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  • स्तुतिगान- हे माँ जगदम्बे

    हे माँ जगदम्बे

    स्तुतिगान- हे माँ जगदम्बे

    अनेक रूप है,अनेक नाम है, कितनी उपमा गिनाऊँ मैं?
    नयनों को झपकाकर खोलूँ, तो पास तुझे पाऊँ मैं।
    दया रूप में माँ का वास, दानधर्म व सेवा में अटूट विश्वास।
    तृष्टि रूप में निवास तुम्हारा, तुमने भोजन, धन, सम्मान निखारा,
    मातृ रूप में ममता दे भवानी। आँचल की छाँव दे सबको महारानी।
    वृति रूप में तू है जगत कारिणी,
    सन्मार्ग पर चलकर जीवन हो गुडधानी।
    श्रद्धा रूप में तू कल्याणी,
    शुद्ध समर्पित भाव जगाकर हाथ थाम ले हे सुहासिनी।
    हर छवि में तुम हो लज्जा, सामाजिक मर्यादा में हो साज सज्जा।
    विद्या रूप में दर्शन दे,
    ज्ञान की ज्योति की अलख जगा दे,
    सबको तू राह दिखा दे।
    निद्रा रूप में झलक दिखाई, नित नव चैतन्य की ऊर्जा जगाई।
    शक्ति रूप में प्रकट हो दानव मारे,
    दीन, दुखी,असहाय व निर्बल को तारे।
    तेरी महिमा वर्णू मैं कैसे,
    अंधेरे में चिराग दिखाऊँ मैं जैसे।
    तू स्वयं है प्रकाशिनी, है सुभाषिनी।
    अलौकिक रूपों की तू है धारिणी,
    जन जन की तू है तारिणी।
    त्रिशूल उठाकर हर लो पृथ्वी का ताण,
    हे मंगलकारिणी तुझको कोटि कोटि प्रणाम!!

    माला पहल ‘मुंबई’

  • मां तू शक्ति स्वरूपा है

    दुर्गा मां शक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी हैं जिन्हें देवी, शक्ति और पार्वती,जग्दम्बा और आदि नामों से भी जाना जाता हैं । शाक्त सम्प्रदाय की वह मुख्य देवी हैं जिनकी तुलना परम ब्रह्म से की जाती है। दुर्गा को आदि शक्ति, प्रधान प्रकृति, गुणवती योगमाया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है। वह अंधकार व अज्ञानता रुपी राक्षसों से रक्षा करने वाली तथा कल्याणकारी हैं। उनके बारे में मान्यता है कि वे शान्ति, समृद्धि तथा धर्म पर आघात करने वाली राक्षसी शक्तियों का विनाश करतीं हैं। इन्ही माँ पर एक छोटी सी कविता

    माँ जगदम्बे
    मां दुर्गा

    मां तू शक्ति स्वरूपा है

    मां तू शक्ति स्वरूपा है –
    तू दुर्गा है
    दुर्गा दुर्गतिनाशिनी
    तू मातृरूपा है
    तू ब्रह्मांड -निर्मात्री है
    तू हर रूप में पूजनीय है
    तू हर युग में वंदनीय है
    तू शिव-रूपा है
    तू चामुंडा है
    तेरी विशाल भुजाओं में
    सैकड़ों हाथियों का बल है
    तू महिषासुरमर्दिनी है
    तू चंड -मुंड संघारिणी है
    तू काली है
    तूने रक्तबीज के शोणित का पान किया
    तू मुक्ति दिलाने वाली है
    तू अधर्म -नाशिनी है
    तू धर्म -व्यापिनी है
    तू शत्रु-नाशिनी है
    तू दुख-तारिणी है
    तू नारी -शक्ति है
    मां तू अभेद्य है
    अदम्य है , अद्वितीय है
    तू नारी शक्ति का आगर है
    तेरी महिमा अपरंपार है
    मां के रूप को मेरा बारंबार प्रणाम है।

    चारूमित्रा

  • अकारण ही -राजुल

    अकारण ही

    kavita

    अकारण ही खोल देता हूँ फ्रिज का दरवाज़ा
    अकारण ही खोलता रहता हूँ मोबाइल का पैटर्न लॉक
    और सुनता हूँ टप की आवाज़
    अकारण ही बात कर लेता हूँ मरीज़ के तीमारदार से

    अकारण ही मार देता हूँ राह चलते पड़े किसी गोलक को
    देखता हूँ कहाँ जाकर रुकेगा ;
    अगर फिर लक्षित हो सका तो मार देता हूँ एक और लात
    अकारण ही पढ़ लेता हूँ परोसे गए समोसे वाले पेपर का टुकड़ा जिस पर लिखा है प्रश्नोत्तर
    भूख मीठी कि भोजन मीठा से क्या अभिप्राय है?

