पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की जयंती पर कविता
दिखा गए जो मार्ग यहाँ वे, उसको सब अपनाएँ
दीनदयाल उपाध्याय जी को हम भुला न पाएँ।
सन् उन्निस सौ सोलह में पच्चीस सितंबर आई
नगला चंद्रभान मथुरा में, खुशियाँ गईं मनाई
पिता भगवती प्रसाद जी माता बनीं राम प्यारी
उठा पिता का साया फिर थी, संघर्षों की बारी
वे मेधावी छात्र रहे थे, किसे नहीं वे भाएँ
दीनदयाल उपाध्याय जी को हम भुला न पाएँ।
संघ- प्रचारक बनकर अपना, जीवन किया समर्पित
उनके कारण ही भारत में, मानवता है गर्वित
जोड़ दिया एकात्म बने वे मानववाद प्रणेता
बाधाओं का किया सामना, बनकर रहे विजेता
उनकी लिखी हुई रचनाएँ, जन-मानस में छाएँ
दीन दयाल उपाध्याय जी को हम भुला न पाएँ।
जनसंघी नेता थे जाने-माने रहे विचारक
बने यहाँ अध्यक्ष पार्टी के सच्चे उद्धारक
पत्रकार थे श्रेष्ठ और अद्भुत चिंतन था उनका
था इतना व्यवहार मधुर वे हर लेते मन सबका
भारत माता के सपूत वे, जो सद्भाव जगाएँ
दीन दयाल उपाध्याय जी को हम भुला न पाएँ।
रचनाकार -उपमेंद्र सक्सेना एड.
‘कुमुद- निवास’
बरेली (उ.प्र.)
मोबा. नं.- 98379 44187
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पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की जयंती पर कविता – उपमेंद्र सक्सेना
माँ दुर्गा पर कविता -बाबूराम सिंह
दुर्गा या आदिशक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी मानी जाती हैं जिन्हें माता, देवी, शक्ति, आध्या शक्ति, भगवती, माता रानी, जगत जननी जग्दम्बा, परमेश्वरी, परम सनातनी देवी आदि नामों से भी जाना जाता हैं। शाक्त सम्प्रदाय की वह मुख्य देवी हैं।
माँ दुर्गा पर कविता -बाबुराम सिंह
नित चरणों में रहे श्रध्दाभाव वर दो भक्ति अनन्य हो।
मातेश्वरी तूं धन्य हो।।
अज-जग में सर्वत्र माँ मै सुचि पांव की धूल रहूँ।
सुवासित हो माता जीवन बनकर मै ऐसा फूल रहूँ।
मानवता मर्यादा का अनूठा शुभ पावन कूल रहूँ।
कुछ भी हो जाये मात तेरे भक्तों के समतूल रहूँ।
करो दया भूल से कदापि अपराध ना जघन्य हो।
मातेश्वरी तूं धन्य हो।।
पथप्रदर्शक परम पावन सबके प्राण आधार तुम्हीं हो।
सदगुण शील सत्य सार कीदेवी हो औ प्यार तुम्हीं हो।
सुघड़ता कोमलताई पै करूणामयी असवार तुम्ही हो।
लखचौरासी भवसागर भवकुपों की पतवार तुम्ही हो।
माँ करूणा सागर से गहरा जिससे गहरा ना अन्य हो।
मातेश्वरी तूं धन्य हो।।
दमन शमन कुमार्ग काटती सदा क्लेश तुम्ही हो।
धर्म रक्षकऔ जग तारन को हे माता अशेष तुम्ही हो।
पतित पावन परमेश्वरी जन-जन की रत्नेश तुम्ही हो।
कण-कणकी तारनहारी वरण-वरण के भेष तुम्ही हो।
सुधा सरस तुम्ही माते तुम्ही शंख पंचजन्य हो।
मातेश्वरी तूं धन्य हो।।
पामर पतित हूँ मै माता चरणों निज लगा लेना।
सुसुप्त हृदय के भावों को आलोकित कर जगा देना।
भूल चूक क्षमा कर मुझको भी भव्य बना लेना।
डगमग नईया भव सागर से खेके पार लगा देना।
कुछऐसा करदो माता मिटजायें सभी दुख दैन्य जो।
मातेश्वरी तूं धन्य हो ।।
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बाबूराम सिंह कवि
