Category: दिन विशेष कविता

  • सरसी छंद में कैसे लिखें

    सरसी छंद को समझने से पहले आइए हम छंद विधान को समझते हैं । अक्षरों की संख्या और क्रम , मात्रा, गणना और यति गति से संबंद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्य रचना को छंद की संज्ञा दी गई है।

    मात्रिक छंद की परिभाषा

    छंद के भेद में ऐसा छंद जो मात्रा की गणना पर आधारित रहता है, उसे मात्रिक छंद कहा जाता है । जिन छंदों में मात्राओं की समानता के नियम का पालन किया जाता है किंतु वर्णों की समानता पर ध्यान नहीं दिया जाता। उसे मात्रिक छंद कहा जाता है।

    सरसी छंद की जानकारी

    सरसी छंद भी मात्रिक छंद का एक भेद है। इसके प्रत्येक चरण में 27 मात्राएं होती हैं और 16 -11 मात्रा पर यति होती है । अंत में एक गुरु और एक लघु आता है ।

    उदाहरण के लिए ,

    नीरव तारागण करते थे, झिलमिल अल्प प्रकाश।

    इसके अतिरिक्त आज के कवियों के द्वारा रचित कुछ सरसी छंद के उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं आप इन्हें पढ़कर इस विधा के बारे में और अधिक जानकारी पा सकते हैं।

    सरसी छंद में कविता :

    पेड़ लगाओ-महेंद्र देवांगन माटी

    आओ मिलकर पेड़ लगायें, सबको मिलेगी छाँव ।
    हरी-भरी हो जाये धरती,  मस्त दिखेगा गाँव ।।1।।

    पेड़ों से मिलती हैं लकड़ी , सबके आती काम ।
    जो बोते हैं बीज उसी का, चलता हरदम नाम ।।2।।

    सुबह शाम तुम पानी डालो , इतना कर उपकार ।
    गाय बैल से उसे बचाओ , बनकर पहरेदार ।।3।।

    आओ मिलकर पेड़ लगायें,  सबको मिलेगी  छाँव ।
    हरी-भरी हो जाये धरती, मस्त दिखेगा गाँव ।। 4।।

    -महेंद्र देवांगन माटी

  • जीवन बीमा निगम स्‍थापना दिवस कविता | LIC foundation day special poem

    LIC foundation day special poem

    आओ प्यारे साथ हमारे,
    जनसेवा हित सांझ सकारेl

    सम्यक संचय और निवेशन
    जन जन का हित संवर्धन,
    निगम नीति का उच्च लक्ष्य है,
    व्यक्ति और परिवारोंत्थान ।

    लोक हितैषी सेवा दीक्षा,
    जन मन प्रेरित सतत सुरक्षा,
    योगक्षेमं ही परम ध्येय है,
    निगम हमारा प्रिय संस्थान।

    उठो निगम के सच्चे सेवक,
    अभिकर्ता जन और प्रबंधक,
    बुला रहे हैं ,कार्य लोकहित ,
    तुम पर निर्भर जनकल्याण।

    आओ प्यारे साथ हमारे,
    जनसेवा हित सांझ सकारे।।

    संकलित

  • पिता पर कविता (Pita Par Kavita)

    फादर्स डे पिताओं के सम्मान में एक व्यापक रूप से मनाया जाने वाला पर्व हैं जिसमे पितृत्व (फादरहुड), पितृत्व-बंधन तथा समाज में पिताओं के प्रभाव को समारोह पूर्वक मनाया जाता है। अनेक देशों में इसे जून के तीसरे रविवार, तथा बाकी देशों में अन्य दिन मनाया जाता है। यह माता के सम्मान हेतु मनाये जाने वाले मदर्स डे (मातृ-दिवस) का पूरक है।

    पिता पर कविता (Pita Par Kavita)

    पिता पर कविता (Pita Par Kavita) :

    मैं साथ हूं हमेशा तेरे ( पिता पर कविता)

    हमारी और हमारे पापा की कहानी ।
    आसमान सा विस्तार ,सागर सा गहरा पानी।

    जब जन्म पायी इस धरा पर , वो पल मुझे याद नहीं।
    मां कहती है बेटा तेरे पापा के लिए,इससे बड़ी खुशी की कोई बात नहीं।।

    मां की मैं लाडली गुड़िया, पापा तेरी परी लाडली बिटिया रानी हूं।
    कहते हो मुझसे आके जो ,मैं तो तुम्हारी अनकही एक अनोखी कहानी हूं।।

    एक वक्त था पापा मैंने जब, समझा ना था तुम्हारे प्यार को।
    गुस्से में हमेशा छिपा लेते थे, जाने क्यों अपने दुलार को ।।

    सोचती थी आजादी ना दी, ना करते मुझ पर भरोसा हो।
    एक पल के लिए भी ना करते तन्हा मुझे,जैसे फिक्र ही अपना मुझ पर परोसा हो।।

    कुछ पल की भी जो दूरी होती थी, स्कूल से मुझको घर आने में।
    फिक्र इतनी जो करते हो तुम, और कौन कर सकेगा इतना सारे जमाने में।।

    मेरी मांगों को कर देते हो नज़र अंदाज़ , ऐसा भी कभी मैंने सोचा था।
    माफ करना पापा मेरे , उस वक्त तेरे प्यार को ना मैंने देखा था ।।

    बंद कमरों में मुझको, पिंजरे सा जीवन महसूस होता था।
    अनजान थी तब मैं पापा मेरे, तुमको फिक्र मेरी कितना सताता था।।

    पढ़ायी के लिए मेरी जो तुम, सारा दिन धूप धूप में भी फिरते थे।
    रुक ना जाए कहीं पढ़ायी मेरी , सोच के भी कितना डरते थे।।

    मेरी पढ़ायी के लिए मुझसे भी ज्यादा, तुम ही सक्रिय रहते हो।
    बेटा पढ़ लिख करो अपना हर सपना पूरा , मैं साथ हूं हमेशा तेरे मुझसे कहते हो।।

    आसमान सा हृदय तुम्हारा, मन सागर से भी गहरा है।
    शब्द कहां से जोडूं तुम्हारे लिए, भगवान से भी प्यारा तेरा चेहरा है।।

    बात स्वास्थ पर जब मेरी आती है, छींक से भी मेरी तुम कितना घबरा जाते हो।
    बीमार जो कभी थोड़ी हो जाती , थामे हाथ मेरा साथ ही रह जाते हो।।

    आज समझ में आ गया, एक पिता खुले आसमान सा होता है।
    शब्द इतने कहां मेरी लेखनी में , कि बता सकूं एक पिता कैसा होता है।।

    सब कुछ जानता ,सब कुछ समझता ,पर किसी से कुछ ना कहता है।
    समर्पित उसका सारा जीवन , अपने बच्चों पर ही रहता है।।

    एक जलता दीपक है जो खुद जल के ,रोशनी अपने बच्चों के जीवन में भरता है ।
    गहरे समंदर सा हृदय उसका , सारी नादानी हमारी माफ करता है।।

    पिता परम देवता सा महान , पिता एक बलवान , पिता होना भी आसान नहीं।
    श्रृष्टि की कोई अन्य रचना ,होती पिता के समान नहीं।।

    रीता प्रधान

    पिता दिवस पर कविता

    दर्द को भीतर छुपाकर,
    बच्चों संग मुसकाते।
    कभी डाँट फटकार लगाते,
    कभी कभी तुतलाते।

