यहाँ पर अनिल कुमार गुप्ता अंजुम की कवितायेँ दिए जा रहे हैं :-
मैंने उसे – कविता
मैंने उसे
किसी का सहारा बनते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
मैंने उसे किसी की भूख
मिटाते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
मैंने उसे किसी की राह के
कांटे उठाते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
मैंने उसे किसी का गम
कम करते देखा
मैं बहुत खुश हुआ
शायद आपको भी ……….
मैंने उसे किसी की
राह के रोड़े उठाते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
मासूम बचपन को
मैंने उसे मुस्कान बांटते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
मैंने उसे बागों में
फूल खिलाते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
जीवन को मूल्यों के साथ
जीने को प्रोत्साहित करता वह
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
पालने के मासूम से
बचपन के साथ खेलता
उसे खुदा का दर्ज़ा देता वह
मुझे बहुत अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
गिरतों को उठाता
मानवता को पुरस्कृत करता
मानव मूल्यों को संजोता
संस्कारों को बचपन में पिरोता
हर – पल जो हमारे साथ होता
जो किस्सा ए जिंदगी होता
वह मुझे बहुत अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
शायद आपको भी ……….
शायद आपको भी ……….
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
मै बिन पंखों के – कविता
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
नै आसमां से
दुनिया देखना चाहता हूँ
सुना है आसमां से
दुनिया सुन्दर दिखती है
खुली आँखों से
ये नज़ारे लेना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
आसमां में तारे हैं
बहुत से
मै पास जाकर
इनको छूना चाहता हूँ
सुना है चाँद भी
दिखता है निराला
मै चाँद पर जाकर
उसे निहारना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
फूलों की खुशबू ने
किया है मुझको कायल
मै भंवरा बन फूलों का
रस लेना चाहता हूँ
किस्से कहानियों से
मेरा नाता पुराना
मै परी की
कहानी सुनना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
मै कोयल बन
मधुर गीत गाना चाहता हूँ
मै कवि बन जीवन में
रौशनी लाना चाहता हूँ
मै शिक्षक बन
ज्ञान विस्तार करना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
समर्पण की भावना ने
किया मुझको प्रभावित
मै पृथ्वी की तरह
महान बनना चाहता हूँ
देश भक्ति का जज्बा भी
मुझमे कम नहीं है
मै भगत,सुखदेव
और बिस्मिल बनना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
दिखने में छोटा साथ बाती
पर अँधेरे पर है बस उसका
मै अपनी जिंदगी को
दीपों की माला में पिरोना चाहता हूँ
मै दीप बन सबकी जिंदगी को
रोशन करना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
मै आसमां से
दुनिया देखना चाहता हूँ
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
उतरो उस धरा पर – कविता
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
खिलो फूल बनकर
जहां खुशबुओं का डेरा हो
चमको कुछ इस तरह
जिस तरह तारे चमकें
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
न्योछावर उस धरा पर
जहां शहीदों का फेरा हो
उतरो उस धरा पर
जहां सत्कर्म का निवास हो
खिलो उस बाग में
जहां खुशबुओं की आस हो
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
बनाओ आदर्शों को सीढ़ी
खिलाओ जीवन पुष्प
राह अग्रसर हो उस ओर
जहां मूल्यों का सवेरा हो
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
खिले बचपन खिले यौवन
संस्कारों का ऐसा मेला हो
संस्कृति पुष्पित हो गली- गली
ऐसा हर घर में मेला हो
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
प्रकृति का ऐसा यौवन हो
हरियाली सबका जीवन हो
सुनामी, भूकंप, बाढ़ से बचे रहें हम
आओ प्रकृति का श्रृंगार करें हम
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
चलने दो जितनी चले आंधियां – कविता
चलने दो जितनी चले आंधियां
आँधियों से डरना क्या
मुस्कराकर ठोकर मारो
वीरों मन में भय कैसा
चलने दो जितनी चले आंधियां
तूफानों की चाल जो रोके
पल में नदियों के रथ रोके
वीर धरा के पवन पुतले
चलने दो जितनी चले आंधियां
पाल मन में वीरता को
झपटे दुश्मन पर बाज सा
करता आसान राहें अपनी
तुझे हारने का दर कैसा
चलने दो जितनी चले आंधियां
भारत माँ के पूत हो प्यारे
लगते जग में अजब निराले
करते आसाँ मुश्किल सारी
तुझे पतन का भय कैसा
चलने दो जितनी चले आंधियां
पड़े पाँव दुश्मन की छाती पर
चीरे सीना पल भर में
थर – थर काँपे दुश्मन
या हो कारगिल , या हो सियाचिन
चलने दो जितनी चले आंधियां
पायी है मंजिल तूने प्रयास से
पस्त किये दुश्मन के हौसले
फ़हराया तिरंगा खूब शान से
नमन तुझे ए भारत वीर
चलने दो जितनी चले आंधियां
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
दीदार का तेरे इन्तजार है मुझको- ग़ज़ल
तू यहीं कहीं आसपास है, ये एतबार है मुझको
मै तुझको ढूंढूं , ऐसी जुर्रत मै कर नहीं सकता
तू हर एक सांस में बसता है , ये एतबार है मुझको
मक्का हो या मदीना, जहां में सब जगह
तेरे नाम का सिक्का है, ये एतबार है मुझको
दीदार का तेरे, एतबार है मुझको
किस्सा-ए-करम तेरा, बयान मै क्या करूं
हर शै में तेरा नाम, हर जुबान पे तेरा नाम
खुशबू तेरा एहसास, ये एतबार है मुझको
पलती है जिंदगी, एक तेरी कायनात में
खिलता है तू फूल बनकर, ये एतबार है मुझको
दीदार का तेरे, एतबार है मुझको
मेरे पिया तेरा करम, तेरी इनायत हो
जियूं तो तेरा नाम, मेरे साथ-साथ हो
मेरा सारा दर्द तेरा, ये एहसास है मुझको
तेरा आशियाना हो, आशियाँ मेरा
तू रहता है साथ मेरे, ये एतबार है मुझको
दीदार का तेरे, एतबार है मुझको
जीता हूँ तेरे दम से, जीता हूँ तेरे करम से
हर एक आह मेरी, करती परेशां तुझको
तू हर दुःख में साथ मेरे, ये एतबार है मुझको
कर दे तू राह आशां, कर दे तू पार मुझको
मरूं तो जुबान पे तू हो, ये एतबार है मुझको
दीदार का तेरे, एतबार है मुझको
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
अखिल विश्व तेरा गगन हो – कविता
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
नरेश सा तू राज करना
हर दिलों में वास करना
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
कोविद सा तू पावन हो
धरा सा तू अचल हो
कांति महके हर दिशा में
सम्पूर्ण धरा तेरा आँचल हो
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
संघर्ष तेरा कर्मक्षेत्र हो
निर्वाण तेरा अंतिम सत्य हो
सहचर प्रकृति तेरी हो
सरस्वती का तू वन्दनीय हो
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
महक तेरी चहुँओर फैले
वैरागी सा तेरा जीवन हो
महेश सा रौद्र हो तुझमे
नारद सा तू चपल हो
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
प्रज्ञा तेरी सहचर बने
पर्वत सा तू अटल हो
नैसर्गिक ऊर्जा हो तुझमे
गजानन वरद हस्त हो तुझ पर
अद्वितीय मनाव बने तू
जगत में तू अमर हो
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
तिमिर पथगामी तुम बनो ना- कविता
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
अहंकार पथ तुम चरण धरो ना
लालसा में तुम उलझो ना
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
अंधकार में तुम झांको ना
अनल मार्ग तुम धारो ना
निशिचर बन तुम जियो ना
कुटिल विचार तुम मन धारो ना
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
कल्पवृक्ष बन जीवन जीना
शशांक सा तुम शीतल होना
अमृत सी तुम वाणी रखना
अम्बर सा विशाल बनो ना
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
किंचिं सा भी तुम डरो ना
घबराहट को मन में पालो ना
क्लेश वेदना सब त्यागो तुम
पुष्कर सा तुम पावन हो ना
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
द्रव्य वासना तुम उलझो ना
दुर्जन सा हठ तुम पालो ना
सुरसरि सा तुम्हारा जीवन हो ना
पावन निर्मल मार्ग बनो तुम
चीर तिमिर प्रकाश बनो तुम
अलंकार उत्कर्ष वरो तुम
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं – कविता
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
मुझको पार लगा देना
गिरने लगूं तो मेरे मालिक
बाहों में अपनी उठा लेना
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
पुष्पक वाहन हों मेरे साथी
पुष्प भी हों मेरे सहवासी
तन को मेरे उजले मन से
जीवन सार बता देना
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
ध्यान तेरा हर पहर हो मालिक
मन मंदिर में बस जाना
पुण्य पुष्प बन जियूं धरा पर
मुझको तुझमे समां लेना
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
पुष्प समर्पित चरणों में तेरे
गीता सार बता देना
पा लूं तुझको इस जीवन में
ऐसा मन्त्र बता देना
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
पुण्य कर्म विकसित कर मालिक
चरण कमल श्रृंगार धरो तुम
खिला सकूं आदर्श धरा पर
पूर्ण जीव उद्धार करो तुम
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
विजय रथ उसको मिलेगा – कविता
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
विजय ध्वज उसको मिलेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
राष्ट्र्पथ पर जो चलेगा
जीत केवल उसकी ही होगी
युद्ध पथ पर जो बढ़ेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
जयमाल उसको मिलेगी
संघर्षपथ अग्रसर जो होगा
जयघोष उसकी ही होगी
जो विजयपताका थाम लेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
जयघोषणा उसकी होगी
जयपूर्ण कर्म जो करेगा
विजय स्तंभ उसका बनेगा
गौरवपूर्ण जिसका भूतकाल होगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
ज़र्रा – ज़र्रा कायल उसका होगा
सारी कायनात पर अहसान जिसका होगा
स्मारक उसका बनेगा
संघर्ष जिसकी पहचान होगी
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
जीवनी उसकी लिखेगी
जीवन जिसने जिया होगा
आदर्श जिसकी पूँजी होगी
