शर्माते खड़े आम्र कुँज में कोयली की मधुर तान सुन बाग-बगीचों की रौनकें जवाँ हुईं पलाश दहकने को तैयार होने लगे पुरवाई ने संदेश दिया कि- महुआ भी गदराने को मचलने लगे हैं। आज बागों की कलियाँ उसके आने से सुर्ख हो गयी हैं ज़माने ने देखा आज ही सौंदर्य का सौतिया डाह , बसंत सबको लुभाने जो आया प्रकृति भी प्रेम गीत छेड़ने लगी। भौरें-तितलियों की बारातें सजने लगी प्रिया जी लाज के मारे पल्लू को उँगलियों में घुमाने लगीं, कभी मन उधर जाता कभी इधर आता भटकनों के इस दौर में उसने -उसको चुपके से देखा नज़रों की भाषाओं ने कुछ लिखा-पढ़ा और मोहल्ले में हल्ला हो गया। डरा-सहमा पतझड़ कोने में खड़ा ताक रहा है बाग का चीर हरने, सावन की दहक अब युवा हो चली है, व्याह की ऋतु घर बदलने को तैयार थी, फरमान ये सुनाया गया- पंचायत में आज फिर कोई जोड़ा अलग किया जाएगा कल फिर कोई युवा जोड़ी आम की बौरों की सुगंध के बीच फंदे में झूल जाएगा! प्यार हारकर भी जीत जाएगा दुनिया जीतकर भी हार जाएगी; इस हार-जीत के बीच प्यार सदा अमर है दिलों में मुस्काते हुए दीवारों में चुनवाने के बाद भी । बसंत इतना सब देखने के बाद भी इस दुनिया को सुंदर देखना चाहता है इसलिए तो हर ऋतु में वह जिंदा रहता है कभी गमलों में तो कभी दिलों में बसंत कब,किसका हुआ है? जिसने इसे पाला-पोषा,महकाया बसंत वहीं बगर जाता है तेरे-मेरे और हम सबके लिए रंगों-सुगंधों को युवा करने। —— रमेश कुमार सोनी बसना, छत्तीसगढ़ 7049355476
कोई आखिरी दिन नहीं होता
ज़माना भूल चुकाउन्हें जिन्होंने कभी प्यार को खरीदना चाहा, मिटाना चाहा, बर्बाद करना चाहा- प्रेमी युगलों को सदा से लेकिन वे आज भी जिन्दा हैं–
कुछ कथाओं में एवं कहीं बंजारों के कबीलों के गीतों में ठुमकते हुए| प्यार ऐसे ही जिन्दा रहता है जैसे- वृद्धाश्रम में यादें, आज सहला रहे थे अपने अंतिम पलों को हम दोनों वो कह रही थी–
तुम्हारे पहले चुम्बन की उर्जा अब तक कायम है वर्ना…. और मैं भी उसी दिन मर गया था– जिस दिन तुम्हें पहली बार देखा था जिन्दा तो मुझे तुम्हारी नज़रों ने रखा है| वृद्धाश्रम में केक काटते हुए प्यार आज अपनी हीरक जयंती मना रही है मानो आज उनका ये आखिरी दिन हो!
