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  • स्कूल चलें हम – अकिल खान

    स्कूल चलें हम – अकिल खान

    स्कूल चलें हम - अकिल खान

    है नन्हें पैर मेरे,हौसला अफजाई बढ़ाने को,
    जाता हूँ स्कूल पढ़ने,इस मन को पढ़ाने को।
    हूं अडिग,एक नया अध्याय लिखने को,
    जाता हूं स्कूल शिक्षा-ज्ञान सीखने को।
    शिक्षा से दूर करूं,मैं अशिक्षा का भ्रम,
    गढ़ने एक नया अध्याय,स्कूल चलें हम।

    शिक्षक का डांट,मुझे एक नई राह दिखाता है,
    पुस्तक,कॉपी,कलम,मुझे सीखना सिखाता है।
    कभी अज्ञानता से पग मेरे ना जाएं थम,
    गढ़ने एक नया अध्याय,स्कूल चलें हम।

    सहपाठी का हास्य व्यंग,मेरे मन को भाता है,
    रोते हुए को हंसाऊं,रूठे को मनाना आता है।
    बेकार-अनर्गल बातों को करूं मैं हजम,
    गढ़ने एक नया अध्याय,स्कूल चलें हम।

    गुरु शिष्य का रिश्ता दुनिया ने जाना है,
    मैंने अपने गुरुजनों को सर्वोत्तम माना है।
    गुरु के ज्ञान से दूर होता है मन का भ्रम।
    गढ़ने एक नया अध्याय,स्कूल चलें हम,


    विद्यालय का करूं मैं पूजा,है ये ज्ञान का मंदिर,
    कर्मठ विद्यार्थियों का बनता है,यहाँ पर तकदीर।
    है कितना सुहावना पढ़ाई का ये मौसम,
    गढ़ने एक नया अध्याय,स्कूल चलें हम।

    अपने मन की कुंठा को,हमें भी हराना है,
    क्या चीज हैं हम,जमाने को ये दिखाना है।
    कहता है”अकिल”बच्चे हैं मन के सच्चे,
    उत्तम ज्ञान से बनेंगे ये सब बच्चे-अच्छे।
    ज्ञान का दीपक जलता रहे यूं ही हरदम,
    गढ़ने एक नया अध्याय,स्कूल चलें हम।

    अकिल खान,
    प्रचारक, सदस्य, कविता बहार रायगढ़ जिला – रायगढ़ (छ.ग.)

  • जीवन पर कविता – कुसुम

    मुसाफिर हैं हम जीवन पथ के

    जीवन पर कविता - कुसुम
    HINDI KAVITA || हिंदी कविता

    मुसाफिर हैं हम जीवन पथ के
    राहें सबकी अलग-अलग
    धूप-छांव पथ के साथी हैं
    मंज़िल की है सबको ललक।

    राही हैं संघर्ष शील सब
    दामन में प्यार हो चाहे कसक
    पीड़ा के शोलों में है कोई
    कोई पा जाता खुशियों का फलक।

    मुसाफिर हूँ मैं उस डगर की
    काँटों पर जो नित रोज चला
    मधुऋतु हो या निदाघ, पावस
    कुसुम सदा काँटों में खिला।

    संघर्ष ही मुसाफिर की जीवन तान
    अंतर्मन बेचैन हो चाहे
    जिजीविषा प्रचंड बलवान।
    अनुकूल समय की आशा ही
    पथिक के कंटक पथ की शान।

    जीवन पथ के अनजान मुसाफिर
    झंझा से नित टकराते हैं
    नैया बिन पतवार हो गर तो
    भंवर में भी राह बनाते हैं।

    गर्त हैं अनजानी राहों में कई
    चुनौतियों के भी शिखर खड़े हैं
    मुसाफिर असमंजस में होता है
    तमन्नाओं के भी महल बड़े हैं।

    जीवन पथ संग्राम सा भीषण
    उल्फत नहीं उदासी है
    मृगतृष्णा का मंजर मरु में
    मुसाफिर की रूह भी प्यासी  है।

    सुख दुख में समभावी बनकर
    राही को मंज़िल मिलती है
    अदम्य साहस है नींव विजय की
    अमावस्या भी धवल बनती है।

    मुसाफ़िर हूँ मैं अजब अलबेली
    हिम्मत है शूलों पर चलने की
    पथरीले पथ पर लक्ष्य कुसुम का
    नैराश्य त्राण को हरने की।

