व्यथा जीव की अनकही,
संकट की भारी घड़ी।
***
कैसे खेती ये सहे,
आज समस्या ये बड़ी।
***
पानी की भारी कमी,
मुँह बाये है अब खड़ी।
***
वन का भारी ह्रास है,
भावी विपदा की झड़ी।
***
इससे कुछ भी प्रीति नहिं,
सबको अपनी ही पड़ी।
***
ठौर हमें ना तब कहीं,
दुःखों की आगे कड़ी।
***
जल-संरक्षण सब करें,
सरकारें सारी सड़ी।
***
तिनसुकिया
29-05-19