वैसे बता दूँ आपको प्यार के लिए कोई आखिरी दिन नहीं होता और प्यार कभी मरता नहीं यह सिर्फ देह बदलता है ज़माने बदलते हैं |
रमेश कुमार सोनी LIG 24 कबीर नगर रायपुर छत्तीसगढ़ 7049355476
जूड़े का गुलाब
स्त्री और धरती दोनों में से बहुत लोगों ने सिर्फ स्त्रियों को चुना और प्रेम के नाम पर उनके पल्लू और जूड़ों में बँध गए;
प्रदूषणों का श्रृंगार किए विधवा वेश सी विरहणी वसुधा कराहती रही तुम्हारी बेवफाई पर|
उसकी गोद में कभी जाओ तो पाओगे लाखों स्त्रियों के रिश्तों का प्यार एक साथ, प्यार जब भी होता है तब– बहारें खिलनी चाहिए, संगीत के सोते फूटने चाहिए….;
कोई कभी भी नहीं चाहता कि– कोई उसे बेवफा कहे मजबूरियाँ आते–जाते रहती हैं| प्यार जो एक बार लौटा तो दुबारा नहीं लौटता, ना ही मोल ले सकते और ना ही बदल सकते;
इसलिए सँवारतें रहें अपनी धरती को अपने प्रेयसी की तरह| कहीं कोई तो होगी जो आपके खिलाए हुए गुलाब को अपने जूड़े में खोंचने को कहेगी उस दिन गमक उठेगी धरती और आपका बागीचा सुवासित हो जाएगा गुलाब, स्त्रियाँ और वसुधा अलग कहाँ हैं?
रमेश कुमार सोनी LIG 24 कबीर नगर रायपुर छत्तीसगढ़ 7049355476
खिड़की-रमेश कुमार सोनी
खिड़कियों के खुलने से दिखता है- दूर तक हरे-भरे खेतों में पगडंडी पर बैलों को हकालता बुधारु काकभगोड़ा के साथ सेल्फी लेता हुआ बुधारु का ‘टूरा’ समारु दूर काली सड़कों को रौंदते हुए दहाड़ती शहरी गाड़ियों के काफिले सामने पीपल पर बतियाती हुई मैना की जोड़ी और इसकी ठंडी छाया में सुस्ताते कुत्ते।
खिड़की को नहीं दिखता- पनिहारिन का दर्द मजदूरों के छाले किसानों के सपने महाजनों के पेट की गहराई निठल्ली युवा पीढ़ी की बढ़ती जमात बाज़ार की लार टपकाती जीभ कर्ज में डूब रहे लोगों की चिंता और अनजानी चीखों का वह रहस्य जो जाने किधर से रोज उठती है और जाने किधर रोज दब भी जाती है।
खिड़की जो मन की खुले तो देख पाती हैं औरतें भी- आज कहाँ ‘बुता’ में जाना ठीक है किसका घर कल रात जुए की भेंट चढ़ा किसके घर को निगल रही है-शराब किसका चाल-चलन ठीक नहीं है समारी की पीठ का ‘लोर’ क्या कहता है; सिसक कर कह देती हैं वे- ‘कोनो जनम मं झन मिलय कोनो ल अइसन जोड़ीदार’ ।
बंद खिड़की में उग आते हैं- क्रोध-घृणा की घाँस-फूस हिंसा की बदबूदार चिम्मट काई रिश्तों को चाटती दीमक और दुःख की सीलन इन दिनों खिड़की खुले रखने का वक्त है आँख,नाक,कान के अलावा दिल की खिड़की भी खुली हो ताकि दया,प्रेम,करुणा और सौहाद्र की ताजी बयार से हम सब सराबोर हो सकें ।
रमेश कुमार सोनी, बसना
अक्षय पात्र -रमेश कुमार सोनी
किसी बीज की तरह प्यार भी उगता है और हरिया जाता है जीवन सारा । महकने लगते हैं प्यार के वन , बहने लगते हैं गीतों का सरगम लोग सुनने लगते हैं प्यार के किस्से बड़े प्यार से छुप – छुपाकर ।
प्यार के साथ ही उग आते हैं खरपतवार जैसे काँटो का जिस्म लिए लोग कुल्हाड़ी और आरे जैसी इच्छाएँ प्यार का शोर फैल जाता है अफवाहों और कानाफूसी की दुनिया में मारो – काटो जला दो , जिंदा चुनवा दो जैसे शब्द हरे हो जाते हैं प्यार का खून चूसने ।
प्यार फिर ठूँठ बना दिए जाते हैं , बीज बनने से पहले कुतर गए लोग इसका फल प्यार को भी अब रेड डाटा बुक में रखना होगा , कैसे कह सकोगे तुम मेरे प्यार के बाद भी बचेगा तुम्हारे संसार के लिए थोड़ा सा प्यार , लोग भूल जाते हैं कि – प्यार का अक्षय पात्र दिलों में होता है सदा से धड़कता हुआ सुर्ख युवा । रमेश कुमार सोनी,बसना
