मैं गुलाब हूँ
मैं गुलाब हूँ मैं गुलाब हूं खूबसूरती में बेमिसाल हूं थोड़ा नाजुक और कमजोर हूं छूते ही बिखर जाती हूं फैल जाती है मेरी पंखुड़ियां ऐसा लगता है पलाश हूं उन पंखुड़ियों को मैं समेटती हूं कांटों की चुभन की…
मैं गुलाब हूँ मैं गुलाब हूं खूबसूरती में बेमिसाल हूं थोड़ा नाजुक और कमजोर हूं छूते ही बिखर जाती हूं फैल जाती है मेरी पंखुड़ियां ऐसा लगता है पलाश हूं उन पंखुड़ियों को मैं समेटती हूं कांटों की चुभन की…
प्रकृति की आह- वृक्ष, पर्वत धरा की पीड़ा और मानव को आगाह करने की चेष्टा ।
यह कविता गुलाब पर लिखी गई एक सामाजिक कविता है जिसमें गुलाब की तुलना मानव जीवन से की गयी है। जिस प्रकार गुलाब अपने गुणों के द्वारा सभी को प्रसन्न और खुश रखता है या विभिन्न उच्च व उचित या आदर्श स्थानों पर स्थान लेता है उसी प्रकार मानव को भी अपने उत्तम कार्यों के द्वारा उचित और उत्तम स्थान बनाना चाहिए
काव्य प्रतियोगिता आयोजित प्रसांगिक शीर्षक गुलाब पर आधारित कविता सम्मिलित करने हेतु
गुलाब एक फूल जो महकता सरे जहा को
गुरुजी कस पारा म पढ़ा के तो देख, अरे ! संसद ल सड़क म लगा के तो देख। गिंजरथे गुरु ह गली म पुस्तक ल धर के, बटोरे हे लईकन ल मास्टर गाँव भर के।
ओढ़ना बिना जेखर जिंनगी गुजरगे, मरनी म ओखर कपड़ा चढ़ाबो।
कपटी करोना जीव के काल होगे
भुँईया के छाती ह फाटगे। पानी सुखागे हे घाट के।
Ganeshotsav