भूख पर कविता

भूख !
असीम को समेटे दामन में,
हो गई है उच्चश्रृंखल।
खोती जा रही अपना
प्राकृतिक रूप।
वास्तविक स्वरूप ।

भूख बढ़ती चारों ओर,
रूप बदल- बदल कर
यहाँ -वहाँ जानें, कहाँ -कहाँ
करने लगी है,आवारागर्दी।

भूख होती जा रही बलशाली,
दिन ब दिन,
तन, मन, मस्तिष्क पर ,
जमा रही अधिकार,
और दे रही इंसान को पटखनी ।

पेट की आग से भी बढ़कर,
धधकती ज्वाला मुखी,
लालच और वासना की भूख
जो कभी भी ,कहीं भी ,
फट सकती है।

अब नहीं लगती किसी को,
इंनसानियत ,धर्म, कर्तब्य और भाईचारे ,
संस्कारों की भूख
बौने होते जा रहे सब।

दावानल लगी है, मनोमस्तिष्क में,
विकारों में जलता मानव,
अपनी क्षुधा तृप्ति के लिए,
होते जा रहे हैवान ।
और रोटी की जगह निगल रहे समूची मानवता को ।

स्वरचित
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़


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