साइकिलों पर घर
अलग-अलग पगडंडियों से गाँवों के मजदूर अपनी जरूरतें मुँह पर चस्पा किए
साइकिलों से खटते हुए पहूँचते हैं शहर में , शहर में है – उनके खून – पसीने को
पैसों में बदलने की मशीन । साइकिलों में टँगे होते हैं – बासी, मिर्च और प्याज के साथ परिवार की ताकत का स्वाद,
काम करता है मजदूर अपने इसी मिर्च की भरभराहट खत्म होने तक ,
इनकी छुट्टियों को जरूरतों ने हमेशा से खारिज कर रखा है,
वापसी साइकिलों में टँगे होते हैं – घर की जरूरतें और उम्मीद शहर उम्मीदों और जरूरतों का विज्ञापनखोर है ।
इसी तरह टँगा होता है साइकिलों पर घर जहाँ डेरा डाला गाँव बना लिया
इन्हीं से बची है – खूबसूरती संवारने की ताकत एक स्वच्छ और सुंदर शहर साइकिलों पर टिका हुआ है।
भुट्टा खाते हुए मैंने पेड़ों पर अपना नाम लिखा तुमने उसे अपने दिल पे उकेर लिया, तुमने दुम्बे को दुलारा मेरा मन चारागाह हो गया; मैंने पतंग उड़ाई तुम आकाश हो गयीं मैं माँझे का धागा जो हुआ तुम चकरी बन गयी| ऐसा क्यों होता रहा? मैं कई दिनों तक समझ ना सका एक दिन दोस्तों ने कहा– ये तो गया काम से, और तुम तालाबंदी कर दी गयी मेरे जीवन के कोरे पन्ने पर बारातों के कई दृश्य बनते रहे और गलियों का भूगोल बदल गया| तुम्हारी पायल , बिंदी और महावर वाली निशानियाँ आज भी मेरे मन में अंकित है किसी शिलालेख की तरह, किसी नए मकान पर शुभ हथेली की पीले छाप के जैसी मैं देखना चाह रहा था बसंतोत्सव और मेरा बसंत उनके बाड़े में कैद थी| मैं फटी बिवाई जैसी किस्मत लिए कोस रहा था आसमान को तभी तरस कर मेघ मुझे भिगोने लगी इस भरे सावन में मेरा प्यार अँखुआने लगा हम भीगते हुए भुट्टा खा रहे हैं और उसने अपने दांतों में दुपट्टा दबाते हुए धीरे से कहा–बधाई हो तुम…. और झेंपते हुए उसने गोलगप्पे की ओर इशारा किया…..| – रमेश कुमार सोनी LIG 24 कबीर नगर रायपुर छत्तीसगढ़ 7049355476
मुस्कुराता हुआ प्रेम
प्रेम नहीं कहता कि– कोई मुझसे प्रेम करे प्रेम तो खुद बावरा है घुमते–फिरते रहता है अपने इन लंगोटिया यारों के साथ– सुख–दुःख,घृणा,बैर, यादें और हिंसक भीड़ में;
प्रेम सिर्फ पाने का ही नहीं मिट जाने का दूसरा नाम भी है| प्रेम कब,किसे,कैसे होगा? कोई नहीं जान पाता है ज़माने को इसकी पहली खबर मिलती है, यह मुस्कुराते हुए मलंग के जैसे फिरते रहता है;
कभी पछताता भी नहीं कहते हैं लोग कि– प्रेम की कश्तियाँ डूबकर ही पार उतरती हैं| मरकर भी अमर होती हैं लेकिन कुछ लोगों में यह प्रेम श्मशान की तरह दफ़न होते हैं वैसे भी यह प्रेम कहाँ मानता है–
सरहदों को, जाति–धर्म को ऊँच–नीच को दीवारों में चुनवा देने के बाद भी हॉनर किलिंग के बाद भी यह दिख ही जाता है मुस्कुराता हुआ प्रेम मुझे अच्छा लगता है….|
रमेश कुमार सोनी LIG 24 कबीर नगर रायपुर छत्तीसगढ़ 7049355476
धुंधला भोर कुंहरा चहुं ओर कुछ तो जला जाने क्या हुई बला क्या हुआ रात? कोई बताये बात। ख़ामोश गांव ठिठुरे हाथ पांव ढुंढे अलाव। अब भाये ना छांव शीत प्रकोप रात में गहराता कोई ना बच पाता।
✒️ मनीभाई’नवरत्न’, बसना, महासमुंद
चोका:-कौन है चित्रकार ?
