शाश्वत अनुष्टुप्छन्द में कविता

मैं दिलवर दीवाना हर जनम का प्रिये ।
भाये तेरे बिना कोई कभी हो सकता नहीं ।।

दीवाने सब हैं मस्त धन दौलत लिए हुए ।
अपनी तो फकीरी से यारी है निभा रहे ।।

पद लोलुपता तेरी मौलिकता उड़ा गई ।
पतनोन्मुख इंसान अंदर से मरा हुआ ।।

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दीवानेपन की बात यूँ कहते नहीं बने ।
है अजीब खुमारी सी जो जीता समझे वही ।।

उसके नाम का हूँ मैं दीवाना बस जान लो ।
मतलब किसी से है तो उसी दिलदार से ।।

तोल रहा तराजू में दूसरों को यहाँ वहाँ ।
जो न्यायाधीश तू ही हो अपना तो पता चले ।।

—– रामनाथ साहू “ननकी”

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