संकल्प जिसने लिया होगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
जय मंगल गान उसका होगा
जिसने सबका मंगल किया होगा
जयघोष उसकी ही होगी
जो दूसरों के लिए जिया होगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
जय परायण केवल वो होगा
जिस पर प्रभु का हाथ होगा
जगमगायेगा वही इस धरा पर
जिसने पत्थर को तराशा होगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
पायेगा वही जाकर वहाँ कुछ
जिसने यहाँ कुछ खोया होगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
वर्तमान किस तरह परिवर्तित हो गया है – कविता
वर्तमान किस तरह परिवर्तित हो गया है
टीचर आज का टयूटर हो गया है
जनता का रक्षक, भक्षक हो गया है
वर्तमान किस तरह परिवर्तित हो गया है
मानव आज का, दानव हो गया है
सुविचार, कुविचार में परिवर्तित हो गया है
गार्डन अब युवाओं के दिल गार्डन – गार्डन करने लगे हैं
चौराहे – तिराहे लवर पॉइंट बनने लगे हैं
आज का शिक्षक, शिष्या पर लट्टू हो गया है
गुरु – चेले का रिश्ता भ्रामक हो गया है
स्त्रियों की संख्या, पुरुषों से कमतर हो गयी है
सभ्यता लुप्त प्रायः सी हो गयी है
समाज का पतन, देश का पतन हो गया है
चरित्र का पतन, आस्था का पतन हो गया है
लुंगी को छोड़, जीन्स का चलन हो गया है
कपड़े छोटे हो गए हैं तन का दिखावा शुरू हो गया है
लडकियां, लड़कों सी दिखने लगी हैं लड़के, लड़कियों से दिखने लगे हैं
चारों ओर ब्यूटी पार्लर का चलन हो गया है
वर्तमान किस तरह परिवर्तित हो गया है
वर्तमान किस तरह परिवर्तित हो गया है
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
धरा पर आज भी ईमान बाकी है – कविता
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो भोपाल त्रासदी देख
मन सबका रोता क्यों
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो सुनामी देख
मन सबका रोता क्यों
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो लातूर का विनाश देख
मन सबका रोता क्यों
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो म्यामार का आघात देख
मन सबका पसीजा क्यों
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो गाजापट्टी में नरसंहार देख
मन सबका व्याकुल होता क्यों
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो मंदिरों में भीड़ का
अम्बार नहीं होता
मंत्रोच्चार नहीं होता
मस्जिद में अजान
सुनाई न देती
CHURCH में घंटों की आवाज
सुनाई न देती
गुरुद्वारों में पाठ
सुनाई न देता
मानव के हाथ
दुआ के लिए
न उठ रहे होते
गरीबों का कोई
सहाई न होता
यदि ऐसा नहीं होता
तो धरती पर
कोई किसी की बहिन नहीं होती
कोई किसी का भाई नहीं होता
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
गिरते को कोई
उठा रहा न होता
बहकते को कोई
संभल न रहा होता
ये मानव की नगरी है
यहाँ देवों का वास होता है
ये संतों की नगरी है
यहाँ संतों का वास होता है
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
भँवर – कविता
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
किनारे की आस तो है
पर किनारा मिलता नहीं है
हो रहे हैं
दिन प्रतिदिन आसामाजिक
फिर भी
समाज में रहने का भ्रम
पाले हुए हैं हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
किनारे की आस तो है
पर किनारा मिलता नहीं है
हमारी चाहतों ने
हमारी जरूरतों ने
हमें एक दूसरे
से बाँध रखा है
वरना अपने अपने अस्तित्व के लिए
जूझ रहे हैं हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
बंद कर दिए हैं हमने
मंदिरों के दरवाजे
नेताओं के चरणों की
धूल हो गए हैं हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
चाटुकारिता से पल्ला
झाड़ा नहीं हमने
चापलूसी का दामन
छोड़ा नहीं हमने
बदनुमा जिंदगी के
मालिक हो गए हैं हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
दर्द दूसरों का बाँटने में
पा रहे हम स्वयं को अक्षम
स्वयं की ही परेशानियों
से परेशान हो रहे हैं हम
चलना हो रहा है दूभर
सहारा किसका बन सकेंगे हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
आये दिन की घटनाओं के
पात्र हो गए हैं हम
सामाजिक अशांति के चरित्र हो
जी रहे हैं हम
जीने की भयावहता में
राह भटके जा रहे हैं हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
आस है उस पल की
जो आशां कर दे
सारी राहें
ले चले इस
अनैतिक व्यवहार से दूर
आँचल में अपने समेटे
सभी दुःख दर्द
जीने की राह दे
जीवन को अस्तित्व दे
मार्ग प्रशस्त कर
दूसरों के लिए जीने की लालसा जगा
ताकि कोई भी ये न कह सके
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
किनारे की आस तो है
पर किनारा मिलता नहीं है
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
कवि हूँ – कविता
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
करोगे वाहवाही कविताओं की झड़ी लगा दूंगा
डूबते बीच मझदार को पार लगा दूंगा
कविता करना मेरा कोई सजा नहीं है
बुराइयों से बचाकर तुझे सजा पार करा दूंगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
कविता की ताकत को तुम क्या जानो
तुमने किया सजदा तो सर कटा दूंगा
उठाई जो तलवार तुमने प्रेम का पाठ पढ़ा दूंगा
की जो प्रेम की बातें सीने से लगा लूँगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
प्रकृति मेरा प्रिय विषय रही है
हो सका तो चारों और फूल खिला दूंगा
सुंदरता की तारीफ की बातें न पूछो मुझसे
हो सका तो इसे नायाब चीज बना दूंगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
जीता हूँ में समाज की बुराइयों में
लिखता हूँ कवितायें तनहाइयों में
अपराध बोध बुराइयों पर कर प्रहार
एक सभ्य समाज का निर्माण करा दूंगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
सभ्यताओं ने किया कवि दिल पर प्रहार
दिए नए नए जख्म नए नए विचार
विचारों की इन नई श्रंखला में भी
जीवन अलंकार करा दूंगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
कवि हमेशा जिया है दूसरों के लिए
कवि हमेशा लिखता है समाज के लिए
दिल से बरबस आवाज ये निकलती है
हे मानव जीवन तुम सब पर वार कर दूंगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
पाप पुण्य – कविता
पाप पुण्य के चक्कर में
मत पड़ प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
परिणाम की चिंता में
नींद हराम मत कर प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
जीवन बहती धारा का
नाम प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
आत्मा पवित्र कर
परमात्मा में लीन हो प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
सद्चरित्र धरती पर
जीतता हर मुकाम है
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
निराशा के झूले में
झूलना मत प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
योग का आचमन कर
आत्मा को पुष्ट कर प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
जीवन बहती नदी है
विश्राम न कर प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
मन है चंचल पर
आत्मा पर अंकुश
लगा प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
जीना है इस धरा पर तो
पुण्यमूर्ति बन प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
सत्कर्मीय एवं पूजनीय को
परमात्मा दर्शन देते प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
जीवन लगाम कस
अल्लाह को सलाम कर प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
बंधनों के मोह में
तू न पड़ प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
शांत स्वभाव और
मृदु वचन बोल प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
निर्बाध तू बढ़ा चल
भक्ति का आँचल पकड़
जीवन राह विस्तार कर ले प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
साँसों की डोर की मजबूती का
कोई भरोसा नहीं है
उड़ सके तो भक्ति के आसमां में
उड़ ले प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
अधर्म की राह छोड़
धर्म पथ से नाता जोड़
किस्मत अपनी संवार ले प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
छूना है आसमां और पाना है
उस पुण्यमूर्ति परमात्मा को
जीवन को अपने कर्म पथ पर
निढाल कर ले प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
सत्य वचन अनमोल वचन- कविता
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन मुखरित हो जब पुष्प खिला जाता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म प्रेरणा स्रोत जब बन जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन सत्य राह जब निर्मित कर जाता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म परम कर्म जब हो जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन परम धर्म जब बन जाता हैं
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म जब सामाजिकता पा जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन जब मानव मुक्ति साधन हो जाता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म जब पाप कर्म को धो जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन जब मानव मन पर छा जाता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म जब धर्म प्रेरित कर्म बन जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन जब मानव का तारक हो जाता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म जब मानव कल्याण हित हो जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन साधारण को असाधारण कर जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन हर पल होता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म हर छण होता है
मानव पूर्ण तभी होता है
जब वह दोनों के सत्संग होता है
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे – कविता
कैसे करूँ तेरा अभिनन्दन
कैसे करूँ मैं कोटि वंदन