    हँस हँसकर मुँहभोज कराते,
    भूखे रहते हैं फिर भी।
    स्वच्छ जल पीकर सो जाते ,
    गोद में लेकर सिर भी।

    आँधी तूफाँ आये लाखों,
    चाहे सिर पर कितने।
    विशाल वक्ष में समा लेते हैं,
    दर्द हो चाहे जितने।

    बच्चों की खुशियाँ और,
    माँ की बिंदी टीका।
    पड़ने देते किसी मौसम में,
    कभी न इनको फीका।

    पर कुछ पिता ऐसे जो ,
    मानव विष पी जाते।
    बुरी आदतों में आकर ,
    अपनों का गला दबाते।

    माँ की अन्तरपीड़ा और,
    बच्चों की अंतः चीत्कार।
    जो न सुनता है पिता,
    समाज में जीना है धिक्कार।

    माँ तो है सृष्टिकर्ता पर,
    पिता है जीवन का आधार।
    अपनी महिमा बनाये रखना,
    हे! जग के पालनहार।।

    अशोक शर्मा,

    पिता ईश सम हैं दातारी

    पिता ईश सम हैं दातारी।
    कहते कभी नहीं लाचारी।।1

    देना ही बस धर्म पिता का।
    आसन ईश्वर सम माता का।।2

    तरु बरगद सम छाँया देता।
    शीत घाम सब ही हर लेता।।3

    बहा पसीना तन जर्जर कर।
    जीता मरता संतति हितकर।4

    संतति हित ही जनम गँवाता।
    भले जमाने से लड़ जाता।।5

    अम्बर सा समदर्शी रहकर।
    भीषण ताप हवा को  सहकर।।6

    बन्धु सखा गुरुवर का नाता।
    मीत भला सब पिता निभाता।।7

    पीढ़ी दर पीढ़ी खो जाता।
    बालक तभी पिता बन पाता।।8

    धर्म निभाना है कठिनाई।
    पिता धर्म जैसे प्रभुताई।।9

    अम्बर हित जैसा ध्रुव तारा।
    घर हित वैसा पिता हमारा।।10

    जगते देख भोर का तारा।
    पूर्व देखलो पिता हमारा।।11

    सुत के गम में पितु मर जाता।
    राजा दशरथ जग विख्याता।12

    मुगल काल में देखो बाबर।
    मरता स्वयं हुमायुँ बचा कर।।13

    ऋषि दधीचि सा दानी होता।
    यौवन जीवन दोनो खोता।।14

    पिता धर्म निभना अति भारी।
    पाएँ दुख संतति हित गारी।15

    पिता पीत वर्णी हो जाता।
    जब भी सुत हित संकट आता।16

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”

    fathers day पर पिता को क्या तोहफा दे?

    एक पिता का सबसे पढ़ा तोहफा तो उसकी संतान होती है। तो आप कोसिस करे की आप उनकी जो इच्चा है की आप अपने भविष्य को उज्वल बना ले वाही उनका तोहफा होगा।

    एक पिता ली खुशी किस्मे है?

    एक पिता ली खुशी उसके संतानों में होती है आगर उसके संतान खुश है तो वह भी खुश है ।

    कविता बहार की कुछ अन्य शानदार कविताये : जगन्नाथ रथयात्रा पर हिंदी कविता (Jagannath Rathyatra)

    स्त्री पर कविता ( Stree Par Kavita )

    शहीदों पर कविता

  • महिला दिवस पर कविता

    बेखबर स्त्रियां

    स्त्रियों के सौंदर्य का
    अलंकृत भाषा में
    नख से शिख तक मांसल चित्रण किए गए
    श्रृंगार रस में डूबे
    सौंदर्य प्रेमी पुरुषों ने जोर-जोर से तालियां बजाई
    मगर तालियों की अनुगूंज में
    स्त्रियों की चित्कार
    कभी नहीं सुनी गईं

    कविताओं में स्त्रियां
    खूब पढ़ी गई और खूब सुनी गई
    मगर आदि काल से अब तक
    कविताओं से बाहर
    यथार्थ के धरातल पर
    स्त्रियां ना तो पढ़ी गईं और ना ही कभी सुनी गईं

    स्त्रियों पर कई-कई गोष्ठियां हुईं
    स्त्री विमर्श पर चिंतन परक लेख लिखे गए
    स्त्री उत्पीड़न की घटनाओं पर शाब्दिक दुख प्रगट किए गए
    टीवी चैनलों पर बहसें हुईं
    अखबारों पर मोटे मोटे अक्षरों से सुर्खियां लगाई गईं
    स्त्रियां खबरों पर छाई रहीं

    पर घटनाओं से पहले
    और घटनाओं के बाद बेखबर रही स्त्रियां।

    –नरेंद्र कुमार कुलमित्र

    मुझे स्त्री कहो या कविता

    मुझे स्त्री कहो या कविता
    मुझे गढ़ों या ना पढ़ों
    मुझे भाव पढ़ना आता है।
    खुबसूरती का ठप्पा वाह में
    कभी प्रथम पृष्ठ अखबार में
    किसी घर में,
    किसी गुमनामी राह पर।
    लेकिन मैं भी आदत से लाचार हूॅं
    कभी झुक कर उठ जाती हूॅं
    कभी टूट कर जुड़ जाती हूॅं
    मुझे नदी की तरह है जीना
    सीखा है उसी की धार से
    इसी लक्ष्य के साथ
    हर कदम आगे बढ़ती रहती हूॅं।

    अंतर्आत्मा के महल में
    उन्मुक्त गगन में
    शशि,दिनकर की छांव में
    खुद को सिंचते रहती हूॅं।
    अंधेरापन के खड़कने से
    अनायास ही कुछ चटकने से
    हृदय के दरकने से
    कर्णकटु स्वर से
    सहम सी जाती हूॅं
    न जाने क्यूं,
    अपनी अस्मिता को बिन जताएं ही
    एक कदम पीछे खिसक जाती हूॅं।

    पैरों में पायल,
    हाथों में चूड़ियाॅं
    कानों में झुमकी और माथे पर बिंदियाॅं
    पल्लू के साथ कभी छांव, कभी धुप दिखाती
    दर्पण को चेहरे की भाषा समझाती
    स्वप्निल नैनों को मटकाती
    मुस्कुराते हुए मुखड़े को लेकर
    दबे पांव चलकर
    होंठों को सीलकर
    सबकी हुजूम जुटाती
    फिर भी न जाने क्यूॅं
    बड़ी मासुमियत से
    स्त्रियां,न जाने कब
    अपनों से छली जाती है।

    सुबह का चार,संध्या के चार में
    कभी महसूस नहीं होती
    बच्चों को भेजती स्कूल और
    खुद भागती हुई आंफिस,स्त्रियाॅं
    थकान को छोड़ किसी दूकान पर
    पुनः जाती अपने आशियाने में
    खुद को भूलाकर
    कमरधनी की जगह पल्लू को बांधकर
    सहेजती रहती अपने आशियाने के फूल को
    कब तार-तार हो गई जीवन
    कब बह गई पंक्तियां
    फिर,न जाने कब स्त्रियां
    परिस्थितियों के हिसाब में
    अपने ही अंदाज से ठगी सी रह जाती है।

    आज बदल गई है परिस्थितियां
    इस पर हो रहे हैं विमर्श,
    भाषणों में, गढ़ रहे हैं किताबों में
    चल रही है जालसाजी दिमागों में
    कभी भेड़-बकरियों की तरह नोंचे जातें हैं,
    अनकही – अनसुनी बागों में।
    सब कुछ बदल रहा है
    लेकिन नही बदली है नारी की तक़दीर
    क्या पता इस खेमें में आ जाए किसकी तस्वीर
    लेकिन संस्कृतियों के मिठास में
    रह गई हूॅं सिमटकर
    मैं भी चाहती हूॅं जवाब दूॅं झटकाकर
    लेकिन न जाने क्यूं
    रिश्तों की डगमगाहट से
    कॅंप – कॅंपा जाती हूॅं मैं
    लड़खड़ा सी जाती है पंक्तियां
    वास्तव में कब बदलेगी परिस्थितियाॅं
    इसी आस में छलनी हो जाती हूॅं।

    निधी कुमारी

    नारी का सम्मान करो



    लावणी छंद
    वेद ग्रंथ में कहें ऋचाएँ, जड़ चेतन में ध्यान धरो।.
    जननी भगिनी बिटियाँ पत्नी, नारी का सम्मान करो।..

