन की जग में सुख की सिहरन हो अन्त खिली! विस्तृत नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना, इतिहास यही- उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल! कविता | महादेवी वर्मा
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल! युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल प्रियतम का पथ आलोकित कर! सौरभ फैला विपुल धूप बन मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन! दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित, तेरे जीवन का अणु गल-गल पुलक-पुलक मेरे दीपक जल! तारे शीतल कोमल नूतन माँग रहे तुझसे ज्वाला कण; विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं हाय, न जल पाया तुझमें मिल! सिहर-सिहर मेरे दीपक जल! जलते नभ में देख असंख्यक स्नेह-हीन नित कितने दीपक जलमय सागर का उर जलता; विद्युत ले घिरता है बादल! विहँस-विहँस मेरे दीपक जल! द्रुम के अंग हरित कोमलतम ज्वाला को करते हृदयंगम वसुधा के जड़ अन्तर में भी बन्दी है तापों की हलचल; बिखर-बिखर मेरे दीपक जल! मेरे निस्वासों से द्रुततर, सुभग न तू बुझने का भय कर। मैं अंचल की ओट किये हूँ! अपनी मृदु पलकों से चंचल सहज-सहज मेरे दीपक जल! सीमा ही लघुता का बन्धन है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन मैं दृग के अक्षय कोषों से- तुझमें भरती हूँ आँसू-जल! सहज-सहज मेरे दीपक जल! तुम असीम तेरा प्रकाश चिर खेलेंगे नव खेल निरन्तर, तम के अणु-अणु में विद्युत-सा अमिट चित्र अंकित करता चल, सरल-सरल मेरे दीपक जल! तू जल-जल जितना होता क्षय; यह समीप आता छलनामय; मधुर मिलन में मिट जाना तू उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल! मदिर-मदिर मेरे दीपक जल! प्रियतम का पथ आलोकित कर!
दीप मेरे जल अकम्पित कविता | महादेवी वर्मा
दीप मेरे जल अकम्पित, घुल अचंचल! सिन्धु का उच्छवास घन है, तड़ित, तम का विकल मन है, भीति क्या नभ है व्यथा का आँसुओं से सिक्त अंचल! स्वर-प्रकम्पित कर दिशायें, मीड़, सब भू की शिरायें, गा रहे आंधी-प्रलय तेरे लिये ही आज मंगल मोह क्या निशि के वरों का, शलभ के झुलसे परों का साथ अक्षय ज्वाल का तू ले चला अनमोल सम्बल! पथ न भूले, एक पग भी, घर न खोये, लघु विहग भी, स्निग्ध लौ की तूलिका से आँक सबकी छाँह उज्ज्वल हो लिये सब साथ अपने, मृदुल आहटहीन सपने, तू इन्हें पाथेय बिन, चिर प्यास के मरु में न खो, चल! धूम में अब बोलना क्या, क्षार में अब तोलना क्या! प्रात हंस रोकर गिनेगा, स्वर्ण कितने हो चुके पल! दीप रे तू गल अकम्पित, चल अंचल!
कौन तुम मेरे हृदय में? कविता
कौन तुम मेरे हृदय में? कौन मेरी कसक में नित मधुरता भरता अलक्षित कौन प्यासे लोचनों में घुमड़ घिर झरता अपरिचित? स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा नींद के सूने निलय में? कौन तुम मेरे हृदय में? अनुसरण निश्वास मेरे कर रहे किसका निरन्तर चूमने पदचिन्ह किसके लौटते यह श्वास फिर फिर? कौन बन्दी कर मुझे अब बँध गया अपनी विजय में? कौन तुम मेरे हृदय में? एक करुण अभाव में चिर- तृप्ति का संसार संचित; एक लघु क्षण दे रहा निर्वाण के वरदान शत शत; पा लिया मैंने किसे इस वेदना के मधुर क्रय में? कौन तुम मेरे हृदय में? गूँजता उर में न जाने दूर के संगीत सा क्या! आज खो निज को मुझे खोया मिला, विपरीत सा क्या? क्या नहा आई विरह-निशि मिलन मधु-दिन के उदय में कौन तुम मेरे हृदय में? तिमिर-पारावार में आलोक-प्रतिमा है अकम्पित आज ज्वाला से बरसता क्यों मधुर घनसार सुरभित? सुन रही हूँ एक ही झंकार जीवन में, प्रलय में! कौन तुम मेरे हृदय में? मूक सुख दुःख कर रहे मेरा नया श्रृंगार सा क्या? झूम गर्वित स्वर्ग देता- नत धरा को प्यार सा क्या? आज पुलकित सृष्टि क्या करने चली अभिसार लय में? कौन तुम मेरे हृदय में?
अश्रु यह पानी नहीं है कविता | महादेवी वर्मा
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है! यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये, यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये, स्वाति को खोजा नहीं है औ’ न सीपी को पुकारा, मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा! शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती, प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है। अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!
नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को, कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले, अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले। यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है। अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!
शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले, मौन जलता दीप, धरती ने कभी क्या दान तोले? खो रहे उच्छ्वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं, साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं, पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है। अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!
किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ, तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते, निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते, वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है। क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है? अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!
आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं, खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं, साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं, वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं! आज मंदिर के मुखर घड़ियाल घंटों में न बोलो अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है। अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!
जो तुम आ जाते एक बार कविता | महादेवी वर्मा
जो तुम आ जाते एक बार कितनी करूणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणों का तार तार अनुराग भरा उन्माद राग आँसू लेते वे पथ पखार जो तुम आ जाते एक बार हँस उठते पल में आर्द्र नयन धुल जाता होठों से विषाद छा जाता जीवन में बसंत लुट जाता चिर संचित विराग आँखें देतीं सर्वस्व वार जो तुम आ जाते एक बार
अधिकार कविता | महादेवी वर्मा
वे मुस्काते फूल, नहीं जिनको आता है मुर्झाना, वे तारों के दीप, नहीं जिनको भाता है बुझ जाना; वे नीलम के मेघ, नहीं जिनको है घुल जाने की चाह वह अनन्त रितुराज,नहीं जिसने देखी जाने की राह| वे सूने से नयन,नहीं जिनमें बनते आँसू मोती, वह प्राणों की सेज,नही जिसमें बेसुध पीड़ा सोती; ऐसा तेरा लोक, वेदना नहीं,नहीं जिसमें अवसाद, जलना जाना नहीं, नहीं जिसने जाना मिटने का स्वाद! क्या अमरों का लोक मिलेगा तेरी करुणा का उपहार? रहने दो हे देव! अरे यह मेरा मिटने का अधिकार!