निर्मल नहीं है काया मेरी
शीतल नहीं हुआ मन मेरा
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
निर्मल नीर कहाँ से लाऊं
कैसे तेरे चरण पखाऊँ
तामस होता मेरा तन मन
निर्जीव जी रहा हूँ जीवन
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
अमृत वचन कहाँ से पाऊं
कैसे तेरी स्तुति गाऊं
सूरज बन चमकूँ मै कैसे
चंदा बन चमकूँ मैं कैसे
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
आँगन मेरा तुम बिन सूना
अधीर हो रहे मेरे नयना
निश्चल समाधि पाऊं कैसे
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
उत्कर्ष मेरा होगा प्रभु कैसे
बंधन मुक्त रहूँगा कैसे
पीड़ा मन की दूर करो तुम
असह्य मेरा दर्द हरो तुम
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
नैतिकता की राह दिखा दो
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
आधुनिकता का दंभ – कविता
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
टेढ़ी मेढ़ी पगडण्डी पर
चल रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
वस्त्रों से हमें क्या लेना
चिथडो पर जी रहे हैं हम
मंत्र सीखे नहीं हमने
गानों से जी बहला रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
पुस्तकें पढ़ना हमें
अच्छा नहीं लगता
इन्टरनेट मोबाइल से
दिल बहला रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
अति महत्वाकांक्षा ने हमको
कहाँ ला खड़ा किया है
अपराध की अंधी दुनिया मे
जिंदगी ढूंढ रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
सत्कर्मो से हमें
हमें करना क्या
बेशर्मो की तरह जिंदगी
जिए जा रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
अर्थ के मोह ने
हमें व्याकुल किया है
तभी अपराध की शरण
हो रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
आवश्यकताएं रोटी कपडा और मकान से
ऊपर उठ चुकी हैं
कहीं जमीर कहीं तन
कही सत्य बेचने लगे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
शक्ति और धन की उर्जा का
दुरपयोग करने लगे हैं हम
गिरतों को और नीचे गिराने
ऊंचों को और ऊँचा उठाने लगे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
हमारे पागलपन की हद तो देखो
मानव को मानवबम बना रहे हैं हम
जानवरों की संख्या घटा दी हमने
आज आदमी का शिकार करने लगे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
अब तो संभलो यारों
अनैतिकता से दूरी रख जीवन संवारो यारों
आधुनिकता की अंधी दौड से बहार आओ यारों
चारों और इंसानियत और मानवता
का मन्त्र सुनाओ यारों
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
कविता ऐसे करो – कविता
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
अक्षरों से शब्द बनें विचार अलंकार हो जाए
विचार हों ऐसे कि बुराई शर्मशार हो जाए
मिले समाज को नए विचार कि हर एक कि जिंदगी गुलजार हो जाए
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
छोड़ो तीर शब्दों के कुविचारों पर कि धरा पुण्य हो जाए
मिटा दो आंधियां मोड़ दो रास्ते तूफानों के जिंदगी पतवार हो जाए
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
बहा दो ज्ञान की गंगा मिटा अँधियारा भीतर का
कि जीवन जगमग हो जाए
रहे न कोई अछूता ज्ञान गंगा से कि जीवन पवित्र संगम हो जाए
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
मिटाकर बुराई को,
मिटा मन के अँधेरे को
कि ज़िन्दगी आशा का दीपक हो जाए
बनो ऐसे बढ़ो ऐसे रहो ऐसे
कि आसमां से तारे फूल बरसाएं
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
करो शब्दों के प्रहार छोड़ो शब्दों की बौछार
कि ज़िन्दगी काँटों के बीच फूल कि मानिंद हो जाए
जियो ऐसे धरा पर बनो ऐसे धरा पर
कि खुदा भी जन्नत छोड़ धरा पर
तुझे आशीर्वाद देने आ जाए
तुझे गले लगाने आ जाए
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
भाग रहे हैं सब
भाग रहे हैं सब
इधर से उधर
चाह में सुनहरे कल की
वर्तमान को घसीटते
आत्मा को कचोटते
चाह पाने की
थोड़ी सी छाँव
धन की लालसा
विलासिता में आस्था
चाह अहम की
पंक्षी बन उडूं गगन में
बिन पंखों के
आधारहीन
चाल के साथ हवा में
भाग रहे हैं सब
इधर से उधर
आत्मा पर कर वार
जी रहे हैं सब
उधार की
जिंदगी के बोझ तले
अज्ञान के
बिन दीये के
रौशनी की चाह में
भाग रहे हैं सब
इधर से उधर
उद्देश्यहीन राह पर
चौसर की बिसात पर
जिंदगी जी रहे सभी
अकर्म की सेज पर चाहते
फूलों के ताज
समझ नहीं आ रहा
हम जा रहे किधर
भाग रहे हैं सब
इधर से उधर
पालना है फूलों से सजा
मोतियों से भरा
गुब्बारे भी दीख रहे
छन – छन करता
हाथ में खिलौना
पर आधुनिक
माँ के स्तन को टोह रहा
झूले का बचपन
जा रहा हमारा समाज किधर
भाग रहे हैं सब
इधर से उधर
समय की विवशता
ऊँचाइयों को छूने
का निश्चय
एक ही कदम में
अनगिनत सीढियां नापते
कदम अनायास ही
गिर जाने को
मजबूर करते हैं
अस्तित्व खो संस्कारों
को धो
क्या पाना चाहता है
मानव
मानव दौडता है
केवल दौडता ही
रह जाता है
इधर से उधर
भाग रहे हैं सब
इधर से उधर
जीवन अर्थ समझना है
तो धार्मिक ग्रंथों
की खिड़कियाँ खोल
दिव्य दर्शन ,
स्वयं दर्शन
करना होगा
दिव्य विभूतियों
के चरणों का
आश्रय पाना होगा
संस्कृति
व संस्कारों को
जीवंत बनाना होगा
छोड़ राह
भागने की
इधर से उधर
जीवन से
विलासिताओं को
हटाना होगा
स्थिर होना होगा
संतुष्टि, संयम के साथ
स्वयं को संकल्पों
से बाँधना होगा
निश्चयपूर्ण जीवन
जीना होगा
श्रेष्ठ जीवन
राह निर्मित
करना होगा
मनुष्य को
मशीन की बजाय
मानव बनना होगा
मानव बनना होगा
आज जानकारियों का बढ़ गया भण्डार है
आज जानकारियों का बढ़ गया भण्डार है.
कुछ सच्ची कुछ झूठी , कुछ की महिमा अपरम्पार है l
कुछ यू – ट्यूब पर चला रहे चैनल , कुछ के ब्लॉग बेमिसाल हैं.
वेबसाइट के अंदाज़ भी निराले हैं , कुछ इन्स्टाग्राम , एफ़ बी , ट्विटर के मतवाले हैं l
खे रहे हैं सब अपनी – अपनी नावें,
कुछ को हासिल मंजिल, कुछ बीच मझधार हैं l
व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की अपनी ही माया है.
फेसबुक , ट्विटर पर हर कोई छाया है l
किसी के दुःख दर्द से , किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता.
सूचनाओं का बाज़ार गर्म होना चाहिए l
गम किसी के कम हों न हों , क्यों सोचें.
टी आर पी का खेल बदस्तूर चलते रहना चाहिए l
कोई आविष्कार का बना रहा वीडियो तो कोई सुसाइड का.
कोई डूबते हुए का बना रहा वीडियो, तो कोई तेज़ाब में नहा चुकी ……..का l
किसी को फ़र्क पड़े तो पड़े क्यों.
यू – ट्यूब से कमाई की राह निकलती रहनी चाहिए l
आज जानकारियों का बढ़ गया भण्डार है
समाज अपनी ही तरक्की पर शर्मशार है l
संस्कृति, संस्कारों को बचाने की आज चुनौती है
“ बाबे “ निकल रहे बहुरूपिये , ये अजब कसौटी है l
नेता धर्म का कर रहे अतिक्रमण
राम के नाम पर लग रही बोली है l
मंदिरों पर अंधाधुंध चढ़ावे चढ़ रहे हैं
झोपड़ी में लाल भूख से बिलख रहे हैं l
कोरोना का भयावह रूप देखकर भी नहीं सुधरी दुनिया
इस भयावह त्रासदी में करोड़ों की उजड़ गयी दुनिया l
“ बाबे “ सभी हो गए बिज़नेसमैन
गली – मुहल्लों में खुल रही इनकी दुकान है
प्रकृति से खिलवाड़ को समझ रहे तरक्की का सिला
कभी सुनामी कभी बाढ़ कभी भूकंप तो कभी कोरोना की मार है l
पहाड़ों का दिल चीरकर कम कर रहे दूरी
अजब तरक्की का गजब बुखार है l
कोरोना ने इंसान को कीड़े मकोड़ों की तरह कुचला
फिर भी इंसान का दिल इंसान की मौत पर नहीं पिघला l
मंदिरों में घंटों की ध्वनि पर लग गया विराम
आज भी डीजे पर नाचने वालों को कहाँ आराम l
आज अजब नज़ारे दिखा रही है ये धरा और ये आसमां
अभी भी चाहे तो संभल जा ए आदम की औलाद , अपनी जिन्दगी को नासूर न बना l
तरक्की के मायने बदल, लिख सके तो लिख इबारत इंसानियत की तरक्की की
सजा सके तो सजा महफ़िल , खुदा की इबादत की l
इस नायाब प्रकृति को बना अपनी जिन्दगी का हमसफ़र
सिसकती सांसों का बन मरहम , इस धरा को कर रोशन l
आज जानकारियों का बढ़ गया भण्डार है
कुछ सच्ची कुछ झूठी , कुछ की महिमा अपरम्पार है ll
मैं चाहता हूँ
चाहता हूँ
एक जहां बसाना
जिस पर हो
तारों का ठिकाना
चन्दा करता हो अठखेलियाँ
बाद्लों के पीछे
कभी सूरज अपनी शरारतपूर्ण
हरकतों से चाँद को
करता दिखता हो परेशान
चाहता हूँ एक जहां बसाना
जहां बादल बूंदों को
अपने में समाये
बादल जो धरा पर
जीवन तत्व की बरसात
करते हैं
मैं चाहता हूँ
एक ऐसा ठिकाना
जहां आसमां पर
जीवन के सतरंगे
पलों को अपने में समाये
इन्द्रधनुष दिखाई देता है
मेरा मन चाहता है
एक ऐसा आशियाँ
जहां भोर होते ही
पंक्षियों की चहचहाहट
सुनाई देती है
जहां सुबह की भोर के आलाप
मनुष्य को
उस परमात्मा से जोड़ते हैं
जहां पालने में
रोते बालक की
आवाज सुनते ही
माँ तीव्रगति से
अपने बच्चे की ओर भागकर
उसे गले से लगा लेती है
मैं एक ऐसा जहां
बसाना चाहता हूँ
जहां संस्कार ,
संस्कृति के रूप में
पल्लवित होता है
यह वह जहां है
जहां मानव
मानव की परवाह करता है
नज़र आता है
जहां कोई
मानव बम नहीं होता
जहाँ कोई आतंकवाद नहीं होता
जहां कोई धर्मवाद , जातिवाद ,
सम्प्रदायवाद नहीं होता
असंस्कृत हुई भाषा
असंस्कृत हुई भाषा
असभ्य होते विचार
असमंजस के वशीभूत जीवन
संकीर्ण होते सुविचार
अहंकार बन रहा परतंत्रता
असीम होती लालसा
जिंदगी का ठहराव भूलती
आज कि जिंदगी
‘ट्वीट’ के नाम पर
हो रही बकबक
असहिष्णु हो रहा हर पल
ये कौन सी आकाशगंगा
आडम्बर हो गया ओढनी
आवाहन हो गयी बीती बातें
मधुशाला कि ओर बढ़ते कदम
संस्कार हो गए आडम्बर
ये कैसा कुविचारों का असर
संस्कृति माध्यम गति से रेंगती
विज्ञान का आलाप होती जिंदगी
धार्मिकता शून्य में झांकती
मानवता स्वयं को
अन्धकार में टटोलती
ये कैसी कसमसाहट
ये कैसा कष्ट साध्य जीवन
कांपती हर एक वाणी
काँपता हर एक स्वर
मानव क्यों हुआ छिप्त
क्यों हुआ रक्तरंजित
समाप्त होती संवेदनाएं
फिर भी न विराम है
कहाँ होगा अंत
समाप्त होगी कहाँ ये यात्रा
न तुम जानो न हम ………..