    नारी से नर नारायण हैं, नारी सुखों की खान है।
    प्रसव वेदना की संधारक, नारी कोख़ बलवान है।
    ममता की मूरत है जग में,सुचिता शील वरदान है।
    ज्वाला रूप धरे नारी तब, लागे ग्रहण का भान है।
    गगन बदन भेदन क्षमता है, मुक्त कंठ गुणगान करो…
    जननी भगिनी बिटियाँ पत्नी, नारी का सम्मान करो।…

    सती रूप भी सहज कहाँ था,पुरुष भला क्या सह सकता!
    काल विधुर परिणाम करे तो, चँद बरस नहीं रह सकता।
    दो कुल की संस्कारी सरिता, क्या गंगा सा बह सकते?
    करता और बखान कलम से, बिना शब्द क्या कह सकते?
    श्वेद गार कर बाग सजाती,सह नारी श्रमदान करो…
    जननी भगिनी बिटियाँ पत्नी, नारी का सम्मान करो।…

    अस्थि तोड़ती प्रसव वेदना, अबला ही सह सकती है।
    सफल चरण की नेक कहानी,गृहणी ही कह सकती है।
    कभी अडिग हो चट्टानों सी, कभी नयनजल बहती है।
    विषम घड़ी में ढाल बनें वह, पिय वियोग में जलती है।
    त्याग तपस्या नारी कारण, जीवन का बलिदान करो।
    जननी भगिनी बिटियाँ पत्नी, नारी का सम्मान करो।…

    डॉ ओमकार साहू मृदुल

    अर्धांगिनी

    कहने को तो पत्नी अर्धांगिनी कहलाती है,
    पर कितनी खुशकिस्मत औरतें ये दर्ज़ा पाती हैं।
    घर में रहने वाली औरतें हाउसवाइफ कहलाती हैं,
    वो तो कभी किसी गिनती में ही नहीं आती हैं।

    चाहे ज़माना लाख कहे कि औरतें हैं महान,
    पर घर में रहने वाली औरतों को तो सब समझते हैं बेकार सामान।

    क्या करती रहती हो घर पर?ये उलाहना तो आम है,
    बाहर जाकर काम करने वाली औरतें ही सबकी नज़रों में महान है।

    घर, बच्चों, बड़े-बूढों को संभालना तो सबको मामूली काम लगता है,
    उन्हें बात-बात में नीचा दिखाना अब बड़ा आम लगता है।

    फिल्मों के ज़रिए लोगों को बताना पड़ता है,
    हाउसवाइफ का काम अब लोगों को जताना पड़ता है।

    जिन working women पर महानता का tag लगा है,
    कभी उनसे पूछा कि तेरा हाल क्या है?

    चाहे बाहर हाड़तोड़ मेहनत कर थकी-हारी घर आती है,
    फिर भी घर-गृहस्थी संभालने की ज़िम्मेदारी उसी के ही हिस्से आती है।

    दो पाटों के बीच पिसती रहती है,
    ये औरतें अपने आप में बस घुटती रहती हैं।

    कभी कुछ नहीं कह पाती मुँह से क्या उनकी चाहत है,
    प्यार और सम्मान, बस यही देती उनको राहत है।

    गर ये भी ना दे पाओ तो उसे अर्धांगिनी भी ना कहना,
    ख़ुद के आधे हिस्से को सम्मान और आधे हिस्से को तिरस्कार कभी ना देना।

    क्या हुआ जो पत्नी के सोते तुमने थाली परोस कर खा ली,
    क्या हुआ जो पत्नी किचन में काम कर रही थी,इसलिए शर्ट तुमने खुद निकाली,
    क्या हुआ जो एक ग्लास पानी तुमने खुद लेकर पिया,
    क्या हुआ जो आज तुमने अपना बिस्तर समेटा,


    क्या हुआ जो आज बाज़ार से सामान लाना पड़ा,
    क्या हुआ जो आज दाल में तेज नमक खाना पड़ा,
    क्या हुआ जो कभी समय पर चाय नहीं मिली,
    क्या हुआ जो आज की फरमाइश आज पूरी नहीं हुई।

    जो अपना पूरा जीवन adjust करके निकाल देती है,
    जो अपनी पसंद-नापसंद भी बिसार देती है,
    जो कभी-कभी बिन बात के भी गुस्सा हो जाती है,
    जो कभी रूठ जाती है,कभी चिड़चिड़ाती है।


    वो सिर्फ तुम्हारा ध्यान पाना चाहती है,
    कुछ बातें गुस्से में बताकर तुम्हें सिखाना चाहती है।
    क्योंकि वह जानती है कि जिन बातों पर उसे गुस्सा आता है,
    उसके जाने के बाद उन आदतों में प्यार जताकर देखने वाला और कोई नहीं होता है।

    ये पति-पत्नी दोनों जीवन गाड़ी के हैं दो पहिये,
    ये बात सौ प्रतिशत सही है,इसे झूठी ना कहिये।

    लड़खड़ा जाएगी ये गाड़ी गर औरत साथ ना देगी,
    जितना सम्मान देती है, ये उतना सम्मान भी चाहेगी।

    गर खिलखिलाते चेहरे पर चुप की चुप्पी छा जाएगी,
    तो ना होली पर ना दिवाली पर घर में रौनक नज़र आएगी।

    गर सच्चे दिल से औरत को समानता का दर्ज़ा देते हो,
    घर को उनकी ज़रूरत है, ये सच्चे दिल से कहते हो,
    तो बस प्यार और सम्मान से उन्हें सींचते रहिएगा,
    चाहे housewife हो या working wonen,

    उन्हें अपनेपन का साथ देते रहियेगा।
    जैसे खूबसूरती दिखाने वाला आईना भी टूटकर
    एक चेहरे को हज़ार चेहरों में बिखेर देता है,
    उस तरह से औरत के आत्मसम्मान को टूटकर कभी बिखरने ना दीजियेगा।

    श्रीमती किरण अवधेश गुप्ता

    हाँ मैं नारी हूँ

    मैं ही तुमको जीवन देती हूँ लेकिन अपना नाम नहीं देती हूँ।
    लेकिन तुम यह नहीं जानते हो कि मैं ही इस संसार की रचना करती हूँ।।


