बस यही ख्वाहिश है मेरी
इक कली की उम्र पाऊँ,
फिर चमन में खिलखिलाऊँ,
किसी भ्रमर का प्यार पाऊँ,
तितलियों को भी लुभाऊँ,
माली का भी हित निभाऊं,
मुरझा कर फिर बिखर जाऊँ,
याद बनकर याद आऊँ,
बस यही ख्वाहिश है मेरी।
इक शमा की उम्र पाऊँ,
रोशन हो कुछ कर दिखाऊँ,
परवाने को भी रिझाऊं,
इबादत के भी काम आऊँ,
हर बूँद को मोती बनाऊँ,
रफ़्ता रफ़्ता पिघलती जाऊं,
याद बनकर याद आऊँ,
बस यही ख्वाहिश है मेरी।
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इक शिला का रूप पाऊँ,
कुछ इस तरह तराशी जाऊँ,
मूक हो कर भी व्यथा सुनाऊँ,
मनमंदिर में बसाई जाऊँ,
मूर्तिकार की कल्पना सजाऊँ,
टूक टूक हो गुनगुनाऊँ,
याद बनकर याद आऊँ,
बस यही ख्वाहिश है मेरी।
विजिया गुप्ता “समिधा”
दुर्ग छत्तीसगढ़
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
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