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तुमने पत्थर जो मारा

चलो तुमने पत्थर जो मारा वो ठीक था।
पर लहर जो क्षरण करती उसका क्या?

पीर छूपाये फिरता है खलल बनकर तू,
विराने में आह्ह गुनगुनाये उसका क्या?

बेकार…कहना था तो नज़र ताने क्यों?
गौर मुझ पे टकटकी लगाए उसका क्या?

मेरी इज्जत…,मेरी आबरू क्या कम है?
तो जो खुलकर बोली लगाए उसका क्या?

मै कई बार रोया हूँ अख़बारों में,छपकर,
मुझसा होके मुझपे सांप सा लेट गया,
प्याले दूध परोसना था तुझे भूखों को,
उन्हें उँगलियों पे नचाये उसका क्या?

बड़ी वेदना देखी कोठे पर मैनें,शाम,
भूखमरी मिटाने बिकती रोज अाबरू।
अरे अपने को इंशा कहने वाले इंसान,
भेडियों सा खाल चढ़ाये उसका क्या?

बेनकाब होने के डर से,
चेहरा जलाकर निकलती है वो।
तूने ही तेजाब छलकाए थे,
उसके रस्के कमर पे उसका क्या?

चलो  तुमने पत्थर जो मारा वो ठीक था।
पर लहर जो क्षरण करती उसका क्या?         

*✍पुखराज “प्रॉज”*


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