    ‘‘हाँ मैं नारी हूँ, मैं चेहरे की हवाईयाँ ही नहीं, आज मैं हवाई जहाज भी उड़ाती हूँ’’
    तुम इस संसार में मुझे बस सुनाते हैं, फिर भी मैं कुछ नहीं कहती हँू।
    लेकिन तुम यह नहंी जानते हो कि मैं सब कुछ समझती हूँ।।
    ‘‘हाँ मैं नारी हूँ, मैं चेहरे की हवाईयाँ ही नहीं, आज मैं हवाई जहाज भी उड़ाती हूँ’’


    तुम मुझे बुरा भला कहते हो तो भी मैं तुम्हारे सामने जवाब नहीं देती हूँ।
    लेकिन तुम यह नहीं जानते हो कि मैंने अपने पति के जीवन को यमराज से भी छुडा़या है।।
    ‘‘हाँ मैं नारी हूँ, मैं चेहरे की हवाईयाँ ही नहीं, आज मैं हवाई जहाज भी उड़ाती हूँ’’
    तुम मुझे रोज ताने मारते हो तो भी मैं तुम्हारे साथ ही रहती हँू।
    लेकिन तुम यह नहीं जानते हो कि मैंने एक बार अपने प्रेम की खातिर जहर को भी पी लिया है।।


    ‘‘हाँ मैं नारी हूँ, मैं चेहरे की हवाईयाँ ही नहीं, आज मैं हवाई जहाज भी उड़ाती हूँ’’
    तुम मुझे कमजोर समझते हो लेकिन मुझे मेरे ईश्वर ने सहनशक्ति दी है।
    लेकिन तुम यह नहीं जानते हो कि मैंने एक बार अपने राज्य की खातिर

    अपने बच्चे को पीठ पर बाँधकर अग्रेजोें को धूल चटायी है।।
    ‘‘हाँ मैं नारी हूँ, मैं चेहरे की हवाईयाँ ही नहीं, आज मैं हवाई जहाज भी उड़ाती हूँ’’
    तुम मुझे रोजाना अपने पिंजरे में कैद करने की कहते हो।
    लेकिन तुम यह नहीं जानते हो कि मैं चाँद पर भी होकर आयी हूँ।।


    ‘‘हाँ मैं नारी हूँ, मैं चेहरे की हवाईयाँ ही नहीं, आज मैं हवाई जहाज भी उड़ाती हूँ’’
    तुम मुझे नारी समझते हो लेकिन मैं नारी नहीं नारायणी हूँ।
    लेकिन तुम यह नहीं जानते हो कि मैं ही तेरी रचयिता हँू।।


    ‘‘हाँ मैं नारी हूँ, मैं चेहरे की हवाईयाँ ही नहीं, आज मैं हवाई जहाज भी उड़ाती हूँ’’
    तुम मुझे कार्य करने की मशीन समझते हो फिर भी मैं तेरे सुख दुख में साथ देती हँू।
    लेकिन तुम यह नहीं जानते हो कि इस दुनिया को मैं ही चलाती हँू।।


    ‘‘हाँ मैं नारी हूँ, मैं चेहरे की हवाईयाँ ही नहीं, आज मैं हवाई जहाज भी उड़ाती हूँ’’
    तुम मेरे चरित्र पर सवाल उठाते रहे मैं केवल परीक्षा देती रही।
    लेकिन तुम यह नहीं जानते हो कि मैंने अपने पति के वचन की खातिर चैदह वर्ष वनवास किया है।।
    ‘‘हाँ मैं नारी हूँ, मैं चेहरे की हवाईयाँ ही नहीं, आज मैं हवाई जहाज भी उड़ाती हूँ’’


    तुम मेरी हर समय तपस्या लेते रहे तो भी मैं देती रही।
    लेकिन तुम यह नहीं जानते हो कि जरूरत पड़ने पर मैं पत्थर की अहिल्या भी बन गयी।।
    ‘‘हाँ मैं नारी हूँ, मैं चेहरे की हवाईयाँ ही नहीं, आज मैं हवाई जहाज भी उड़ाती हूँ’’

    धर्मेन्द्र वर्मा (लेखक एवं कवि)

    इंसान के रूप मे जानवर

    क्यों ,जानवर इंसानियत को इतना शर्मसार कर रहा है
    वो जानकर भी कि ये गलत है फिर भी गलती बार-बार कर रहा है
    वो कुछ इस तरह से लिप्त हो रहे दरिंदगी मे मानो
    दरिंदगी के लिए ही पैदा हुआ हो सो हजार बार कर रहा है.
    मर चुका है इंसान उसका राक्षस को संजोए हुए हैं
    अंजाम की परवाह नहीं मौत का कफ़न ओढ़े हुए हैं
    वो बहन बेटी की इज्ज़त से आज खुलेआम खेल रहा है
    चीख रही निर्भया कितने उसे दर्द मे धकेल रहा है

    क्यों, जानवर इंसानियत को इतना शर्मसार कर रहा है.
    उसके कृत्य को थू-थू सारा ही संसार कर रहा है
    जिस देश मे जल -पत्थर भी पूजे जाते हैं
    यहां संस्कृति है ऐसी नारी भी देवी कहे जाते हैं
    फिर क्यों, इंसान इतना शैतान होता जा रहा है
    छेड़खानी-बालात्कारी हर दिन छपता जा रहा है
    हमारे संस्कार को धूमिल वो हर बार कर रहा है
    क्यों, जानवर इंसानियत को इतना शर्मसार कर रहा है.

    आनंद कुमार, बिहार

    तुझको क्या लगता है

    नारी शक्ति (महिला जागृति)

    सैलाब को समेटे खुद में
    वो शीतल मंद नदी से बहती है
    और तुझको क्या लगता है नारी शक्तिहीन होती है।

    मान सम्मान परंपराओं के आवरण में
    वो खुद की क्षमताओं की सीमाओं को बांधे रखती है
    और तुझको क्या लगता है नारी शक्तिहीन होती है।

    जागृत ज्वाला प्रचंड है वो
    पर स्वभाव ठंडी गंगाजल सी रखती हैं
    और तुझको क्या लगता है नारी शक्तिहीन होती हैं।

    कौन जंजीरों में बांध सका है उसको
    वो प्रेम वशीभूत अपना सब कुछ समर्पण करती है
    और तुझको क्या लगता है नारी शक्तिहीन होती है।

    कि कैसे आवाहन करूं मैं नारी कि जागृति का
    वो जागृत देवी स्वरूपा हर रूप में बसती है
    और तुझको क्या लगता है नारी शक्तिहीन होती है।

    प्रांशु गुप्ता

    लगता है मेरी अस्थियो को फिकँवाने चले है

    दरिंदो ने दरिंदगी निभा ही दी,
    फरिश्ते अब मेरी मौत के बाद मदद की दुहार लगाने लगे है।
    मेरे माँ-बाप को गले से लगाने चले है,
    लगता है मेरी अस्थियो को फिकँवाने चले है।
    काश! काश!
    बालात्कार कर छोड़ गई बेटी,
    आसमाँ में परिंदो सा उड़ पाती।
    मुस्कुराहट पर हक है उसका ,
    ये बात दुनिया मुसकुराकर कह जाती।
    हाँ, तब वो जिंदा होती।।
    उसे कोई गले से लगाने वाला तो होता ,
    उसके लिए लड़ जाने वाला तो होता ।
    मरकर भी जिंदा हो जाती,
    उसकी लाश को सहलाने वाला तो कोई होता।।
    कह दो अपने सभापति से
    अगली सभा थोड़ी पहले बुलाये,
    कम से कम मन जिंदा तो होगा लड़ जाने के लिए।
    माँ-बाप के पास लाश तो होगी जलाने के लिए।।
    जिंदा रहने की चाहत मर-सी गई होगी,
    कैसे जीऊँगी ये सोच वो डर-सी गई होगी,
    शायद तब उसकी रूह उससे बिछड़-सी गई होगी।।
    मौत की वजह दरिंदे है,
    पर जिंदा रहने की चाहत क्यों मरी उसकी वजह ???

