पनघट मरते प्यास

पनघट मरते प्यास

kavita


{सरसी छंद 16+11=27 मात्रा,
चरणांत गाल, 2 1}
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नीर धीर दोनोे मिलते थे,
सखी-कान्ह परिहास।
था समय वही,,अब कथा बने,
रीत गये उल्लास।
तन मन आशा चुहल वार्ता,
वे सब दौर उदास।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

वे नारी वार्ता स्थल थे,
रमणी अरु गोपाल।
पथिकों का श्रम हरने वाले,
प्रेमी बतरस ग्वाल।
पंछी जल की बूंद आस के,
थोथे हुए दिलास।
मन की प्यास शमन करते वे
पनघट मरते प्यास।

बनिताएँ सरिता होती थी,
प्यासे नीर निदान।
वे निश्छल वाणी ममता की,
करती थी जल दान।
कान्हा राधे की उन राहों में,
भरते घोर कुहास।
मन की प्यास शमन करते वे
पनघट मरते प्यास।

पनघट संगत पनिहारिन भी,
रहे मसोसे बाँह।
नीर भरी प्यासी अँखियाँ वे,
ढूँढ रही है छाँह।
जरापने सब दुख ही पाते,
टूटे सबकी आस।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास ।।

रीते सरवर ताल तलैया,
कूएँ सूखे सार।
घट गागर भी लुप्त हुए हैं,
रस्सी सुप्त विचार।
दादी नानी , बात कहानी,
तरसे कथ परिहास।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

रीत प्रीत से लोटा डोरी,
बँध रहते दिन रात।
ललनाओं से चुहल कहानी,
अपनेपन की बात।
रिश्तों में मर्याद ठिठोली,
देवर भाभी हास।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

सास ससुर की बाते करती,
रमणी भोली जान।
करे शिकायत कभी प्रशंसा,
पनिहारिन अभिमान।
याद कहानी होकर घटते,
प्रीत रीत विश्वास।
मन की प्यास शमन करते वे
पनघट मरते प्यास।।

प्रेम कहानी घर के झगड़े,
सहते मौन स्वभाव।
कभी चुहल देवर भौजाई,
ईश भजन समभाव।
जल घट डोर डोल वे लोटे,
दर्शन ही परिहास।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

प्रियजन,पंछी,पथिक पाहुने,
गायें लौटत हार।
वृद्ध जनो से अवसर पाके,
दुआ लेत पनिहार।
सबको अपना हक मिलता था,
कोय न हुआ हताश।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

वर्तमान की अंध दौड़ में,
भूल गये संस्कार।
आभूषण पनिहारिन रखती,
वस्त्रों संग सँभार।
याद रहे बस याद कहानी,
मर्यादा के हास।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

दंत खिलकती,नैन छलकती,
झिलमिल वे शृंगार।
देख दृष्य वे खूब विहँसती,
मूक स्वरों पनिहार।
मौन गवाही पनघट देते,
रीते लगे पलाश।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।
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बाबू लाल शर्मा “बौहरा” विज्ञ

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