वही विवेकानंद बने
कलुष कर्म मानव जीवन में,
नहीं गले का फंद बने।
जो मन साधन करे योग का,
वहीं विवेकानंद बने।
उठो जागकर बढ़ो निरंतर,
जब तक लक्ष्य नहीं मिलता।
ज्ञान नीर बिन मन बागों में,
सुरभित पुहुप नहीं खिलता।
कर्म योग अरु ज्ञान योग बिन।
जीवन यह अंधेरा है,
जब प्रकाश ही नहीं रहे तो,
क्या तेरा क्या मेरा है।
परम ज्ञान के पुंज है स्वामी,
पुण्य परम् मकरंद बने।
जो मन साधन करे योग का,
वहीं विवेकानंद बने।।
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धर्म ध्वजा को हाथ थाम कर,
जग को पाठ पढ़ाया है।
भारत भू का धर्म सभा में,
जिसने मान बढ़ाया है।
मानवता की सेवा करके,
जिसने जन्म गुजार दिया।
जन जन के निज प्रखर ज्ञान से
खुशियों का संसार दिया।
स्वामी जी की शुभ विचार को,
धार मनोज मकरंद बने ।
जो मन साधन करें योग का ,
वही विवेकानंद बने ।।
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दीक्षा लेकर परमहंस से ,
चले सदा बन अनुगामी ।
भले उम्र छोटी थी लेकिन,
बने रहे जग के स्वामी ।
जिसने जग को दिव्य ज्ञान से ,
समझाई थी परिभाषा ।
जो पढ़ ले इसके जीवन को ,
पूर्ण करें मन अभिलाषा ।
कोहिनूर ने जब कोशिश की ,
तब यह अनुपम छंद बने ।
जो मन साधन करें योग का ,
वही विवेकानंद बने।।
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स्वरचित©®
डिजेन्द्र कुर्रे”कोहिनूर”
छत्तीसगढ़(भारत)
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