    नाम-पायल

    नारी तुम हो नदी की धारा

    तुमसे ही है जीवन सारा,
    तुम ही हो शक्ति,
    तुम ही हो भक्ति,
    पुरातन से लेकर नूतन तक ,
    तुमने ही यह दुनिया सवारी,
    इतने जुल्म  सहकर,
    कुरीतियो  का ज़हर पीकर,
    पहाड़ जैसी मुसीबत झेलकर भी,
    अपने मार्ग से न डगमगाई,
    और ओढ़ी सफलता की रजाई ।                  


     कभी लक्ष्मी बाई बनकर,
    अंग्रेजों को धूल चटाई।
     तो कभी  इंदिरा गाँधी बनकर,
     देश हित  सरकार  बनाई।
    कभी  सावित्री  फुले  बनकर
    कुरीतियो के ख़िलाफ़ आवाज़  उठाई।


    कभी  कल्पना  चावला  बनके,
    चाँद  तक पहुँचने  की राह  बताई।
    कभी किरण बेदी बनकर,
    चोरो  की  करी  धुलाई।
    तो कभी  लेखिका  बनकर,
    कलम  की ताकत  बताई।


    कभी  पी वी सिंधु  बनके,
    ओलिंपिक मैं गाड़  दिए  झंडे।
    कभी  मैरीकॉम  बनके,
    दिखाई  मुक्केबाज़ी की कला।        
    तो कभी श्वेता सिंह बनके,
    सारे  जहाँ  की  खबर  सुनाई।

    हर रूप  में  तुम हो  आई,
    जिसमे  यह  दुनिया समाई     ।                          

    तुम ही  हो  तिरंगे की शान,
    तुमसे ही है देश का मान,
    तुमसे ही है देश का मान….।।

    यक्षिता जैन , रतलाम मध्य प्रदेश

    तू नारी है तू शक्ति है

    “भारत की शान हो,
    हम सबकी अभिमान हो!
    स्वर्णिम इतिहास के लिए,
    देश की गौरव गान हो!!”

    “खुशियों का संसार हो,
    जीवन का आधार हो !
    प्रेम की शुरुआत हो,
    जीवन का आगाज हो!!”

    “माता का मान हो,
    पिता का सम्मान हो!
    पति की इज्जत हो,
    रिश्तो का शान हो!!”

    “जीवन की छाया हो,
    मोहभरी माया हो!
    जीवन को परिभाषित,
    करने वाली निबंध हो!!”

    “स्नेह,प्रेम,ममता,का भंडार हो,
    आज बनी युग की निर्माता हो!
    नारी तुम स्वतंत्र हो,
    जीवन धन यंत्र हो!!”

    कृष्णा चौहान

    नारी तू ही शक्ति है

    नारी तू कमजोर नहीं, तुझमें अलोकिक शक्ति है,
    भूमण्डल पर तुमसे ही, जीवों की होती उत्पत्ति है।
    प्रकृति की अनमोल मूरत, तू देवी जैसी लगती है,
    परिवार तुझी से है नारी, तू दिलमें ममता रखती है।।

    म से “ममता”, हि से “हिम्मत” ला से तू “लावा” है,
    महिला का इतिहास भी, हिम्मत बढ़ाने वाला है।
    ठान ले तो पर्वत हिला दे, विश्वास नहीं ये दावा है,
    हिम्मत करे तो दरिंदों की, जान का भी लाला है।।

    याद कर अहिल्याबाई, रानी दुर्गावती भी नारी थी,
    दुश्मन को छकाने वाली, लक्ष्मी बाई भी नारी थी।
    शीशकाट भिजवाने वाली, हाड़ीरानी भी नारी थी,
    सरोजिनी नायडू, रानी रुद्रम्मा देवी भी नारी थी।।

    वहशी हैवानों की नजरों में, रिश्ते ना कोई नाते है,
    मां, बहन, बेटियों से भी, विश्वासघात कर जाते हैं।
    मौका मिले तो वहशी गिद्ध नोच नोच खा जाते हैं,
    सबूत के अभाव में दरिंदे, सज़ा से भी बच जाते हैं।।

    तू ही काली, तू ही दुर्गा, तू ही मां जगदम्बा है,
    खड़्ग उठाले उस पर तू, जो मानवता ही खोता है।
    निर्बल समझे जो तुझको, पालता मन में धोखा है,
    सबक सिखादे वहशियों को, समझते जो “मौक़ा” है।।

    आम आदमी समीक्षा और चर्चा कर दूर हो जाते हैं,
    पीड़ित नारी “अपनी नहीं”, इसी से संतुष्ट हो जाते हैं।
    घटना घटने के बाद बहना, सब सहानुभूति जताते हैं,
    जिम्मेदार, संभ्रांत व्यक्तियों के, वक्तव्य छप जाते हैं।

    अब नारी तू ही हिम्मत करले, शक्तियों को जगाले तू,
    अपने मुंह को ढकने वाले, पल्लू को कफ़न बनाले तू।
    इज्ज़त पे जो भी हाथ डाले, उसी को सबक सिखादे तू,
    आंखों से खूनी आंसू पोंछ, गुस्से को हथियार बनाले तू।

    है बेमिसाल नारी

               कहते है इसे नारी
               है विश्वास से भरी |

               शक्ति की मिसाल
              रखती सबका ख्याल |

                 है समझ से परे
                काल भी इससे डरे |
            
                 आँसुओ की गागर
                 पर करे नहीं उजागर |

           है अनोखी ये ममता की देवी
              है निशब्द जगत हर कवि |

                  जीवन की रचयिता
                 हर स्थिति की विजेता |

       है ज़रा सी प्यार की भूखी
       ना करो उसे दुखी |

      लगन से उसका जतन कर
      वो संवारे स्वर्ग जैसा तुम्हारा घर|  

    रिंकू सेन

    महिलाओं का जागृत होना जरूरी है

    पंडित जवाहर लाल जी कह गए,
    लोगों को जगाने के लिए,
    महिलाओं का जागृत होना जरूरी है.
    महिलाओं का जागृत होना जरूरी है.

    घर परिवार की जिम्मेदारी हंस कर उठा लेती है
    किसी से कुछ ना कहती अपने दुख सारे सह लेती है.
    जानती है वह अच्छे से खुद को मजबूत बनाना जरूरी है.
    महिलाओं का जागृत होना जरूरी है.

    पिता के घर की बिटिया रानी भाई बहनों की मां बन जाती है.
    ससुरजी के घर की लक्ष्मी होती पत्नी स्वरूप में पति की जां बन जाती है.
    जानती है वह अपना कर्तव्य निभाना जरूरी है.
    महिलाओं का जागृत होना जरूरी है.

    श्रृष्टि की रचना भी एक महिला आदि भवानी मां ने की है.
    महिलाओं को मां के रूप में देवी मां की उपमा दी है.
    इस संसार में महिलाओं का होना जरूरी है.
    महिलाओं का जागृत होना जरूरी है.