शिक्षक
जीवन में ज्ञान रस घोल गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
जीने की राह दिखा गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
पुस्तकों से परिचय करा गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
मन में समर्पण का भाव जगा गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
ज्ञान के सागर में गोता लगाना सिखा गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
देश प्रेम की भावना मन में जगा जीवन संवार गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
जीवन में अनुशासन का महत्व बता गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
अंधविश्वासों के मोहजाल से बाहर कर जीवन सजा गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
शिक्षा के माध्यम से जीवन को अलंकृत करने की कला सिखा गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
पालने में अज्ञान के झूल रहा था अब तक
जीवन में ज्ञान के चार चाँद लगा गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
अनुशासन की बेडी पहना मेरा जीवन संवार गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
नैतिकता के मूल्यों का गहना उस पर मानवता का चोला पहना
पूर्ण मानव बना गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
किस्मत में न थे जिसकी धरा के मोती उसे आसमान का सितारा बना गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
उसे शिक्षक कह गया कोई
मानवता
खा गई ज़मीन
या खा गया आसमां
ऐ मानवता तू है कहाँ ?
ऐ मानवता तू है कहाँ ?
उड़ गई क्या शोले बनकर
आसमां में
मैं ढूँढता हूँ तुझे
ए इंसानियत
तेरा ठिकाना है कहाँ ?
तेरा ठिकाना है कहाँ ?
लोग कहते हैं
खुदा हर एक के
दिल में बसता है
फिर यह
बर्बरतापूर्ण व्यवहार देख
थरथराती ज़मीन देख
कांपती ज़मीन देख
कांपता जीवन देख
कहाँ छुप गया है खुदा ?
मैं ढूँढता हूँ तुझे
यहाँ और वहाँ
यहाँ और वहाँ
ऐ खुदा
क्या तू
युग परिवर्तन की
देख रहा है राह
मैं
मानवशोलों,
धर्माधिकारियों
के मुंह से निकले
अनैतिकपूर्ण
बोलों के बीच
सारी मानव
जाति में
एकता , अखंडता ,
सांस्कृतिकता को
ढूंढ रहा हूँ
ये सब हैं कहाँ ?
ये सब हैं कहाँ ?
ऐ खुदा
यदि तुझे
पता हो
तो बता
चारों ओर
मच रही चीख
चित्रों में
तब्दील होता
मानव शरीर
फिर भी उनका
गंवारा नहीं करता
ज़मीर
ये भटकते विचार
ये आतंकवाद
मानव संस्कृति
मानव सभ्यता
मानव संस्कारों
को करते तार – तार
आज मानव जीवन पर
कर रहे
बार – बार वार
शायद खुदा
युग परिवर्तन की आड़ में
मानव मस्तिष्क
मानव मन
को टटोल रहा है
उसकी जिद
व भावनाओं को
सच व झूठ के
तराजू में
तौल रहा है
और कह रहा है
अब तो रुक
अब तो संभल
अब तो अपनी
अनैतिकतापूर्ण ,
असामाजिक,
कायरतापूर्ण ,
आतंकवादी ,
अमनावतावादी
गतिविधियों पर
लगा विराम
क्योंकि
जिस विस्फोट
से अभी – अभी
तूने जिस दुधमुहें
बच्चे
के मासूम
व कोमल तन
को छोटे – छोटे
टुकड़ों में
बिखेर दिया है
वह कोई और नहीं
मैं खुदा ही था
तुम सब के बीच
मैं खुदा ही था
तुम सब के बीच
मैं खुदा ही था
तुम सब के बीच |
आज के चैनल – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
आज के चैनल
आधुनिकता का पाठ पढ़ा रहे हैं
और हमारे विश्वास व आस्था को
अंधविश्वास व रूढिवादिता बता रहे हैं
आज के चैनल
आधुनिकता का पाठ पढ़ा रहे हैं
और बुद्धिजीवी आने वाली पीढ़ी के
भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं
सीरियल देखकर महिलायें
अपने आपको
नए श्रृंगारों , परिधानों
एवं भव्य जीवन शैली
से अपने आपको लुभा रही हैं
और पति बेचारों की जेबें
पत्नियों की मांगें पूरी करने में
अपने आपको असहाय पा रही हैं
युवा पीढ़ी डेट को खजूर समझकर
उसके पीछे भाग रही है
और
अपनी जेबें खाली करने के
साथ – साथ
अपराध की ओर अग्रसर हो रही है
इस डेट रुपी विचार ने
युवा पीढ़ी को
अन्धकार रुपी भविष्य की ओर
धकेल दिया है
टी वी को सेंसर की
जरूरत महसूस होने लगी है
चूंकि टी वी पर महिलाओं
के कपड़े छोटे होने लगे हैं
टू पीस में टी वी बालायें
अपने आपको श्रेष्ठ फिगर
का ताज पहनाती
गौरवशाली पा रही हैं
दूसरी ओर आज की मम्मियां
अपने आपको टी वी के सामने
अपने बच्चों के साथ
असहज पा रही हैं
युवा पीढ़ी व आधुनिक मम्मियों
को ये सब बहुत भा रहा है
पर हमें
होने वाली पीढ़ी का भविष्य
गर्त में नज़र आ रहा है
टी वी पर ठुमके
आज आम हो गए हैं
नैतिकता, सुविचार
सुआचरण, मानवता सभी
कहीं खो गए हैं
जागो और कुछ करो
ये टी वी
भविष्य के भारत के
सामजिक परिदृश्य हेतु
अनैतिक कुविचार है
इन पर रोक लगाओ
स्वस्थ वातावरण बनाओ
युवाओं आगे आओ
देश को बचाओ
संस्कृति , संस्कारों को बचाओ
अपने मानव होने का धर्म निभाओ
अपने मानव होने का धर्म निभाओ
अपने मानव होने का धर्म निभाओ
शिक्षक कौन कहलाये
ज्ञान – विज्ञान की जो बात बताए
वही जन शिक्षक कहलाये
उचित – अनुचित का बोध कराये
वही जन शिक्षक कहलाये
सही गलत का फर्क बताए
वही जन शिक्षक कहलाये
भटके राही को राह पर लाये
वही जन शिक्षक कहलाये
जो अनुशासन का पाठ पढाए
वही जन शिक्षक कहलाये
जो देश प्रेम के भाव जगाये
वही जन शिक्षक कहलाये
जो पढ़ने में जो रूचि जगाये
वही जन शिक्षक कहलाये
आदमी को जो इंसान बनाए
वही जन शिक्षक कहलाये
जो ज्ञान की राह पर लेकर आये
वही जन शिक्षक कहलाये
प्रेरणा का जो स्रोत बन जाए
वही जन शिक्षक कहलाये
वही जन शिक्षक कहलाये
वही जन शिक्षक कहलाये
पालता हूँ अपने दिल में
पालता हूँ अपने दिल में
हज़ारों गम
आज के समाज में
पल रही
बुराइयों , कुरीतियों के बीच
पल रहा हूँ मैं
पालता हूँ हज़ारों गम
अपने दिल में
आज के समाज में
टूटता , बिखरता मानव
पल – पल गिरता
उठने की
नाकान कोशिश करता
ये मानव
पालता हूँ हजारों गम
अपने दिल में
असंयमित होता
अतिमहत्वाकांक्षी होता
अतिविलासी होता
पथ भृष्ट होता
छोड़ता
आदर्शों को पीछे
संस्कारों से नाता खोता
संस्कृति की छाँव से
दूर होता
पालता हूँ अपने दिल में
हज़ारों गम
आज का मानव दिशाहीन होता
चरित्रहीन होता
असत्यपथगामी होता
अप्राकृतिक कुंठाओं का
शिकार होता
पालता हूँ अपने दिल में
हज़ारों गम
बात बाल्यकाल की
बात बाल्यकाल की
चिरपरिचित लाल की
गली के सब बच्चों में
अक्ल के सब कच्चों में
शामिल वह हो गया
बुद्धिज्ञान खो गया
शरारती वह हो गया
मतवाला वह हो गया
पढ़ाई जिसे रास नहीं
पैसे जिसके पास नहीं
मौके वो ढूँढता
जेबों पर हाथ मारता
सामान घर के बेच – बेच
अपनी इच्छायें पूरी करता
धीरे – धीरे वह उच्छंख्ल हो
शरारती वो हो गया
मौके वो न छोडता
कभी बैग चोरी करता
कभी किसी की जेब हरता
इच्छायें अपनी पूरी करता
इच्छाओं ने उसकी उसको
अपराधी कर दिया
मायाजाल बढ़ गया
समय ने फिर मोड़ लिया
अचानक एक घटना घटी
बात उस रात की
सूनसान राह पर
रुकी जब एक कार
लुटेरों ने घेर लिया
बचाओ – बचाओ के शब्दों ने
उसके कानों को सचेत किया
एक अपराधी ने दूसरे अपराधियों को
किसी बेक़सूर पर
करते देख वार
अपनी आत्मा को कचोटा
और मन ही मन सोचा
जिंदगी में मिला है
मौक़ा पहली बार
भुलाके अपने पुराने कर्म
भुलाके अपनी सारी इच्छायें
भुलाके अपने सारे गम
छोड़ अपनी जिंदगी का मोह
टूट पड़ा उन अपराधियों पर
बिजली बन
बचा लाज मानवता की
उसने उस परिवार को बचा लिया
अपने जीवन पर्यंत पापकर्मों को
सत्कर्मों में परिवर्तित कर दिया
उसने दूसरों की सेवा का वचन लिया
सत्कर्म की ओर उसके कदम बढ़े
वह समाज का प्यारा हो गया
सबका दुलारा हो गया
मानव की कैसी ये दुर्दशा हो रही है
मानव की कैसी ये दुर्दशा हो रही है
तड़पती ये साँसें बेवफ़ा हो रही हैं
सिसकती जीवित आत्माएं हजारों आंसू रो रही हैं
एक वायरस से जिंदगियां फ़ना हो रही हैं
मूक हैं सत्ता के ठेकेदार, क्या बताएं
तिल – तिल कर जिंदगियां तबाह हो रही हैं
सत्ता के गलियारे में , चुनाव की हलचल है
नेताओं की आँखें , कुर्सियों पर टिकी हुई हैं
कहीं माँ रो रही है, कहीं भाई रो रहा है
कही बाप अपने बेटे की अर्थी , काँधे पे ढो रहा है
मानवता सिसक रही है , इंसानियत रो रही है
रोजगार फना हो रहे हैं , रसोई तड़प रही है
जवाँ खून कोरोना की बलि चढ़ रहे है