बड़का खुटहाँ , विजयीपुर
गोपालगंज (बिहार)841508
मो॰ नं॰ – 9572105032
———————————————–बेटी पर कविता – सुशी सक्सेना
बेटी पर कविता – सुशी सक्सेना
मेरी बिटिया, मेरे घर की शान है।
मेरे जीने का मकसद, मेरी जान है।पता ही न चला, कब बड़ी हो गई,
मेरी बिटिया अपने पैरों पे खड़ी हो गई,
मेरे लिए अब भी वो एक नन्हीं कली है,
मेरे अंगना कि एक चिड़िया नादान है।या रब, हर बुरी नजर से उसे बचा कर रखना,
उसकी जिंदगी को बहारों से सजा कर रखना,
कोई नमीं भी छू न सके उसकी पलकों को,
हर हसरत उसकी पूरी हो, यही अरमान है।मेरी परछाईं वो, मेरी पहचान है।
मेरी बिटिया मेरा अभिमान है।सुशी सक्सेना
दुर्गा मैया पर कविता – सुशी सक्सेना
दुर्गा या आदिशक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी मानी जाती हैं जिन्हें माता, देवी, शक्ति, आध्या शक्ति, भगवती, माता रानी, जगत जननी जग्दम्बा, परमेश्वरी, परम सनातनी देवी आदि नामों से भी जाना जाता हैं। शाक्त सम्प्रदाय की वह मुख्य देवी हैं। दुर्गा को आदि शक्ति, परम भगवती परब्रह्म बताया गया है।
दुर्गा मैया पर कविता
आओ मईया मेरी, शेर पर होकर सवार।
क्या हो गया है, देखो तेरे जगत का हाल।
जाओ मईया जरा उस दिशा की ओर,
नफ़रत के सिवा जहां, नहीं कुछ और,
आपस में लड़ रही हैैं तेरी ये संतान,
इतनी विनती करूं मैं जोड़ के दोनों हाथ,
इनके दिलों में फिर से, जगा दे प्यार।
मां रक्तबीज का खून अभी भी बाकी है,
मानव के अंदर का हैवान अभी भी बाकी है,
वध कर दो मईया उस दानव का, फिर
देखो एक अच्छा इंसान अभी भी बाकी है,
है यही अरज हमारी, जग को रखो खुशहाल।
ग़रीबी और महामारी का फैला है प्रकोप,
देखो प्रकृति का हम सब, सह रहे कोप
माफ़ करो गलती हमारी, सब दुख करो दूर
निर्धन को धन दे दो, बाछिन को दो पूत,
झोली जो भी फैलाए, उसको देना दान।
नमन तुम्हारे चरणों में, एक मेरी भी मुराद।
सारे जग के साथ, मेरा भी करो बेड़ा पार।
( स्वरचित एवं मौलिक )
सुशी सक्सेना इंदौर मध्यप्रदेशदुर्गा मैया पर गीत – आषीश कुमार
दुर्गा मैया पर गीत
तेरे रूप अनेक हैं मैया
हर रूप में हमको भाती हो
नवरात्रि में नौ दुर्गा रुप में
हम पर ममता लुटाती हो
तीनो लोक हैं काँपे तुमसे
जब शक्ति रूप धरती हो
चण्ड-मुण्ड और ऐसे कितने
महिषासुर मर्दन करती हो
तुम बनती हो लक्ष्मी माँ
सारा संसार चलाती हो
धन की वर्षा करती जब
कुटिया भी महल बनाती हो
जब बनती हो वीणापाणि
ज्ञान का दीप जलाती हो
हम जैसे भूले-भटकों को
मंजिल तक पहुँचाती हो
बन कर तुम अन्नपूर्णा माँ
भूखों का पेट भरती हो
पशु पक्षी और मानव जन में
कोई भेद ना करती हो
ममता का प्रतिशोध जब लेती
कालरात्रि बन जाती हो
थर थर काँपे देवता दानव
रौद्र रूप दिखलाती हो
उद्धार करना हो जब भक्तों का
स्वर्ग छोड़ चली आती हो
पतित पावनी हे माँ गंगे
बैकुण्ठ भी पहुँचाती हो
कोई परीक्षा लेवे मैया
ज्वाला बनकर दिखलाती हो
बादशाह भी नतमस्तक हो गए
सोने को भी झूठलाती हो
है कोई ढूँढता मंदिर मंदिर
पहाड़ों पर भी मिल जाती हो
सच्चे मन से कोई ढूँढे
अंतर्मन में मिल जाती हो
– आशीष कुमार
मोहनिया, कैमूर, बिहार