    एक बार जो नारी कदम उठाती है.
    अपने परिवार गांव को आगे बढ़ाती है.
    उसका शिक्षित भी होना जरूरी है.
    महिलाओं का जागृत होना भी जरूरी है.

    दहेज प्रथा अशिक्षा असमानता का सामना करती है.
    यौन हिंसा भ्रूण हत्या का भी दुःख वह सहती है.
    इन सब पर अब रोक भी लगाना जरूरी है.
    महिलाओं का जागृत होना जरूरी है.

    घरेलू हिंसा वैश्यावृत्ति मानव तस्करी भी सहती है.
    लैंगिक भेदभाव राष्ट्र में इनको पीछे धकेलती है.
    महिलाओं को अब सशक्त बनाना जरूरी है.
    महिलाओं का जागृत होना जरूरी है.

    महिला पुरुष के बीच असमानता से जन्म समस्याओं का होता है.
    इन समस्याओं के कारण राष्ट्र का विकास बाधित होता है.
    महिलाओं को पुरुषों के बराबर होने का अधिकार होना जरूरी है.
    महिलाओं का जागृत होना जरूरी है.

    भारतीय समाज में अब महिलाओं में सशक्तिकरण लाना होगा.
    महिलाओं के खिलाफ बुरी प्रथाओं के मुख्य कारणों को समझना होगा.
    महिलाओं के विरुद्ध अपनी बुरी सोच को बदलना जरूरी है.
    महिलाओं का जागृत होना जरूरी है.

    रीता प्रधान

    भारतीय स्त्रियों पर कविता

    स्त्री

    कोई व्रत है नहीं औरत के लिए
    उपवास नहीं कन्या के लिए,
    पत्नी का व्रत है पति के लिए
    माँ का उपवास है सुत के लिए।
    फिर भी जाने किस मिट्टी से
    औरत को बनाया ईश्वर ने,
    नए जीव को जन्म भी देती है
    लंबी सी उम्र जी लेती है।

    सीता

    पति की अनुगामिनी बनती है
    हर सुख दुख में संग चलती है,
    महल हो या वनवास ही हो
    हर पथ सहभागिनी बनती है।
    पर अग्निपरीक्षा देकर भी
    जब परित्यकता बन जाती है,
    निज स्वाभिमान की रक्षा में
    धरती में समा भी जाती है।

    द्रौपदी

    मत्स्य चक्षु भेदा जिसने
    निज हृदय में उसे बिठाती है,
    पर मातृ आज्ञा की खातिर
    वह पांच कंत अपनाती है।
    ऐसी कुलवधू द्यूत में जब
    दांव पर लगाई जाती है,
    निज सखा को विनय सुनाकर तब
    वो मानिनी लाज बचाती है।

    राधा

    वो परम प्रेयसी बनती हैं
    बंसी बट में यमुना तट पर,
    प्रियतम से दूर विरह सहकर
    जीवन न्योछावर करती है।

    मीरा

    भक्ति में जोगन बनती है
    प्रेम अनन्य वो करती है,
    हंसकर विष भी पी जाती है
    मूरत में समाहित होती है।

    शबरी

    बृहद प्रतीक्षा करती है
    अपने गृह प्रभु के आने की,
    वो प्रेम से जूठे बेर खिलाकर
    परमधाम को पाती है।

    उर्मिला

    चौदह वर्ष दूर प्रियतम से
    महल में वन सी रहती है,
    भाई संग भेज प्राणप्रिय को
    वह विरह वेदना सहती है।

    पन्ना धाय

    निज सुत उत्सर्ग वो करती है
    राजपुत्र की रक्षा में,
    ऐसी बलिदानी थी नारी
    यूं राजभक्ति वो निभाती है।

    रानी लक्ष्मी बाई

    घोड़े पर चढ़ दत्तक सुत बांध
    रणचंडी बन जाती है,
    राज्य की रक्षा करने को
    बलिदानी जान लुटाती है।

    सावित्री

    पतिव्रत धर्म निभाती है
    नित सत्यकर्म अपनाती है,
    मृत पति के प्राण को दृढ़ होकर
    यमराज से छीन भी लाती है।

    सशक्त नारी

    नारी की शक्ति न कम आंको
    जो ठान ले वो कर जाती है,
    भावना के बस कमज़ोर हो वो
    बिन मोल के ही बिक जाती है।

    चाह

    कितने किरदार निभाती है
    बदले में किंचित चाह लिए,
    कुछ प्यार मिले, सम्मान मिले
    थोड़ी परवाह चाहती है।
    कोई उसके लिए भी व्रत रखे
    यह लेशमात्र भी चाह नहीं,
    बस उसके किए की कद्र करे
    इतना सा मान चाहती है।।

    नारी तू ही शक्ति है

    नारी तू कमजोर नहीं, तुझमें अलोकिक शक्ति है,
    भूमण्डल पर तुमसे ही, जीवों की होती उत्पत्ति है।
    प्रकृति की अनमोल मूरत, तू देवी जैसी लगती है,
    परिवार तुझी से है नारी, तू दिलमें ममता रखती है।।

    म से “ममता”, हि से “हिम्मत” ला से तू “लावा” है,
    महिला का इतिहास भी, हिम्मत बढ़ाने वाला है।
    ठान ले तो पर्वत हिला दे, विश्वास नहीं ये दावा है,
    हिम्मत करे तो दरिंदों की, जान का भी लाला है।।

    याद कर अहिल्याबाई, रानी दुर्गावती भी नारी थी,
    दुश्मन को छकाने वाली, लक्ष्मी बाई भी नारी थी।
    शीशकाट भिजवाने वाली, हाड़ीरानी भी नारी थी,
    सरोजिनी नायडू, रानी रुद्रम्मा देवी भी नारी थी।।

    वहशी हैवानों की नजरों में, रिश्ते ना कोई नाते है,
    मां, बहन, बेटियों से भी, विश्वासघात कर जाते हैं।
    मौका मिले तो वहशी गिद्ध नोच नोच खा जाते हैं,
    सबूत के अभाव में दरिंदे, सज़ा सेभी बच जाते हैं।

    तू ही काली, तू ही दुर्गा, तू ही मां जगदम्बा है,
    खड़्ग उठाले उस पर तू, जो मानवता ही खोता है।
    निर्बल समझे जो तुझको, पालता मन में धोखा है,
    सबक सिखादे वहशियों को, समझते जो मौक़ा है।

    आम आदमी समीक्षा और चर्चा कर दूर हो जाते हैं
    पीड़ित नारी “अपनी नहीं”, इसी से संतुष्ट हो जाते हैं
    घटना घटने के बाद बहना सब सहानुभूति जताते हैं
    जिम्मेदार, संभ्रांत व्यक्तियों के, वक्तव्य छप जाते हैं

    अब नारी तू ही हिम्मत करले, शक्तियों को जगाले तू
    अपने मुंह को ढकने वाले, पल्लू को कफ़न बनाले तू
    इज्ज़तपे जोभी हाथडाले, उसीको सबक सिखादे तू
    आंखसे खूनीआंसू पोंछ, गुस्सेको हथियार बनाले तू

    राकेश सक्सेना, बून्दी, राजस्थान

    मैं एक नारी हूँ

    मुझसे ही इस सृष्टि का निर्माण हुआ है,
    मैं ना कभी हारूँगी, ना मैं कभी हारी हूँ।

    मेरा वजूद से ही कायम है इस दुनिया का वजूद,
    मैं कोई उपभोग की वस्तु नही, मैं एक नारी हूँ।