ऑक्सीजन और दवाई के अभाव में मर रहे हैं
कुछ हैं जो अस्पतालों में जगह को तरस रहे हैं
कुछ हैं जो अपनी लापरवाही से मर रहे हैं
मानव की कैसी ये दुर्दशा हो रही है
तड़पती ये साँसें बेवफ़ा हो रही हैं
सिसकती जीवित आत्माएं हजारों आंसू रो रही हैं
एक वायरस से जिंदगियां फ़ना हो रही हैं
हिंदी राजभाषा
हिंदी है राजभाषा
इससे नहीं निराशा
जैसी लिखी ये जाए
वैसी पढ़ी ये जाए
कर्णप्रिय ये भाषा
इससे नहीं निराशा
शब्दों को है संजोये
सभी भाषाओं को है पिरोये
विश्व धरा पर हमारी
पहचान है ये भाषा
विश्व प्रचलित ये भाषा
इससे नहीं निराशा
हिंदी है राजभाषा
इससे नहीं निराशा
इस परे हमें हो गर्व
चाहे समर्पण सर्व
इसका करैं हम सम्मान
हमारी यह पहचान
अन्य भाषाओं को
अपनाया है इसने
विश्व बंधुत्व का सपना
दिखाया है इसने
हिंदी है राजभाषा
इससे नहीं निराशा
नेपाली हो या उर्दू
फारसी हो या अंग्रेजी
आँचल में अपने सबको
दुलारती ये भाषा
पुकारती है हमको
मातृभूमि हमारी
करो वंदना सब मिलकर
राजभाषा हिंदी हमारी
हो जाए जाने सफल
करैं मातृभाषा का आचमन
इसे विश्व रंग पहनायें
विश्व धरा पर खिल ये जाए
हिंदी है राजभाषा
इससे नहीं निराशा
मेरे गुरू
वह दिन मुझे आज भी
याद है
जब मुझे भी ज्ञात नहीं था
कि जिन पुण्यमूर्ति
के सानिध्य में जीवन के
बाल्यकाल को जी रहा हूँ मै
मेरे जीवन का सत्मार्ग
बन मुझे
जिंदगी के चरम पर
पहुंचा
मेरे जीवन को सार्थक
बना देगा
ये
शायद
मेरे अंदर की भावना थी
या मेरी कर्मपरायणता
या फिर
उस परमपूज्य
परमात्मा
का
अप्रत्यक्ष आदेश
जिसने मुझे उनकी ओर
सेवा भाव से प्रेरित
कर
उनका आशीर्वाद
प्राप्त करने का
सुअवसर प्रदान किया
मुझे
उनकी वैराग्यपूर्ण छवि
अपनी ओर आकर्षित
करती थी
साथ ही उनका
लोगों के
प्रति मानवपूर्ण
व्यवहार
बच्चों के प्रति
दुलार
धार्मिक अनुष्ठानों में उनकी
आस्था
परमात्मा से उनका प्रत्यक्ष मिलन
समय – समय
पर उनके द्वारा
छोटे – छोटे
उद्धरण के माध्यम से
दी गई सीख
आज भी मेरे जीवन को
उदीयमान
करती है
सभी धर्मों में उनकी आस्था
धार्मिक ग्रंथों में
समाहित विचारों पर उनका अटूट विश्वास
मुझ पर
उनका पड़ता
अनुकूल प्रभाव
उनके
हर क्षण
हर पल कि
गतिविधियां
किसी भी जीव को
अपना जीवन पूर्ण
करने
के लिए काफी था
मै धन्य हूँ उन पुण्यमूर्ति
आत्मा का
जिनके सुविचारों
संदेशों का प्रसाद पाकर
अपने आपको आनन्द विभोर
पा रहा हूँ मैं
मेरी जीवन की
प्रत्येक
उपलब्धि
उस परमपूज्य
गुरुदेव
की आराधना
व साधना प्रतिफल है
मै उस पवित्र
आत्मा की वंदना करता हूँ
उसे साष्टांग
प्रणाम करता हूँ
जय गुरुवे नमः |
जीवन
जीवन स्वयं को प्रश्न जाल में
उलझा पा रहा है
जीवन स्वयं को एक अनजान
घुटन में असहाय पा रहा है
जीवन स्वयं के जीवन को
जानने में असफल सा है
जीवन क्या है ?
इस मकडजाल को
समझ सको तो समझो
जीवन क्या है ?
इससे बाहर
निकल सको तो निकलो
जीवन क्या है ?
एक मजबूरी है
या है कोई छलावा
कोई इसको पा जाता है
कोई पीछे रह जाता
जीवन मूल्यों की
बिसात है
जितने चाहे मूल्य निखारो
जीवन आनंदित हो जाये
ऐसे नैतिक मूल्य संवारो
जीवन एक अमूल्य निधि है
हर एक क्षण इसका पुण्य बना लो
मोक्ष, मुक्ति मार्ग जीवन का
हो सके तो इसे अपना लो
नाता जोड़ो सुसंकल्पों से
सुआदर्शों को निधि बना लो
जीवन विकसित जीवन से हो
पर जीवन उद्धार करो तुम
सपना अपना जीवन- जीवन
पर जीवन भी अपना जीवन
धरती पर जीवन पुष्पित हो
जीवन – जीवन खेल करो तुम
चहुँ ओर आदर्श की पूंजी
हर – पल जीवन विस्तार करो तुम
जीवन अन्तपूर्ण विकसित हो
नए मार्ग निर्मित करो तुम
नए मार्ग निर्मित करो तुम
नए मार्ग निर्मित करो तुम
परीक्षा हॉल
परिक्षा कक्ष में बैठे बच्चे
मन ही मन
कुछ सोच रहे हैं
कैसा होगा प्रश्नपत्र
होंगे कैसे उसमे प्रश्न
क्या – क्या पूछ बैठेंगे
क्या मैंने जो पढ़ा
हुआ है
वही परीक्षा में आयेगा
या फिर
मैं
बाजू वाले से कुछ पूछूँगा
क्या वो मेरी मदद करेगा
इस प्रश्नजाल में
उलझे बच्चे जाने
क्या – क्या सोच रहे हैं
परीक्षा हॉल में
बैठे शिक्षक के मन को
टटोल रहे हैं
क्या आज मैं
खुशी – खुशी लौटूंगा
या फिर लटके मुह
ही जाना होगा
पापा डाटेंगे मम्मी मारेगी
यह सब मुझको सहना होगा
बजी घंटी तब भ्रम टूटा
प्रश्नपत्र जब आया टेबल पर
प्रथम पृष्ठ जब मैंने देखा
मन को मेरे राहत आई
फ़टाफ़ट
फिर कलम लेकर
मैंने दौड़ लगाईं
कर डाले फिर
प्रथम पृष्ठ के सारे प्रश्न
आई अब दूसरे पृष्ठ की बारी
दूसरे पृष्ठ की मत पूछो भैया
लगती डूबती नैया
कुछ प्रश्न सर से नीचे
तो कुछ प्रश्न सर से ऊपर
खींचतान कर दिमाग लगाकर
जुगत बनाई
सोचा गाड़ी चल पड़ेगी
तभी पृष्ठ तीन
जो आया
यह मेरे मन को ना भाया
प्रश्न सभी थे विकराल
लगते थे जैसे काल
लगा फाड़ दूं पेपर को
फिर मन को कुछ कंट्रोल किया
कुछ दम मारी कुछ प्रयास किया
तब जाकर खुद पर विश्वास किया
किसी तरह जान मैं पाया
ये है शिक्षक की माया
पढ़ना तो हमको ही होगा
परीक्षा में लिखना तो
हमको ही होगा
सुननी होगी शिक्षकों की बातें
मन में उन्हें उतारना होगा
चलिए अब आई
रिजल्ट की बारी
सासें मेरी भारी-भारी
धड़कन धक् – धक्
धक् – धक्
सासें बोले
झक – झक
झक – झक
शिक्षक ने जब रिजल्ट सुनाया
मेरी समझ में
सब कुछ आया
बनना है उत्तम
तो प्रयास भी उच्च स्तर
के करने होंगे
पल –पल का
सदुपयोग करके ही
उस स्तर पर पहुचेंगे
मम्मी-पापा व अच्छे दोस्तों की
बातें सुननी होंगी
और माननी होंगी
समय व्यर्थ न गंवाना होगा
मंजिल पर पहुँचने के लिए
शोर्टकट को छोड़
परिश्रम यानी मेहनत
को अपनाना होगा
परिश्रम यानी मेहनत
को अपनाना होगा
वीर समाधि पर कविता
वहाँ दीया जलाओ
जहां वीरों की समाधि हो
वहाँ पुष्प चढ़ाओ
जहां वीरों की समाधि हो
वहाँ दीया जलाओ
जहां सरस्वती का निवास हो
वहाँ पुष्प चढ़ाओ
जहां सरस्वती का वास हो
वहाँ दीया जलाओ
जहां ज्ञान का प्रसार हो
वहाँ पुष्प चढ़ाओ
जहां शिक्षा की आस हो
वहाँ दीया जलाओ
जहां पीरों का निवास हो
वहाँ पुष्प चढ़ाओ
जहां पीरों का वास हो
वहाँ दीया जलाओ
जहां देवों का निवास हो
वहाँ पुष्प चढ़ाओ
जहां देवताओं का वास हो
वहाँ दीया जलाओ
जहां पुण्य आत्माओं का निवास हो
वहाँ पुष्प चढ़ाओ
जहां पुण्य आत्माओं का वास हो
दीया जला पुष्प चढ़ा
अपने अन्तर्मन को सजा
सुसंस्कारों की माला बन
इस पुण्य धरा को वर
जीवन सुसंस्कृत कर
सत्य मार्ग को तू वर
इस धरा पर पुष्प बन
जीवन संवार ले
खुशबू बन कुछ इस तरह
चारों ओर बहार आ जाए
तुम न छेड़ो कोई बात
तुम न छेड़ो कोई बात
न सुनाओ आदर्शों का राग
मार्ग हुए अब अनैतिक
हर सांस अब है कांपती
कि मैं डरूं कि वो डरे
हर मोड़ अब डरा – डरा
कांपते बदन सभी
कांपती हर आत्मा
रिश्ते सभी हुए विफल
आँखों में भरा वहशीपन
हर एक आँख घूरती
आँखों की शर्म खो रही
बालपन न बालपन रहा
जवानी बुढापे में झांकती
आदर्श अब आदर्श न रहे
न मानवता मानवता रही
अब राहों की न मंजिलें रहीं
डगमगाते सभी पाँव हैं
रिश्तों की न परवाह है
संस्कृति का न बहाव है
संस्कारों की बात व्यर्थ है
नारी न अब समर्थ है
नर , पशु सा व्यर्थ जी रहा
व्यर्थ साँसों को खींच है रहा
कहीं तो अंत हो भला
कहीं तो अब विश्राम हो
कहीं तो अब विश्राम हो
कहीं तो अब विश्राम हो
जिन्दगी शम्मा सी
जिन्दगी शम्मा सी रोशन हो खुदाया मेरे
जिन्दगी तेरी इबादत की जुस्तजू हो खुदाया मेरे
शम्मा सी रोशन जिन्दगी सबकी हो खुदाया मेरे
मुश्किलों से निजात जिन्दगी सबकी हो खुदाया मेरे
पाक – साफ़ हों दिल से सभी खुदाया मेरे
चारों पहर जुबां पर नाम हो तेरा खुदाया मेरे
एक तेरे नाम से रोशन हों ये दोनों जहां खुदाया मेरे
तेरे एहसास से खुशगंवार हों ये दोनों जहां खुदाया मेरे
जहां से भी मैं गुजरूँ तेरा एहसास हो खुदाया मेरे
गुंचा – गुंचा तेरे एहसास से रूबरू हो खुदाया मेरे
नादानी जो हो जाये माफ़ करना खुदाया मेरे
मैं साँसें ले रहा हूँ तो एक तेरे दम से खुदाया मेरे
नसीब मेरा बने तेरे करम से खुदाया मेरे
आशियाँ मेरा रोशन हो तेरे करम से खुदाया मेरे
दो फूल मेरी भी झोली में डाल दे खुदाया मेरे
शम्मा सी रोशन हो जिन्दगी हमारी खुदाया मेरे
निराली है तेरी शान , तेरा करम हम पर हो खुदाया मेरे
पाक – साफ़ दामन हो मेरा , मेरा चिराग तुझसे रोशन हो खुदाया मेरे
