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  • जीवन पर कविता – नीरामणी श्रीवास

    सिंहावलोकनी दोहा मुक्तक
    जीवन

    जीवन के इस खेल में,कभी मिले गर हार ।
    हार मान मत बैठिए , पुनः कर्म कर सार ।।
    सार जीवनी का यही , नहीं छोड़ना आस ।
    आस पूर्ण होगा तभी , सद्गुण हिय में धार ।।

    जीवन तो बहुमूल्य है , मनुज गँवाये व्यर्थ ।
    व्यर्थ मौज मस्ती किया , नहीं समझता अर्थ ।।
    अर्थ समझ आया तभी , जरा अवस्था देख ।
    देख -देख रोता रहा , बीते समय समर्थ ।।

    जीवन छोटा सा मिला , बहुत जगत के काम ।
    काम-काम करता रहा , लिया न प्रभु का नाम ।।
    नाम याद रखते सभी ,मिट जाता है देह ।
    देह मोह फँसता रहा, गुजरे उम्र तमाम ।।

    नीरामणी श्रीवास नियति
    कसडोल छत्तीसगढ़

  • लेखनी तू आबाद रहे – बाबूराम सिंह

    कविता

    लेखनी तू आबाद रह
    ——————————-
    जन-मानस ज्योतित कर सर्वदा,
    हरि भक्ति प्रसाद रह।
    लेखनी तूआबाद रह।

    पर पीडा़ को टार सदा,
    शुभ सदगुण सम्हार सदा।
    ज्ञानालोक लिए उर अन्दर,
    कर अन्तः उजियार सदा।

    बद विकर्म ढो़ग जाल फरेब का,
    कभी नहीं फरियाद रह।
    लेखनी तू आबाद रह।

    शुभ सदगुण सत्कर्म सिखा,
    सत्य धर्म की राह दिखा।
    जीव जगका भला हो जिसमें
    पद अनूठा अनुपम लिखा।

    सुख सागर सुचि नागर बनकर
    युगों-युगों तक याद रह।
    लेखनी तू आबाद रह।

    अजेय सदा अनमोल है तू,
    मृदुमय मिठी बोल है तू।
    पोष्पलिला पाखंडका सर्वदा,
    खोलने वाली पोल है तू।

    बिक कदापि ना कभी कहीं पर,
    सदा अभय आजाद रह।
    लेखनी तू आबाद रह।

    सबको पावन पाठ पढा़,
    सुख शान्ति सदभाव बढा़।
    सर्वोतम सर्वोच्च तूही है,
    कभी परस्पर नहीं लडा़।

    मानव धर्म का “बाबूराम कवि”
    सुखमय सरस सु-नाद रह
    लेखनी तू आबाद रह।

    ———————————————–
    ✍️बाबूराम सिंह कवि
    बडका खुटहां विजयीपुर
    गोपालगंज (बिहार) पिन-841508
    मो0 नं0-9572105032
    ———————————————–

  • क्यों करता हूँ कागज काले – डी कुमार–अजस्र

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    क्यों करता हूँ कागज काले..