खुली आंखों से मैं खड़ा निहारता विविध चित्र। कौन है चित्रकार ? कल्पनाशील ये धरा,नदी,वन विविधाकाय किसकी अनुकृति अंतर लिए अंचभित करता हर दिवस रहस्यमयी वह अदृश्य सत्ता कला, विज्ञान पूर्ण मात्र संयोग कैसे यह संभव? जिज्ञासा केंद्र मानव के मन में विस्मय भरा प्रकृति सत्ता पर कृत्रिमता से उठे हुये खतरे। चाल नये पैंतरे।
✍मनीभाई”नवरत्न” [30/05, 11:12 p.m.]
चोका:-मैं जमीन हूँ
मैं जमीन हूँ मात्र भूखंड नहीं जो है दिखता। मुझमें पलते हैं वन ,खदान मरूस्थल,मैदान ताल, सरिता खेत व खलिहान अन्न भंडार बसी जीव संसार अमृत जल मुझसे ही बहार अमूल्य निधि हूँ अचल संपत्ति इंसानों की मैं। कागज टुकड़ों में कैद करके जताते अधिकार लड़ते भाई होती जिनमें प्यार मांँ से प्यारी तू जीने का है आधार आज तैनात देश कगार वीर बचाने सदा अस्मिता रात दिन चिर काल से साम्राज्यवाद जड़ें जमीन हेतु पनपती रहती खून की धार अविरल प्रवाह बहती रही उसे चिंता नहीं है क्या हो घटित? इंसानों की वजूद। हमें ही चिंता दो बीघा जमीन की नींद पूरी हो जहाँ सदा दिन की ऋणी हैं जमीन की। ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका:-मेरा चांद
जगता रहा मेरा चांद ना आया छत है सुना ये दिल घबराया आंखें तांकती एक दूजा चांद को वह कहती कैसा तेरा चांद वो वादा मुकरे सारी रात जगाए विरह पल बेकरारी बढ़ाएं थोड़ी सी कहीं आहट जो है आती लबों पर मेरे मुस्कुराहट छाती देखूं पलट एक महज भ्रम चाहत मेरी क्या हो गई है कम ! आंखों में फिर गम का मेघ छाया वो हकीकत या है केवल माया। ये सोच के ही एक बूंद टपकी गाल से बाहें अश्रुधार छलकी नम करती मेरे सिरहाने को एक अकेले हम गम खाने को घना अंधेरा मन है भारी भारी । तोड़ ख्वाबों की क्यारी।। ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका:- हमशक्ल
दूर वो कौन ? हमशक्ल सा मेरा एक बालक जो दिखता मुझसा हर आदतें हरकतें व बातें मुझपे जाती फिर अकस्मात से सूरत छाती। वो जाना पहचाना पिया सांवली जिसे छोड़ दिया था मैंने अकेला ताकि बसा सकूँ मैं ख्वाबों की मेला। बेवफा बना कर प्रेम आघात। खेलें जी भर प्रेयसी के जज्बात। बन कपटी चला था रिश्ता तोड़ देखा ना फिर राह अपना मोड़ आज आया हूँ फिर बरसों बाद हार कर मैं टूटे ख्वाबों को लाद। जानना चाहा कौन है उसकी मां? हाय ये वही लुटी जिसकी समां दो नैन मिले बिखरे प्रेमियों के एक रोष से दूजा लज्जा ग्रसित सब्र का बांध फिर टूटता जाता दोनों अधीर पछतावे की झड़ी अश्रु नेत्र से आज झरते रहे ये दर्द तुम कैसे सहते रहे लाज बचा ली प्रेम का ,धन्य नारी। सच्ची है तेरी यारी।।
✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका -बन प्रकाश
टिमटिमाता दूर से मैं प्रकाश मूक मौन सा फिर भी हूँ बताता अभी नहीं है अंधेरे का साम्राज्य पूरी तरह… ये लौ, मेरा होना उम्मीद रख मरते दम तक जलना मुझे। कोई फूंक तो मारे चिंगारी बन सर्वनाश करूँगा; अखिल धरा मैं ही राज करूँगा। फिर सोचता क्या फर्क रह जाये? तम सा होके जो सब भय खाये। अतः समेटा अंतर्निहित आग। मैं ईश तेरा। बन के आश दीया जलता सदा। मुझको बसा लेना। हो मत जाना अंधेरे का गुलाम। बन स्वयं प्रकाश ।
✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका: अब दर्द ही सिला
ढुंढता रहा बीच शहर छाया, वृक्षों की साया। कहीं भी नहीं मिला कैसी दुविधा? यहाँ सुख सुविधा शांति न लाया मन पुष्प ना खिला ये जीवन में जन-गण-मन में कहर ढाया होगी विनाश लीला सब जानता, पर कब मानता जो सरमाया वो है अंबर नीला पानी तलाश उलझी हुई सांस जलती काया प्रकृति नैन गीला जीना दुश्वार खड़ी होती दीवार आग लगाया धर्म से क्या हो गिला? अब जो भी हो हमें जीना पड़ेगा सीना पड़ेगा जो जखम है खिला। अब दर्द ही सिला । ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका:काव्य गढ़ता गया
लिखता गया मन के आवेगों को अपना दर्द कम करता गया। मैं नाकाम हूँ जीवन के पथ में शब्दों से चित्र बस खींचता गया। उभरते हैं मेरे हृदय तल प्रेम व पीड़ा जिन्हें सुनाता गया। कभी खुद की कभी अपनों की मैं किस्सा में हिस्सा एक बनता गया। आज खुश हूँ कल गम से भरा हर दशा में मैं महकता गया। मेरी प्रकृति है अब ये नियति कष्ट सह के घाव भरता गया। यही जिन्दगी अहसासों से भरी धीरे धीरे ये कड़ी जुड़ता गया। काव्य गढ़ता गया। ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका- संग मेरे रहना
सीख गये हैं तुझे प्यार करके सब लोगों से अब प्यार करना जान गये हैं बयां हाल ए दिल नहीं मुश्किल ऐतबार करना उलझा था मैं जबसे तुझे मिला जान गया हूँ अब तो सुलझना। लगी है आग इश्क की दोनों ओर पता है मुझे तेरा भी संवरना। छैन छबीली तेरी आंखें नशीली झुका दे नैन मर जाऊँ वरना। मेरी ख्वाहिश तू ही ख्वाब है मेरा। आजमा मुझे दिल का ये कहना। संग मेरे रहना। ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका -कहाँ मेरा पिंजर ?
उड़े विहंग~ नाप रहे ऊंचाई। धरा से नभ जुदा व तनहाई। तलाश जारी सही ठौर ठिकाना। मन है भारी भूल चुके तराना। जिद में पंछी आशिया बनाने की। ठौर ना कहीं आतंक, जमाने की। कटते वृक्ष चिंता अब खग को फटते वक्ष होश नहीं जग को करते प्रश्न- अब जाना किधर? रहूंगी खुश अब झुका के सर कहाँ मेरा पिंजर ?
✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका-मैं एक पत्ता
उड़ता गया कभी ना पूछ पाया तुम मेरे क्या? बस बहता गया हर दिशा में हर मनोदशा में साथ निभाता कभी धूल, पत्थर पंक से सना बेपरवाह बना फंसता गया हां !मैं हंसता गया जीवन मेरा अब तू ही अस्तित्व मैं एक पत्ता सूखा,निर्जीव, त्यक्ता साथ जो तेरा मैं नहीं बेसहारा हवा के झोंके ख़ुश्बू से नहला दे। जी भर बहला दे। ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका:- लाचार दूब
हर सुबह आसमान से गिरे मोती के दाने चमकीले, सजीले दूब के पत्ते समेट ले बूंदों को अपना जान बिखेरती मुस्कान हो जाती हरा पर सूर्य पहरा बड़ी दुरुस्त कौन बचा उससे टेढ़ी नज़र छीने ज़मीदार बन दूब लाचार दुबला कृशकाय कृषक भांति नियति जानकर गँवा देता है सपनों की मोतियाँ सब भूल के प्रतीक्षा करे फिर नयी सुबह लेकर यही आस कब बुझेगी प्यास? ✍मनीभाई”नवरत्न” २७मई २०१८
चोंका -फूल व भौंरा
बसंत पर फूल पे आया भौरा बुझाने प्यास। मधुर गुंजन से भौरा रिझाता चूसता लाल दल पीकर रस भौंरे है मतलबी क्षुधा को मिटा बनते अजनबी फूल को भूल छोड़ दी धूल जान उसे अकेला। शोषको की तरह मद से चूर । तन मन कालिमा किन्तु फिर भी निशान नही छोड़ा ठहराव की । भोग्या ही समझता नहीं चाहता फूल फलने लगे। उसकी चाह लुटता रहे मजे जब वो चाहे । फुल से वो खेलेगा कली को छेड़ अंतस को पीड़ा दे मुरझा देता फिर फूल सी स्त्री प्रतीक्षारत पुनः आगमन की उषा से संध्या भौरे का बेवफाई सहती रही कहती बसंत से हे ऋतुराज! तू भेजा हरजाई विरह पीड़ा जैसे काटती कीड़ा प्रेम परीक्षा दे गयी अब शिक्षा मिट जाना है पंखुड़ी धरा गिरी फूल का प्रेम सौ फीसदी है खरा फल डाल का कोई अनाथ नहीं वो एक गाथा भौरे की अत्याचार फूल की सच्चा प्यार .
चोका- नारी
हर युद्ध का जो कारण बनता लोभ, लालच काम ,मोह स्त्री हेतु पतनोन्मुख इतिहास गवाह स्त्री के सम्मुख धाराशायी हो जाता बड़ा साम्राज्य शक्ति का अवतार नारी सबला। स्त्री चीर हरण से कौरव नाश महाभारत काल रावण अंत सीता हरण कर स्त्री अपमान हर युग का अंत। आज का दौर नारी सब पे भारी गर ठान ले दिशा मोड़े जग का सहनशील प्रेम त्याग की देवी धैर्य की धागा बांधकर रखती देवों का वास तेरे आस पास है। हे नारी तू खास है।
✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका:- हरित ग्राम
हरित ग्राम… हरी दीवार पर पेड़ का चित्र। छाया कहीं भी नहीं दूर दूर तक। नयनाभिराम है महज भ्रम। आंखों में झोंक लिये धुल के कण। तात्कालिक लाभ ने किया है अंधा स्वार्थपरता खेलती अस्तित्व से यह जान के बनते अनजान पैसों के लिये बेच दिया ईमान वृक्षारोपण कागज पर धरा असल धरा बंजर पड़ रही सारी योजना अपूर्ण सड़ रही ठेके का काम चंद हस्ताक्षरों से दे दिया नाम हरियाली योजना वृक्षों की कमी संकट है गहरा । पीढ़ियों को खतरा।