    अकारण ही नाप लेता हूँ फाफामऊ पुल से नैनी पुल
    नदी से नदी मिल जाती है
    पुल से पुल क्या कभी मिलते होंगे
    न मिलते हों न सही
    मैं तो मिल आता हूँ दोनों से अकारण ही

    आप अपनी बताओ ब्रो,
    अकारण भी कुछ कर -धर रहे हो
    या फिर अकारण ही यंत्रवत जिए जा रहे हो

    मेरी तो पूछो ही मत
    अकारण ही प्रेम करना सीख रहा हूँ सबसे
    मतलब सबसे!

    -राजुल

  • स्त्री शक्ति प्रतिमूर्ति – साधना मिश्रा

    दुर्गा का निरूपण सिंह पर सवार एक देवी के रूप में की जाती है। दुर्गा देवी आठ भुजाओं से युक्त हैं जिन सभी में कोई न कोई शस्त्रास्त्र होते है। उन्होने महिषासुर नामक असुर का वध किया। महिषासुर (भैंसा जैसा असुर) करतीं हैं। हिन्दू ग्रन्थों में वे शिव की पत्नी दुर्गा के रूप में वर्णित हैं। इन्ही दुर्गा माँ पर कविता बहार की एक छोटी सी कविता –

    माँ जगदम्बे

    स्त्री शक्ति प्रतिमूर्ति – साधना मिश्रा

    स्त्री,
    शक्ति प्रतिमूर्ति,
    विविध रूप धरती ;
    सदा सम्मान,
    दीजिये!

    वाणी,
    हंसवाहिनी वीणापाणी,
    ज्ञान- दान करती;
    भक्ति – भाव,
    पूजिये!

    रमा,
    पद्मप्रिया पद्मा,
    स्वर्ण धन बरसाती;
    संपदा – सिंधु,
    भिंजिये!

    गिरिजा,
    शिवप्रिया गिरिसुता,
    सतित्व धर्म सिखाती;
    सदा उर,
    धरिये!

    सीता,
    सौम्य सरलता,
    धैर्य – धारण कराती;
    सहन – शक्ति,
    लीजिये!

    राधिका,
    कृष्ण आराधिका,
    प्रीत – पथ दिखाती ;
    प्रणय प्रणयन,
    कीजिये!

    साधना मिश्रा, रायगढ़- छत्तीसगढ़

  • देश की आभा

    देश की आभा

    tiranga

    स्वार्थ के वश सब अपनी सोचे ,

    देश की है किसको चिंता ।

    एक स्वार्थ से सब स्वार्थ सधेंगे,

    सोचो तुम जो हो जिन्दा ।

    बाग ही गर जो उजड़ गया तो ,

    फूल कहाँ रह पायेगा ।

    गुलशन भले ही आज सजा हो ,

    पतझड़ में मुरझाएगा ।

    एक-एक से मिलकर हम अब ,

    सवा अरब के पार हुए ।

    एक पेट और हाथ है दो , फिर भी,

    पूर्ण आबाद न आज हुए ।

    माना यह कि दो सौ बरसों की ,

    हमने गुलामी भी सही ।

    पर सत्तर बरसों की आजादी ,

    कम भी तो होती नहीँ ।

    कहीँ चूक तो हमसे हुई ना ,

    सोचो फिर चिंतन करके ।

    आजादी की हाला पीकर ,

    होश हमारे हुए फुर्र से ।

    आजादी मिलने भर से न ,

    लक्ष्य हमें मिल पायेगा ।

    दौड़ में जो हम सुसुप्त हुए तो ,

    कछुआ जीत ही जायेगा ।

    देखो फिर से’ उगते सूर्य ‘(जापान) को,

    देशों में जो मिसाल बना ।

    कोप न जाने कितने सहकर ,

    आबाद (विकसित) सम्भल
    कर आज बना ।

    राष्ट्रभक्ति का वो ही जज्बा , गर ,

    देश-जन न ला पायेगा ।

    लघु पड़ोसी होते हुए भी ,

    कोई भी आँख दिखाएगा ।

    अब भी समय है लोकतन्त्र की ,

    ज्वाला और प्रज्वलित करो ।

    एक-एक कर सब मिलकर ही ,

    देश को फिर संगठित करो ।

    राष्ट्र यज्ञ में एक आहुति ,

    हर-जन की जब भी होगी ।

    देश की आभा फिर हो सोने सी ,

    उन्मुक्त गगन का हो पंछी ।

    ✍✍ *डी कुमार–अजस्र(दुर्गेश मेघवाल,बून्दी/राज)*