    कितने कारनामे अंजाम दिए मैंने, कितनो को पछाड़ा है,
    आ जाऊं गर मैदान में तो मैं सौ पर भी भारी हूँ।

    कभी पुलिस बनकर रक्षा करती हूं, कभी मैं एक खिलाड़ी हूँ,
    राजनीति में गर हिस्सा लूं तो मैं भी सत्ताधारी हूँ।

    मोम सी फितरत है मेरी, ममता की मैं मूरत हूँ,
    क्रोधित कोई गर मुझे पाए तो मैं एक चिंगारी हूँ।

    कितने अपराध होते है, जो बस मेरे ही खिलाफ होते है,
    मुझको शिकार समझने वालों मैं भी एक शिकारी हूँ।

    हर रूप में मैं ढल जाती हूँ, हर रिश्ते को आज़माती हूँ,
    सहनशीलता की मूरत हूँ, ना समझना बेचारी हूँ।

    आजाद अशरफ माद्रे

    बेटी तो है फूल बागान( महिला जागृति पर रचना )

    गांव, शहर में मारी जाती, बेटी मां की कोख की,
    बेटी मां की कोख की, बेटी मां की कोख की।।

    जूही बेटी, चंपा बेटी, चन्द्रमा तक पहुंच गई,
    मत मारो बेटी को, जो गोल्ड मेडलिस्ट हो गई,
    बेटी ममता, बेटी सीता, देवी है वो प्यार की।
    बेटी बिन घर सूना सूना, प्यारी है संसार की,
    गांव, शहर में मारी जाती, बेटी मां की कोख की।।

    देवी लक्ष्मी, मां भगवती, बहन कस्तूरबा गांधी थी,
    धूप छांव सी लगती बेटी, दुश्मन तूने जानी थी।
    कल्पना चावला, मदरटेरेसा इंदिरागांधी भी नारी थी,
    खूब लड़ी मर्दानी वो तो, झांसी वाली रानी थी,
    गांव, शहर में मारी जाती, बेटी मां की कोख की।।

    पछतावे क्यूं काकी कमली, किया धरा सब तेरा से,
    बेटा कुंवारा रह गया तेरा, करमों का ही फोड़ा है।
    गांव-शहर, नर-नारी सुनलो, बेटा-बेटी एक समान,
    मत मारो तुम बेटी को, बेटी तो है फूल बागान।।

    राकेश सक्सेना, बून्दी, राजस्थान

  • विश्व बाल दिवस पर कविता

    विश्व बाल दिवस पर कविता

    जवाहरलाल नेहरू

    विश्व बाल दिवस पर दोहा:-

    बाल दिवस पर विश्व में,
    हों जलसे भरपूर!
    बच्चों का अधिकार है,
    बचपन क्यों हो दूर!!१


    कवि , ऐसा साहित्य रच,
    बचपन हो साकार!
    हर बालक को मिल सके,
    मूलभूत अधिकार!!२


    बाल श्रमिक,भिक्षुक बने,
    बँधुआ सम मजदूर!
    उनके हक की बात हो,
    जो बालक मजबूर!! ३

    बाबूलाल शर्मा

    अलबेला बचपन पर हास्य कविता

    मेरा बचपन बड़ा निराला,कुचमादों का डेरा था!
    अंतरमन में भरा उजाला,बाहर सघन अँधेरा था!


    खेतों की पगडँडियाँ मेरे,जोगिँग वाली राहें थी!
    हरे घास की बाँध गठरिया,हरियाली की बाँहें थी!
    चलता रहता में अनजाना,माँ बापू का पहरा था!
    मेरा बचपन बड़ा निराला,कुचमादों का डेरा था!!…….!!(१)

    गाय भैंस बहुतेरी मेरे,बकरी बहुत सयानी थी!
    खेतों की मैड़ों पर चरकर,बनती सबकी नानी थी!
    चरवाहे की नजरें चूकी,दिन में घना अँधेरा था!
    मेरा बचपन बड़ा निराला,कुचमादों का डेरा था!!……..!!(२)  

    साथी ग्वाले सारे मेरे, ‘झुरनी’ सदा खेलते थे!
    गहरी ‘नाडी’ भरी नीर से,मिलकर बहुत तैरते थे!
    चिकनी मिट्टी का उबटन था,मुखड़ा बना सुनहरा था!
    मेरा बचपन बड़ा निराला,कुचमादों का डेरा था!!…….!!(३)

    मोरपंख की खातिर सारे,बाड़ा बाड़ा हेर लिया!
    तब जाकर पंखों का बंडल,घर में मैनें जमा किया!
    एक रुपये में बेचे सारे,हरख उठा मन मेरा था!
    मेरा बचपन बड़ा निराला,कुचमादों का डेरा था!!……!!(४)

    ‘बन्नो’ की बकरी को दुहकर, हम छुप जाते खेतों में!
    डाल फिटकरी बहुत राँधते,और खेलते रेतों में!
    ‘कमली- काकी’ देय ‘औलमा’,दूध चुराया मेरा था!
    मेरा बचपन बड़ा निराला,कुचमादों का डेरा था!!……!!.(५)  

    भवानीसिंह राठौड़ ‘भावुक’
    टापरवाड़ा!!

    अच्छा था बचपन मेरा

    कहाँ फँस गए
    जिम्मेदारियों के दलदल में
    होकर जवान
    इससे तो अच्छा था
    बचपन मेरा

    न कोई दिखावा
    न कोई बहाना
    सब कुछ अपना ही अपना
    न मेरा
    न तेरा
    इससे तो अच्छा था
    बचपन मेरा

    सब कुछ मिल जाता था
    छोटी सी जिद्द से
    रोकर आँसू बहाने से
    अब तो
    बहाना पड़ता है पसीना
    शाम हो या सवेरा
    इससे तो अच्छा था
    बचपन मेरा

    सुबह खेलते, खेलते शाम
    न कोई चिंता
    न कोई काम
    हर एक का प्यारा
    हर कोई था प्यारा
    पर अब
    रिश्ते नाते भूल कर
    पैसे कमाने में
    बीत रहा जीवन तेरा
    इससे तो अच्छा था
    बचपन मेरा

    बलबीर सिंह वर्मा “वागीश”
    गॉंव – रिसालियाखेड़ा
    जिला – सिरसा (हरियाणा)

    नई सदी का बचपन

    न मिट्टी के खिलौनें,
    न वो पारम्परिक खेल।
    जहाँ पकड़म-पकड़ाई, छुपम-छुपाई
    चोर-सिपाही, बच्चों की रेल।
    अब न दादी के हाथ का मक्खन
    न नानी का वो दही-रोटा,
    राजा-रानी की कहानियाँ
    जो सुनाती थी दादी-नानी
    अब बन कर रह गई
    एक कहानी।


    स्कूल से सीधा पीपल पर जाना
    घंटो खेल खेलना और बतियाना
    मित्र मण्डली सँग घूमना
    वो बारिश में नहाना
    वो बच्चों का बचपन
    और बचपन की मस्ती
    न जाने कहाँ खो गई
    विज्ञान की इस नई सदी में
    शायद मोबाइल और कंप्यूटर
    के भेंट चढ़ गई।

    बलबीर सिंह वर्मा “वागीश”
    गॉंव – रिसालियाखेड़ा
    जिला – सिरसा (हरियाणा)


    मिट्टी जैसा होता है बचपन


    मिट्टी जैसा होता है बचपन
    जैसे ढालो ढल जाए
    कूट-पीट कर जैसा चाहो
    ये वैसा ही उभर आए!