    क्यों करता हूं कागज काले …??
    बैठा एक दिन सोच कर यूं ही ,
    शब्दों को बस पकड़े और उछाले ।
    आसमान यह कितना विस्तृत ..?
    क्या इस पर लिख पाऊंगा ?
    जर्रा हूं मैं इस माटी का,
    माटी में मिल जाऊंगा।
    फिर भी जाने कहां-कहां से ,
    कौन्ध उतर सी आती है ..??
    अक्षर का लेकर स्वरूप वही ,
    कागज पर छा जाती है ।
    लिखूं लिखूं मैं किस-किस की छवि को..??
    सोच कर मन घबराए ।
    वह बैठा है मेरे ही मन में ,
    बस वही राह दिखाएं ।
    कहता है वह और लिखता मैं हूं ,
    क्यों ना समझे ये जग..??
    पार तभी तो पाएगा ,
    जब वह उतरेगा स्वमग ।
    कुछ करने, मानवता के पण में ,
    उसने मुझे चुना है ।
    सुनो ना सुनो तुम जग वालों ,
    मैंने तो यही सुना है ।
    अखबारों के पृष्टों पर छा जाना,
    मेरा इसमें ध्यान नहीं ।
    सम्मान पन्नों के बोझ तले दब जाऊं ,
    यह भी मेरा अरमान नहीं ।
    कागज पर मैं छा जाना चाहूँ ।
    जो दिल में है सब बताना चाहूँ ।
    कागज की छोटी नाव बनाकर,
    कलम से उसको मैं खेना चाहता हूँ ।
    जो आवाजें दबी हुई आसपास में,
    मैं उनकी ही बस कहना चाहता हूँ ।
    बचपन की भूली हुई भक्ति ने ,
    शक्ति ये दिखलाई है ।
    उसने जो कुछ मुझे दिया था,
    अब लौटाने की रुत आई है ।
    तन में , मन में
    या इस जग के, जन-जन में
    बस रहता विश्वास है उसका ।
    सच झूठ के संसार में ,
    एक वास्तविक रूप है उसका।
    है बहुत कुछ अभी जिंदगी और बन्दगी में उसकी ।
    नेमत जो ‘अजस्र’ बनी रहे तो करता रहूं बस खिदमत उसकी ।
    ✍✍ *डी कुमार–अजस्र(दुर्गेश मेघवाल,बून्दी/राज.)*

  • चलो,चले मिलके चले – रीतु प्रज्ञा


    विषय-चलों,चले मिलके चले
    विधा-अतुकांत कविता

    *चलो,चले मिलके चले*


    ताली एक हाथ से
    नहीं बजती कभी
    चलने के लिए भी
    होती दोनों पैरों की जरूरत
    फिर तन्हा रौब से न चले,
    चलो,चले मिलके चले।
    शक्ति है साथ में
    नहीं विखंड कर सकता कोई
    करता रहता जागृत
    सोए आत्मा को
    हरता प्रतिपल
    उदासीपन, असहनीय दर्द को
    छोड़ साथियों को यारा
    न पथ पर बढ़ चले
    चलो, चले मिलके चले
    होती है विजयक शंखनाद
    अवनि-अंबर तक
    एकजुटता के स्वर की
    सागर भी मचलता
    देख भक्तो की संगम
    जो बहती कलकल प्रफुल्लित
    न लोभ की सरिता में
    डुबाते स्वंय को चले,
    चलो,चले मिलके चले।
    रीतु प्रज्ञा
    दरभंगा, बिहार

  • नशा नर्क का द्वार है – बाबूराम सिंह

    drugs

    हिंदी कविता – नशा नर्क का द्वार है

    मानव आहार के विरूध्द मांसाहार सुरा,
    बिडी़ ,सिगरेट, सुर्ती नशा सब बेकार है।
    नहीं प्राणवान है महान मानव योनि में वो,
    जिसको लोभ ,काम,कृपणता से प्यार है।

    अवगुण का खान इन्सान बने नाहक में,
    बिडी़, सुर्ती,सुरा नशा जिसका आहार है।
    सर्व प्रगति का गति अवरोध करे,
    ऐसा जहर बिडी़ , सुर्ति मांसाहार है।

    धन बल नाश करे जीवन उदास करें,
    अनेकानेक बिमारी लाता शराब है।
    दम्मा अटैक खाँसी सुर्ति सिगरेट देत,
    नशा कोई भी जग में अतिशय खराब है।

    अंतः से जाग मानव तत्काल त्याग इसे,
    मिट जाता जीवन का सारा आबताब है।
    सब हो जाता बेकार तन घर परिवार,
    मानव जीवन जग खुली किताब है।

    काम , क्रोध , लोभ ,मोह ,हैं दास इसका,
    कौल है कराल काल अवगुण हजार है।
    सर्व के विकास ,मूल महिला का नाश करें,
    देव अधोगति यही नरक का द्वार है।

    धीक धीक धीक लीकताज्य बिडी़ सिगरेट,
    यही तो जीवन का प्रथम सुधार है।
    कवि बाबूराम ना मानव अमानव बन,
    बिगड़त अनमोल मानव योनिका श्रृंगार है।
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    बाबूराम सिंह कवि
    बड़का खुटहाँ , विजयीपुर
    गोपालगंज(बिहार)841508
    मो०नं० – 9572105032

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