जिन्दगी शम्मा सी रोशन हो खुदाया मेरे
जिन्दगी तेरी इबादत की जुस्तजू हो खुदाया मेरे
माँ – कविता
माँ तेरे आँचल का
आश्रय पाकर
धन्य हो गया हूँ मै
माँ तेरी
कर्मपूर्ण जिंदगी
के पालने में
पलकर
कर्तव्यपूर्ण
जिंदगी का
प्रसाद पाकर
धन्य हो गया
हूँ मै
माँ तेरी आँखों में
स्नेहपूर्ण व्यवहार
अपने बच्चों के लिए
उमड़ता प्यार
देखकर
धन्य हो गया हूँ मै
माँ अपने
बच्चों के भविष्य
के प्रति
तेरे चहरे पर
समय समय पर
उभरती चिंता की लकीरें
साथ ही
तेरा आत्मविश्वास
देख धन्य हो गया हूँ मै
माँ
जीवनदायिनी के
साथ-साथ
प्रेरणादायिनी
प्रेमदायिनी
समर्पणरुपी
मूर्ति के साथ- साथ
आत्म बल से परिपूर्ण
शक्ति से संपन्न
ओजस
सभ्य
व
सुसंस्कृत
भविष्य
का निर्माण
करती
सांस्कृतिक
धरोहर
व
परम्पराओं का
निर्वहन करती
पुण्यमूर्ति को पाकर
धन्य हो गया हूँ मै
माँ
बच्चों को
बड़ों का सम्मान सिखाती
शिक्षकों के प्रति
आस्था जगाती
देवी को पाकर
धन्य हो गया हूँ मै
देखे थे मैंने
समय असमय
तेरी आँखों में आंसू
पर तेरा
विचलित न होना
प्रेरित करता है
मुझे शक्ति देता है
ऊर्जा देता है
विषम परिस्थितियों
में भी जीवन
जीने की कला
जो तूने सिखाई है
माँ
तुझे पाकर
धन्य हो गया हूँ मै
माँ
तुझे पाकर
धन्य हो गया हूँ मै
माँ
तुझे पाकर
धन्य हो गया हूँ मै
कुछ मैं लिखूं
कुछ मैं लिखूं
कुछ तुम लिखो
ये दुनिया
सुन्दर लेखनी का समंदर हो जाए
कुछ मैं गढ़ूं
कुछ तुम गढ़ों
ये दुनिया खूबसूरती से सराबोर हो जाए
कुछ मैं गाऊँ
कुछ तुम गाओ
ये वतन
देश प्रेम की भावना में डूब जाए
कुछ मैं सोचूँ
कुछ तुम सोचो
ये दुनिया
मानवता के आँचल में जीवन पाए
कुछ मैं जियूं
कुछ तुम जियो
ये दुनिया
सुविचारों के बाग़ से रोशन हो जाये
कुछ मैं बढूँ
कुछ तुम बढ़ो
ये दुनिया
उपलब्धियों के समंदर में डूब जाए
कुछ मैं कहूं
कुछ तुम कहो
ये दुनिया
विहारों की पृष्ठभूमि का आधार हो जाए
कुछ मैं उसे याद करूं
कुछ तुम उसे याद करो
ये दुनिया
उस परमतत्व के साए तले जीवन पाए
कुछ मैं संकल्प लूं
कुछ तुम संकल्प लो
यह दुनिया
सच्चाई मार्ग पर अग्रसर होती जाए
कुछ मैं आदर्श स्थापित करूं
कुछ तुम आदर्श स्थापित करो
ये दुनिया
आदर्शों के झंडे तले संस्कारित व पल्लवित होती जाए
कुछ मैं समर्पित हो जाऊं
कुछ तुम समर्पित हो जाओ
ये दुनिया
आपसी सामंजस्य का आइना हो जाए
कुछ मैं विश्राम लूं
कुछ तुम विश्राम लो
ये दुनिया
इसी तरह रोशन होती जाए
कुछ ऐसा करो
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
खुशियों का एहसास हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
दूसरों की मददगार हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
स्वयं से अभिभूत हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
किसी बाग की बयार हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
गुलाब की तरह महके
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
तारों सी चमक उठे
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
दूसरों को जीवन दे सके
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
दूसरों की जिन्दगी में बहार ले आये
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
परोपकार का साधन हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
सितारों की तरह चमके
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
कविताओं की सी रोचक हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
राम के आदर्शों तले जीवन पाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
कृष्ण भक्ति में डूब जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
किसी और की जिन्दगी का सामान हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
पर्वतों सी विशाल हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
बीच मझधार पतवार हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
बारिश की बूंदों की सी पावन हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
प्रकृति के आँचल तले जीवन पाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
ज्ञान के पावन जल से पवित्र हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
नानक , बुद्ध के विचारों का समंदर हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
पावनता की चरम सीमा पाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
भावनाओं , संवेदनाओं में बहना सीखे
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
इस मादरे वतन पर कुर्बान हो जाए
कुछ ऐसा करो
जिन्दगी
संस्कृति , संस्कारों के तले जीवन पाए
कुछ ऐसा करो
कुछ ऐसा करो
कुछ ऐसा करो
प्रश्न
प्रश्न मन में
हर -पल हर -क्षण
उठता है कि इन
माया के झंझावातों से
निजात पाऊं कैसे
कैसे बाहर आऊँ
इन खेलों से
जो दिन-प्रतिदिन
की जिन्दगी का
एक अहम् हिस्सा
बन गए हैं
कैसे और किससे कहूं
कैसे और किससे बयाँ करूं
अपनी अंतरात्मा
की पीर
किससे बयाँ करूँ
अपनी आत्मा के राज़
चाहता क्या मैं
और कर क्या रहा हूँ मैं
इन मायाजालों में उलझा
अपने अस्तित्व की लड़ाई
लड़ रहा हूँ मैं
मुझे खोने और पाने का
गम नहीं है
न ही मैं
कर्तव्यविमुख प्राणी हूँ
इस धरा पर
कर्तव्य, भावनायें
मोहपाश, बंधन
आकर्षण, त्याग
समर्पण
इत्यादि इत्यादि से
ऊपर उठना चाहता हूँ
मैं भागता नहीं हूँ
और न ही भागना चाहता हूँ
मैं जीवन में स्थिरता चाहता हूँ
स्थिरता
आप पूछ बैठेंगे
कि किस तरह की स्थिरता
स्थिरता जो मन में
शान्ति स्थापित कर दे
स्थिरता जो सुख – दुःख के
भवसागर से पार कर दे
स्थिरता जो त्याग का
पर्याय है
स्थिरता जो आत्मा के
विकास का आधार है
स्थिरता जो इस नश्वर
जीवन से ऊपर उठ
कुछ और सोचने को
बाध्य कर दे
स्थिरता जो जाती , धर्म, वेश और
राष्ट्रीयता से ऊपर उठ
मानव से मानव के
विकास से सुसज्जित हो
दैनिक कार्यकलापों से ऊपर उठ
उस ऊँचे सिंहासन की ओर बढ़ने की
जो मानव को मानव से ऊपर
उठा सके और
अग्रसर कर सके
उस दिशा की ओर
जहां पहुँच
मानव मोक्ष के योग्य हो
देव तुल्य हो
बंधन मुक्त उन्मुक्त गगन में
विचरण करता हो
स्थिरता जो मानव को
देवतुल्य अनुभूति
प्रदान करती है
स्थिरता जो
प्रकाशमय दीपक द्वारा
अन्धकार को दूर कर
उजाले की ओर प्रस्थित करती हो
स्थिरता जो वाणी का विस्तार हो जाए
स्थिरता जो त्याग की मूर्ती बन जाए
मानव जीवन को संवार सके
स्थिरता जो जीने का
आधार हो जाए
स्थिरता जो गुरु के
पूज्य चरण कमलों
के स्पर्श से देदीप्यमान हो जाए
जब एक बच्चा
जब एक बच्चा
दुनिया में आता है तो
चारों तरफ लोग
चार होते हैं
जब एक बच्चा रोता है तो
उसे दुलार, प्यार व चुप कराने वाले
चार होते हैं
पकड़ चलता है
जब अंगुली
तो लोग आसपास
चार होते हैं
उठाकर बस्ता
वो जब जाता है स्कूल
तो आसपास घर के चार होते हैं
स्कूल ने भी
उसके मित्र
चार होते है
बड़ा होता है
जब वो यौवन कि
गली में
किसी से उसके नैन चार होते हैं
इन नैनों कि
गलियों सेव जब वह
गुजरता है तो
आसपास बच्चे चार होते हैं
सोता है जिस
चारपाई
पर वह
उसके पाए भी चार होते हैं
कन्धों पर
करता है जब वो अपने
जीवन की अंतिम सवारी
तो कंधे चार होते हैं
लिटाकर किया जाता है
जहां संस्कार
वहा पर भी कोने चार होते हैं
चार दिनों कि
जिंदगी की ये
कहानी
आदमी की जुबानी
हो सके तो
संभाल
इस जिंदगी को मतलब दे
अर्थ दे
उचित आराम दे
कर्म कर
संयम धर
मानव रह
मानवतापूर्ण
व्यवहार कर
मानव के कल्याण के
हित
विचार कर
जीवन संवार ले
चार दिन
जिंदगी के
अर्थपूर्ण गुजार दे
चार दिन
जिंदगी के
अर्थपूर्ण गुजार दे
चार दिन
जिंदगी के
अर्थपूर्ण गुजार दे
आओ मिल प्रण करैं हम
आओ मिल प्रण करें हम
नव जीवन मस्तक धरें हम
करें पुष्पित संस्कृति
करें मुखरित संस्कार
आओ मिल प्रण करें हम
कर्म के हम धनी हों
भाग्य निर्माण करें हम
नव आदर्श निर्मित करें हम
आँधियों से न डरें हम
आई मिल प्रण करें हम
कलह से परे हों हम
कर्मशील धर्मशील बने हम
स्वतन्त्र मौलिक विचार धरें हम
सदाचारी सत्संग वरें हम
आओ मिल प्रण करें हम
सर्वोत्तम कृति बनें हम
पुण्यशील आत्मा कहें सब
सत्कीर्ति, सत्यनिष्ठा मार्ग हो