    *कुसुम*

  • जिन्दगी पर कविता – पुष्पा शर्मा

    जिन्दगी का मकसद

    जिन्दगी पर कविता - पुष्पा शर्मा
    kavita bahar

    रोज सोचती हूँ।
    जिन्दगी का मकसद
    ताकती ही रहती हूँ
    मंजिल की लम्बी राह।

    सोचती ही रहती हूँ
    प्रकृति की गतिविधियाँ,
    जो चलती रहती अविराम।
    सूरज का उदय अस्त
    रजनी दिवस का निर्माण।

    रात का अंधियारा करता दूर
    चाँद की चाँदनी का नूर।
    तारों की झिल मिल रहती
    अँधेरी रातों का भय हरती।

    शीतल समीर संग होता सवेरा,
    परीन्दों के कलरव ने सृष्टि को घेरा।
    सुमन की सुरभियों का भार
    तरु शाखाओं का आभार।
    सभी की गति चलती अविराम।
    नहीं लेती थकने का नाम।

    फिर मनुज का जीवन कितना?
    बहुत है कार्य, कर सके जितना।
    परहित  जीवन लगे तमाम
    आखिर है अनन्त विश्राम।

    पुष्पा शर्मा“कुसुम”

  • आज भी बिखरे पड़े हैं – गंगाधर मनबोध गांगुली

    आज भी बिखरे पड़े हैं – गंगाधर मनबोध गांगुली

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह


            गंगाधर मनबोध गांगुली ” सुलेख “
               समाज सुधारक ” युवा कवि “

    कल तक बिखरे पड़े थे ,
               आज भी बिखरे पड़े हैं ।
    अपने आप को देखो ,
                 हम कहाँ पर खड़े हैं ।।01।।

    बट गये हैं लोग ,
                  जाति और धर्म पर ।
    गर्व करते रहो ,
                  मूर्खतापूर्ण कर्म पर ।।02।।

    महापुरुषों के महान कार्य,
                    लोगों को नजर नहीं आ रहे हैं ।
    जो जिस जाति में पैदा हुए ,
                     सिर्फ वही दिवस मना रहे हैं ।।03।।

    हर कोई कहता है,
                यह हमारा नहीं ,उनका कार्यक्रम है ।
    महापुरुषों की महानता ,
                     उनकों दिखता बहुत कम है ।।04।।

    आजादी सिर्फ नाम के रह गए,
                        गुलामी के कगार पे खड़े हैं ।
    कल तक बिखरे पड़े थे,
                          आज भी बिखरे पड़े हैं ।।05।।

    जातिवाद बढ़ रहा है ,
                        महापुरुषों को भी बाट रहे हैं ।
    किसे यहाँ अपना कहें,
                 जो अपनों का गला काट रहे हैं।।06।।

    हमारी स्थिति वैसी कि वैसी है ,
                            आज भी रास्ते पे पड़े हैं ।
    कल तक बिखरे पड़े थे,
                            आज भी बिखरे पड़े हैं ।।07।।

    गंगाधर मनबोध गांगुली

  • लालसा पर कविता – पूनम दुबे

    लालसा पर कविता

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह


    जो कभी खत्म ना हो,
    रोज एक के बाद एक,
    नई इच्छाओं का जन्म होना,
    पाने की धुन बनी रहती है, लालसा

    सबको खुश रखने तक,
    सपनों को पूरा करने तक,
    कब चैन की सांस लेंगे,
    अंधेरों से उजालों तक,
    कभी तो चैन मिलेगा ,
    पर ये लालसा बढ़ती रहती है,

    तुमसे कुछ कहूं
    कब सुनोगे मेरी बात,
    कुछ तुम्हें बताना है,
    ये लालसा बनी रही,

    कभी आसमान को छू लूं,
    कभी चांद को पकड़ लूं,
    हजारों सपने दब गये,
    क्या कहें हम आपसे ,
    क्या सुनेंगे और कब समझेंगे
    लालसा ही रह गई,

    पल-पल समय घट रहा है,
    रेत की तरह फिसल रही ,
    जिंदगी।
    एक के बाद एक हजारों सवाल है,
    कैसे पूरा करेंगे हिसाब,
    मांग रही है जिंदगी,
    कैसे बताएं बहुत मुश्किल है,
    बस लालसा ही रह गयी।

    स्वरचित पूनम दुबे अम्बिकापुर छत्तीसगढ़