    जल कर सोना कुंदन होता
    ऐसे ही बचपन कि कहानी
    जितना तपाए कुम्हार बर्तन को
    वो पक्का बनता उतना ही !!

    नवीन विचारों का प्रभाव
    ऐसा ही होता बचपन पर
    नीर पड़े जब माटी पर
    नव रूप मिले उसको नित पल !!!

    पक जाए बचपन बने जवानी
    जैसे तपे माटी सुहानी
    मिले गुण अब तक जो प्राणी
    वही फलेंगे पूरी जवानी !!!

    कुट ले पिट ले ऐ माटी तू
    बाद में न कहना कुम्हार से
    ‘मन’ तो थी बावरी बाबा
    तुम तो ‘मन’ को समझाते !!

    मंजु ‘मन’

    चाचा फिर तुम आओ ना

    चाचा नेहरु न्यारे थे
    हम बच्चों के प्यारे थे
    चाचा फिर तुम आओ ना
    हमको गले लगाओ ना

    दूर जहां तुम जाओगे
    बच्चों से मिल आओगे
    हमको साथ धुमाओ ना
    बच्चों से मिलवाओ ना,

    गुब्बारे हम टांगेंगे
    केक सभी हम काटेंगे
    नवम्बर चौदह आओ ना
    बाल दिवस मनवाओ ना,

    चाचा नेहरु सबके हो
    प्यार दुलार के पक्के हो
    स्वर्ग हमें दे जाओ ना
    प्यार हमें कर जाओ ना,

    तुम बच्चों में बच्चे हो
    अपने मन के सच्चे हो
    आशीषित कर जाओ ना
    हम पर प्यार लुटाओ ना,

    जन्म मुबारक तुमको हो
    हैप्पी हैप्पी बड्डे हो
    बांट मिठाई खाओ ना
    खुशियां मिल मनाओ ना।

    रचनाकार –रामबृक्ष बहादुरपुरी अम्बेडकरनगर यू पी

    बच्चे है कल का भविष्य

    बच्चे होते मन के सच्चे,

    है भविष्य के तारे,

    पढ़ते – लिखते – खेलते रहे,

    बने देश के सितारें |

    अच्छे – अच्छे पाठ इन्हे,

    है सिखाना हमे इन्हें,

    आसमा के तारो को,

    छुने का सपना इन्हे दिखाना हैं |

    प्रगति के मार्ग पर इन्हें बढ़ाना हैं,

    देश का भविष्य बदलना हैं,

    बच्चों को सजा सवार के,

    स्कुल हमे भेजना हैं|

    आज के बच्चे को कल का,

    देश का भविष्य बनाना हैं |

    जब मैं छोटा था – मनीभाई नवरत्न

    जब मैं छोटा था
    जब मैं छोटा था
    तब बहुत मोटा था ।
    तब ना थी चिंता ना जलन ना दर्द ।
    तब थी फटी हुई पेंट और नाक में सर्द ।

    आज फिर उसी पल को पाने की सोचता हूं ।
    गुमनाम जीवन में बचपन को खोजता हूं ।
    उस पल जब गिरता जमीन में
    तब उठाता कोई ।
    आज जब गिरता हूं तब दुनिया रहती खोई ।

    उस पल ऊटपटांग बातें
    दिल में घर कर जाती थी ।
    आज सच्ची कड़वी बातें
    नया संकट को लाती हैं
    तब नोट थे कागज के चिट्ठे ।
    जो लाती थी बेरकुट व नड्डे ।

    आज बन गए वे जिंदगी और जुनून ।
    जिसे पाने को लोग कर जाएं बंदगी और खून।
    बड़ा घिनौना ये जवानी की मारामारी ।
    बचपन में ही छुपी जीवन की खुशियां सारी ।

    तभी तो कहूं –
    “समाज को बाल अपराध से बचाएं ।
    बाल शिक्षा से उनको काबिल बनाए ।
    तब भ्रष्टाचार ना टिक पायेगी ।
    खुली बाजार में उसकी इज्जत लूट जाएगी।”

    मनीभाई नवरत्न

    हां मैं बच्चा हूं

    हां मैं बच्चा हूं ।
    अकल का थोड़ा कच्चा हूं।
    मुझे आता नहीं झूठ बोलना
    और फरेब करना
    मैं तो दिल से नेक और सच्चा हूं ।
    हां मैं बच्चा हूं ।
    ( मनीभाई रचित )

    बाल दिवस पर रुचि के तीन कविता

    1 बाल कविता – “बच्चे”

    बच्चों की आई बारी |
    है मस्ती की तैयारी ||
    आई छुट्टी गर्मी की |
    ठंडी – ठंडी कुल्फी की ||

    भोले -भाले प्यारे हैं |
    मीठे खारे तारे हैं ||
    कच्ची माटी के भेले |
    मिट्टी की रोटी बेलें ||

    छक्का मारे राहों में |
    टेटू छापे गालों में ||
    नाना -नानी आये हैं |
    ढेरों खाजे लाये हैं ||

    कवियित्री – सुकमोती चौहान “रुचि”

    2 भारत के वीर बच्चे हम

    भारत के वीर बच्चे हम
    वचन के पक्के,मन के सच्चे हम
    काट डालें अत्याचार का सर
    तलवार की वो धार हम।
    जला दें बुराइयों को
    आग की ओ लपटें हैं हम।
    उखाड़ दें अन्याय की जड़ें
    तूफान की ओ शबाब हम।
    बहा ले चलें गिरि विशाल
    नदी की हैं ओ सैलाब हम।
    मिलकर जिधर चलें हम
    बाधाओं से न डरें हम
    टकरायें हमसे किसमें है दम
    ओ मजबूत फौलाद हैं हम।
    वतन के रखवाले हम
    आजादी के मतवाले हम
    मातृभूमि के दुलारे हम
    वीरों ने अपने रक्त से सींचा
    उस चमन के महकते सुमन हम
    भारत के वीर बच्चे हम।

    कवियित्री – सुकमोती चौहान रुचि
    बिछिया, महासमुंद, छ. ग.

    3 शिशु

    कितनी अनुपम है यह छवि
    मस्ती में चूर अलबेली चाल
    कितनी प्यारी कितनी नाजुक
    नन्हें नरम हाथों की छुअन।
    क्या , है ऐसा कोमल? दुनिया का कोई स्पर्श?
    वह चपलता वह भोलापन
    प्यारी सूरत दर्पण सा मन
    पल में रोना पल में हँसना
    इतना सुखद इतना सुंदर
    क्या है ऐसा आकर्षक? दुनिया का कोई सौंदर्य?
    मन को आनंदित करे
    तुतली बातों की मिठास
    कितना मोहक ,कितना अनमोल
    अधरों की निश्छल मुस्कान
    क्या है ऐसा पावन? दुनिया में हँसी किसी की?
    पहले पग की सुगबुगाहट से
    थुबुक – थाबक चलना वह
    पग नुपूर की छन – छन में
    लहर सा नाचना वह
    बाल सुलभ वह चेष्टाएँ
    फीकी लगे परियों की अदाएँ
    क्या है इतना सुखदायी ? दुनिया का कोई वैभव विलास?

    कवियित्री – सुकमोती चौहान रुचि
    बिछिया, महासमुंद, छ. ग.

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