मेरा संबंध तुमसे अंतरात्मा का है। हाँ बाहृा जगत में हम पृथक ही सही, न दिखे ये रिश्ता जग में कहीं मन का जुड़ाव मन से तो है । मेरा संबंध तुमने अंतरात्मा का है। भू से अंबर तक हर जगह तुम मेरी नजरों में हो। मेरी हर धडकन में तुम जैसे हवा का संचार, सांसो के लिये है, जल का सिंचन, जीवन के लिये है। वैसे ही एक से हम, और हमारी आत्मा है। मेरा संबंध तुमसे, अंतरात्मा का है। कालिका प्रसाद सेमवाल
विनती करता हूँ शारदे माता,विद्या का हमको वरदान दे दे। हम झुके तेरे चरणों में निशदिन,तेरा आसरा हम सबको दे दे। विनती——— हर वाणी में सरगम है तेरा ,तू हमें स्वर का राग सिखा दे। हर गीत बन जाए धड़कन,नृत्य पे सुर लय ताल मिला दे। मन की वीणा के तार बजाकर, सुरमय संगीत हमारा कर दे। विनती——— । हम गुणगान करते है तेरा,तू हमें सच की राह दिखा दे। विनयशाली बन जाए हम सब,दिव्य बुद्धि का अमृत पिला दे। मन में ज्ञान दीपक जलाकर,जगमग जीवन ‘रिखब’ का कर दे। विनती——— । विनती करता हूँ शारदे माता,विद्या का हमको वरदान दे दे। हम झुके तेरे चरणों में निशदिन,तेरा आसरा हम सबको दे दे। स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित @रिखब चन्द राँका कल्पेश कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
यहाँ माँ पर हिंदी कविता लिखी गयी है .माँ वह है जो हमें जन्म देने के साथ ही हमारा लालन-पालन भी करती हैं। माँ के इस रिश्तें को दुनियां में सबसे ज्यादा सम्मान दिया जाता है।
मेरी तीन माताएँ
नौ मास तक जिसने ओद्र में रखकर,, हमें इस संसार में लायी। अपनी स्तन का अमृत पिलाकर,, इस जग में हमे पहचान दिलाई । हम पूजें तुम्हें सबसे पहले,, हे जननी मेरी पहली माँ ।।
जिस धरा पे मैंने पहला कदम रखा,, डगमगाया ,लड़खड़ाया फिर चलना सीखा । हम जीवन में जो कर्म किये,, सबकुछ है इसि मिट्टी में लिखा। तेरी बहुत बड़ी उपकार है मुझ पर,, हे धरती धरनी मेरी दुसरी माँ ।।
जिस माँ ने हमारे पुरी जीवन को,, अपनी अमृत समान दूध की रसपान कराई । इस शरीर का एक एक हिस्सा,, उसी की है ये उपकार की काया। हे करूणामयी ,ममतामयी माँ,, हे गौ माता मेरी तीसरी माँ ।
हे जगत जननी मेरी पहली माँ,, हे गौ माँ हे धरती माँ । पूजें तुम्हें सारा जगत जहाँ,, तुम तीनों सबकी प्यारी माँ । हे न्यारी माँ हे दुलारी माँ ।।।
ओ!तरु तात!सुन ले मेरी वयस और तेरी वयस का अंतर चिह्न ले मैं नव अंकुर,भू से तकता तेरे साये में पलता तू समूल धरा के गर्भ में जम चुका।
माना ,तेरी शाखा छूती जलद को मधुर स्पर्श से पय-नीर पान करती पर जिस दिन फैलेगी मेरी शाखाएँ घनों को पार कर पहुँचेगी अनंत तक और चुनेगी स्वर्णिम दीप-तारक।
माना ,सहस्त्रों पथिक तेरी छाँह में विश्रांति पाये दे आशीष वर्षों तक रहने का, पाकर शीतलता पर जब फैलेगा मेरा क्षेत्र, ढक लेगा मानो सर्व जग को उस दिन अनगिनत श्रान्त प्राणी, लेंगे गहरी निंद्रा छाँह में लब्ध होगी नई स्फूर्ति देगें असीस युगों तक रहने का।
माना, तेरे पुष्पों पर भ्रमर करते गुंजार करते रसपान,पाते त्राण पर जब तेरे सम होंगे शरीरांग उस दिन समस्त खगकुल का होगा बसेरा मेरी हरेक डाल बनेगी, क्रीड़ास्थल उनका हर शीत-आतप ,वृष्टि होगा परित्राण अहं ना कर अपनी दीर्घता का क्योंकि जिस दिन फैलेगी, मेरी विपुलता…… आकार तेरा बिखर जाएगा उस दिन तू अंकुर-सम नजर आएगा।
✍–धर्मेन्द्र कुमार सैनी,बांदीकुई जिला-दौसा(राजस्थान)