कार्यसाधक , स्वाभिमानी बनें हम
आओ मिल प्रण करें हम
सूरजमुखी सा दमकें हर पल
सूर्य सा चमकें हर क्षण
सुव्यवहार , सुशील, सुशिक्षित
अनमोल जीवन बनें हम
आओ मिल प्रण करें हम
नव जीवन मस्तक धरें हम
वक़्त के आँचल में
वक़्त के आँचल में , दो पल गुजार दो
हो सके तो अपना जीवन, संवार लो
जिन्दगी का कोई भरोसा , नहीं होता
किसी की जिन्दगी के , गम उधार लो
वक़्त की अहमियत को तो जानते हो तुम
खुद को तुम दूसरों के हित वार दो
लक्ष्य जीवन का , दूसरों का अभिनन्दन हो
स्वयं को दूसरों की राह के , पुष्प बना दो
मानव संबंधों की राह को परिपक्व करो तुम
मर्यादा के अलंकरण से खुद को संवार लो
सद्चरित्र निर्मित करो, आदर्शपूर्ण व्यवहार करो तुम
नैतिकता के मार्ग से , किसी का जीवन संवार दो
अंतर्ज्ञान से अपना जीवन संवार लो
अपनी आत्मा को इस सागर से पार लगा लो
अनुपम कृति हो तुम, उस परमात्मा की
उस प्रभु की इच्छा पर सब कुछ निसार दो
वक़्त के आँचल में , दो पल गुजार दो
हो सके तो अपना जीवन, संवार लो
जिन्दगी का कोई भरोसा , नहीं होता
किसी की जिन्दगी के , गम उधार लो
तस्वीरें
बनाई मैंने कुछ तस्वीरें
पसंद नहीं आईं किसी को
कुछ तस्वीरों में
हाथ नहीं
कुछ में पैर नहीं
कहीं एक आँख में दृष्टव्य
आदमी
कहीं जलते हाथ को
ठंडक देने के प्रयास में
एक औरत
कहीं दहेज के नाम पर
रस्सी पर झूलती
सुंदर नारी
कुछ चरित्र
अनमने से
अपने विचारों
में खोये
शायद जीवन को
समझने की
कोशिश में
कुछ बुत बने
जीवन पाने की
लालसा में
वर्षों से बिस्तर पर
कोमा की सी
स्थिति में
कुछ कर्म के मर्म को
जानने के प्रयास में
कर्मरत दीखते हुए
कुछ तस्वीरें ऐसी
जिसमे मानव
मानव को समझाने का
असफल प्रयास करता हुआ
कहीं दूसरी और
नारी की
व्यथा
समाज पर
प्रहार करती हुई
एक तस्वीर
ऐसी
जो सदियों से
हो रहे
सामाजिक परिवर्तन
को दर्शाती
जिसमे पुरुष का वर्चश्व
नारी की व्यथा
संस्कृति का पतन
संस्कारों की घुटन
सभ्यता के विकास का
लचर प्रदर्शन
आधुनिकता की और
बढ़ने का दंभ
ये तस्वीरें
किसी को पसंद नहीं आईं
आज का आधुनिक समाज
आधुनिक कला
समझता है
जिसका अर्थ
केवल चित्रकार ही बेहतर समझता है
केवल चित्रकार ही बेहतर समझता है
विलक्षण मानव
विलक्षण योग्यता से परिपूर्ण मानव
असाधारण उपलब्धियों के साथ
अवतरित मानव
धरती पर जन्म लेना ही
धरती पर जी रहे साधारण
मानव के जीवन में
बस रहे अँधेरे को
उजाले में परिवर्तित
करने की ओर
एक शुभ संकेत होता है
यह शुभ संकेत
उस साधारण व विलक्षण
आत्मा के जन्म के समय ही
कुछ ऐसे शुभ संकेत देता है
जिससे वह बालक शिशु के
आते ही चारों ओर ख़ुशी और रोशनी
या फिर देव अवतार के जन्म
का आभास होता है
बाल्यकाल से ही
ऐसे बालक के भीतर विद्यमान
चारित्रिक विशेषतायें
हमें दृष्टिगोचर होने लगती है
उसके द्वारा
पल- पल स्थापित
किये जाने वाले आदर्श
हमें सुखमय एवं एक सुनियोजित
व संकल्पित जीवन
जीने को प्रेरित करते हैं
इनकी युवावस्था
हमें राम के आदर्शों ,
विवेकानंद जैसे समर्पित विचारों
कृष्ण के से धार्मिक उद्गारों
रामकृष्ण परमहंस जैसे भक्तिपूर्ण
संस्कारों का संस्मरण कराते हैं
ऐसी विलक्षण शक्तियां ,
ऐसी शक्तिपुंज आत्मायें
हर- पल हर- क्षण
हमें किसी न किसी रूप में
कुछ न कुछ सन्देश अवश्य देती हैं
उनके विचारों में
उनके मौन में
उनकी हर क्षण हो रही क्रियाओं में
कुछ न कुछ व कोई न कोई
सन्देश अवश्य होता है
जीवन का अन्तकाल
इनके स्वयं के सुकर्मों के
माध्यम से अर्जित ऊर्जा व शक्तिपुंज
जिसके सहारे ही
ये हमारे बीच
चिरकाल तक जीवित व अमर रहते हैं
इन्हें हम भगवान् कहते हैं
इन्हें हम खुदा कहते हैं
इन्हें हम सच्चे बादशाह कहते हैं
इन्हें हम जीसस क्राइस्ट कहते हैं
इन्हें हम पीर फ़कीर कहते हैं
इन्हें हम आदि शंकराचार्य कहते हैं
पर सच तो यही है
कि ये विलक्षण मानव है
ये वे असाधारण मानव हैं जो
समाज में व्याप्त
अँधेरे , कुरीतियों , बुराइयों
पर सच का मलहम लगा
उस पर धर्म व भक्ति का
चोला चढ़ा
सत्कर्म को प्रेरित करते हैं
ये साधारणमानव को
असाधारण मानव व आदर्शपूर्ण
मानव में बदलने के लिए ही
अवतरित होते हैं
ऐसी पुण्यमूर्ति परमात्म विभूतियों को प्रणाम है
इन परम पूज्य विभूतियों का अभिनन्दन है
सत्य पर कविता
सत्य की बातें करो तुम
सत्य जीता हर सदी में
सत्य खोज एक जटिल विषय
मांगता अनगिनत परीक्षण
सत्य प्राप्ति के चरण में
सत्य पढ़ो तुम सत्य गुनो तुम
सत्य देखो सत्य बुनो तुम
सत्य नहीं परिकल्पना
सत्य अवलोकन सत्य राह पर
सत्य राह निर्मित करो तुम
आँधियों से मत डरो तुम
डगमगाना छोडकर
सत्य का पीछा करो तुम
सत्य मन का अमिट बिंदु
गढ़ सको तो गढो तुम
जियो सत्य में मरो सत्य में
सत्य चहुँ और व्याप्त
आत्मा परमात्मा में
प्राप्त कर
जीवन बनो तुम
सत्य जीता हर सदी में
सत्य की बातें करो तुम
प्रकृति
सोचता हूँ
प्रकृति कितनी महान है
जहां
पंखुड़ियों का खिलना
प्रातः काल मे जीवन के
पुष्पित होने का
आभास देता है
पेड़ों पर पुष्पों का खिलना
हमारे चारों और
शुभ का संकेत देता है
पुष्प का फल मे परिवर्तित होना
हमारे आसपास किसी नए मेहमान के
आने का प्रतीक है
सोचता हूँ हवाओं से
पेड़ों का बार-बार हिलना
झुकना और फिर खड़े हो जाना
किस बात की और
संकेत देता है
निष्कर्ष से जाना कि
ये हवाएं जिंदगी के थपेड़ों का निष्कर्ष है
मुसीबतें हैं
घटनाएं हैं
जो हमें
समय समय पर आकर
जीवन को मुश्किलों मे भी डटकर
कठिनाइयों का सामना कर
नवीन अनुभव देकर
जीवन को पुष्पित करती है
एक बात जो मुझे कचोट जाती है
टीस देती है वह है
पेड़ों से फलों का टूटकर गिरना
जो जिंदगी के अंतिम सत्य
कि और इशारा करता है
और कहता है
जीवन यहीं तक है और इसके बाद
पुनः नया जीवन
चूंकि
जब फल बीज
बारिश का आश्रय पाकर
पुनः अंकुरित होंगे
और पुनः एक नवीन पोधे
का निर्माण होगा
यह जीवन चक्र यूँ ही चलता रहेगा
हर छण हर युग
आने वाली पीढ़ी
को पुष्पित करता रहेगा
मेरी कलम से पूछो
मेरी कलम से पूछो
कितने दर्द समाये हुए है
मेरी कलम से पूछो
आंसुओं में नहाये हुए है
जब भी दर्द का समंदर देखती है
रो पड़ती है
सिसकती साँसों से होता है जब इसका परिचय
सिसक उठती है
ऋषिगंगा की बाढ़ की लहरों में तड़पती जिंदगियां देख
रुदन से भर उठती है
मेरी कलम से पूछो
कितनी अकाल मृत्युओं का दर्द समाये हुए है
वो कली से फूल में बदल भी न पाई थी
रौंद दी गयी
मेरी कलम से पूछो
उसकी चीखों के समंदर में डूबी हुई है
मंजिल
एक संकरी
गले में
कठिन रास्ते पर
आगे बढ़ता हुआ
अँधेरे में
उजाले को टटोलता
मंजिल पाने की चाह में
बढ़ता जा रहा हूँ मैं
दृढ़ इच्छा शक्ति
मुझे
आगे की ओर
बढ़ने को
प्रेरित करती है
मुझे सफल होना ही है
ये विचार
मुझे बल देते हैं
ऊर्जा देते हैं
मैं वीर्यवान , शक्तिमान
के साथ – साथ
ज्ञानवान बन
देदीप्यमान बन
अग्रसर हो
पथ पर
बढ़ता जा रहा हूँ
समय पर
कुछ न छोड़
समय को
स्वर्णिम अवसर में
परिवर्तित करने को उत्सुक
बिना विचलित हुए
इतिहास
रचने की ओर
अग्रसर हो रहा हूँ मैं
ध्रुव नहीं मैं
किंचित उसकी ही तरह
उस आसमां पर
चमकने की चाह में
सफलता की सीढियां
चढ़ने की
कोशिश में
आगे बढ़ रहा हूँ मैं
तुम भी
अपने प्रयास से
गढ़ सको तो
गढो इतिहास
बना दो
इस धरा को
प्रकाशवान
मुक्त कर
नभाक से
फैला चांदनी
इस धरा को
जीवनदायिनी
बना दो
कुछ पुष्प खिला दो
कुछ रंग भर दो
चहुँ ओर
प्रेममय शांति कर दो
प्रेममय शांति कर दो
प्रेममय शांति कर दो
अजब पैसों की खुमारी है सर पर
अजब पैसों की खुमारी है सर पर
कहीं बहुमंजिला इमारत की खुमारी है सर पर
तार – तार हो रहे हैं रिश्ते
कहीं अहं को खुमारी है सर पर
क्यूं कर नहीं निभाते नहीं हैं वो रिश्ते
विदेशों में बसने की खुमारी है सर पर
भाई ने भाई का सर दिया है फोड़
जायदाद के लालच की खुमारी है सर पर
बहनों को पराया कर दिया है उन्होंने
जायदाद लूट खाने की खुमारी है सर पर
माँ – बाप वृद्धाश्रमों की ख़ाक छानते हैं
आजाद जिन्दगी की खुमारी है सर पर
सिसकती साँसों के दर्द से कुछ लेना नहीं है इनका
अजब बिंदास जिन्दगी की खुमारी है सर पर
पैसों की गर्मी सर चढ़ बोलती है
रिश्तों को तोलने की खुमारी है सर पर
सत्य पथ अब पथ विहीन क्यों ?
सत्य पथ अब
पथ विहीन क्यों ?
सत्य राह
चंचल हुई क्यों
सत्यमार्ग
सूझता नहीं क्यों
असत्य सत्य पर
भारी है क्यों ?
कर्म धरा अब
चरित्र विहीन महसूस हो रही
शोर्टकट लगता
अब प्यारा क्यों ?
कर्महीन महसूस होता
हर एक चरित्र क्यों ?
नारी अपनी व्यथा पर
समाज में
रोती है क्यों ?
पुरुष समाज में
अपनी छवि
खोता सा
दिखता है क्यों
धर्म पथ पर
काम पथ का
प्रभाव पड़ता सा
दिखता है क्यों ?
शर्मिंदगी की घबराहट
अब अनैतिक
चरित्रों के चहरे पर
झलकती नहीं है क्यों ?
धर्म्कांड व कर्मकांड
के नाम पर
परदे के पीछे
काम काण्ड की
महिमा गति
पकड़ रही है क्यों ?
फूलों में अब
पहली सी
खुशबू रही नहीं है क्यों ?
उलझा – उलझा
परेशान सा
हर एक चरित्र
महसूस
हो रहा है क्यों ?
मानवता
गली – गली
आज शर्मशार
हो रही है क्यों ?
आज नारी
हर दूसरे चौक पर
बलात्कार का शिकार
हो रही है क्यों ?
युवा पीढ़ी
आज की
पथभ्रष्ट
हो रही है क्यों ?
समाज में
आज
वृद्ध आश्रमों की
संख्या में
बढ़ोत्तरी
हो रही है क्यों ?
पल –पल होती लूट
और हत्याओं की
घटनाओं से
मानव रूबरू हो
रहा है क्यों ?
आज प्रकृति
अपने विकराल
रूप में
हमारे सामने
आ खड़ी हुई है क्यों ?
सुनामी – कैटरीना
भूकंप , ज्वालामुखी
के शिकार
मानव हो रहे है क्यों ?
वर्तमान सभ्यता
आज
अपने अंत के
द्वार पर खड़ी हुई है क्यों ?
द्वार पर खड़ी हुई है क्यों ?
द्वार पर खड़ी हुई है क्यों ?
अपनी कलम को न विश्राम दो
अपनी कलम को न विश्राम दो
कुछ और नए पैगाम दो
सोये हुओं को नींद से जगाओ
चिंतन को न विश्राम दो
सपनों को कलम से सींचो
मंजिलों का पैगाम दो
भटक गए हैं जो दिशा से
उन्हें सत्मार्ग का पैगाम दो
जो चिरनिद्रा में लीन हैं
उन्हें सुबह के सूरज का पैगाम दो
दिशाहीन हो गए हैं जो
उन्हें सही दिशा का ज्ञान दो
विषयों का कोई अंत नहीं है
कलम से उसे पहचान दो
चीरहरण पर खुलकर लिखो
कुरीतियों पर ध्यान दो
बिखरी – बिखरी साँसों को
एक नया पैगाम दो
जिन्दगी एक नायाब तोहफा
ऐसा कोई पैगाम दो
क्यूं कर टूटे रिश्तों की डोर
सामाजिकता का पैगाम दो
रिश्तों की मर्यादा हो सलामत
ऐसा कुछ पैगाम दो
अपनी कलम को पोषित करो
उत्तम विचारों की पूँजी दो
चीखती बुराइयों पर प्रहार कर
समाज को पैगाम दो
चिंतन का एक सागर हो रोशन
अपनी कलम को इसका भान दो
पीर दिलों की मिटाओ
मुहब्बत का पैगाम दो
प्रकृति पर कविता
सोचता हूँ प्रकृति
कितनी महान है जहां
पंखुड़ियों का खिलना
प्रातः काल में
जीवन के
पुष्पित होने का
आभास होता है
पेड़ों पर पुष्पों का होना
हमारे चारों ओर
शुभ का संकेत होता है
पुष्प का फल में
परिवर्तित होना
हमारे आसपास
किसी नए मेहमान के
आने का प्रतीक है
सोचता हूँ
हवाओं से
पेड़ों का बार बार
हिलना, झुकना
और फिर खड़े हो जाना
किस बात की ओर
इंगित करते हैं
निष्कर्ष से जाना
कि ये हवायें
जिंदगी के थपेड़े हैं
मुसीबतें हैं, घटनायें हैं
जो हमें समय – समय पर आकर
जीवन को मुश्किलों में भी
डटकर कठिनाइयों
का सामना कर
नवीन अनुभव देकर
जीवन को पुष्पित करती है
एक बात
जो मुझे कचोट जाती है
टीस देती है
वह है पेड़ों पर से
फलों का टूटकर गिरना
जो जिंदगी के
अंतिम सत्य की ओर
इशारा करता है
जीवन यहीं तक है
और इसके बाद
पुनः नया जीवन
चूंकि
जब फल के बीज
बारिश की बूंदों
का आश्रय पाकर
पुनः अंकुरित होंगे
और पुनः एक
नवीन पौध का
निर्माण होगा
यह जीवन चक्र
यूं ही चलता रहेगा
हर क्षण हर युग
आने वाली पीढ़ी को
पुष्पित करता रहेगा
अंतिम लक्ष्य अकेले पाना
अंतिम लक्ष्य, अकेले पाना
अन्धकार से, डर ना जाना।
अविकार, अशंक बढ़ो तुम
अविवेक का, त्याग करो तुम।
अविनाशी, अविराम बढ़ो तुम
कर अचंभित, राह गढ़ों तुम।
आमोदित, आयास करो तुम
निरंतर, प्रयास करो तुम।
आस्तिक बन, आराधना करो तुम
शोभनीय कुछ, काम करो तुम।
अभिलाषा न, ध्यान धरो तुम
अप्रिय से नाता न जोड़ो।
बन अनमोल, कुछ नाम करो तुम
अन्यायी का साथ न देना।
अनुचित शब्दों का साथ न लेना
अनमोल, अशोक बनो तुम।
अर्चना, अशुभ से पल्ला झाड़ो
शुभ , शांत व्यवहार करो तुम।
अक्षय बन, अच्छाई करो तुम
अवसान का, ध्यान धरो तुम।
अपजय से, दूर रहो तुम
अंजुली अमृत, पान करो तुम।
अंतर जगा, आरोह करो तुम
शुभ संकेत, जीवन धरो तुम।
जीवन का, आधार बनो तुम
सत्य राह, निर्मित करो तुम।
अंतिम लक्ष्य, अकेले पाना
अन्धकार से, डर ना जाना।
अविकार, अशंक बढ़ो तुम
अविवेक का, त्याग करो तुम।
जाग मुसाफिर
जाग मुसाफिर सोच रहा क्या
जीवन एक राही के जैसा
कहीं शाम तो कभी सवेरा
कहीं छाँव तो धूप कहीं है
बिखरा-बिखरा सा सबका जीवन
चलते रहना चलते रहना
रुक ना जाना आगे बढ़ना
जाग मुसाफिर सोच रहा क्या
राह कठिन हो भी जाए तो
हौसले का दामन पकड़ना
चीर कर मौजों की हवाओं को
तुझे है मंजिल पार जाना
रुकना तुझे नहीं है
न ही तुझे है घबराना
चलना तेरी नियति है
रुकना है तुझको मंजिल पर
कभी गर्म हवाओं से लड़कर
कभी सर्द का कर सामना
आएगी बाधाएं रोड़ा बनकर
पीछे मुड़ कभी न देखना
जाग मुसाफिर सोच रहा क्या
जीवन एक राही के जैसा
कभी शाम तो कहीं सवेरा
राह में पल – पल ठोकर होंगी
पैरों के छाले बन नासूर सतायेंगे
चूर- चूर होगा तेरा तन
मन भी तेरा साथ न देगा
रात की काली छाया भारी
करेगी इरादों को पस्त
फिर भी तुझको रुकना न होगा
मस्त चाल से बढ़ना होगा
जाग मुसाफिर सोच रहा क्या
जीवन एक राही के जैसा
कहीं शाम तो कहीं सवेरा
कहीं शाम तो कहीं सवेरा