Author: कविता बहार

  • मन की लालसा किसे कहे

    मन की लालसा किसे कहे

    सच कहुं तो कोई लालसा रखी नहीं
    मन की ललक किसी से कही नहीं

    क्यों कि
        जीवन है मुट्ठी में रेत
        धीरे धीरे फिसल रहा
       खुशियां, हर्ष, गम प्रेम
       इसी से मन बहल रहा।


    बचपन की राहे उबड़ खाबड़,
    फिर भी आगे बढ़ते रहे,
    भेद भाव ना बैर मन में
    निश्छल ही चलते रहे।


        युवा राह सपाट व समतल
        और काया में उबलता खून
        हर उलझे कारज करने को
        मिलता रहा हौसला- ए- जुनून


    अब जीवन की राह ढलान
    मन की लालसा किसे कहे
    काया भी हो रही थकी
    क्या ढलान में चलते रहे।


         ये राह देख डरे नहीं
         पांव मजबूत करिए
         चिंता को धुंए में उड़ा
         बेफ्रिक चलते रहिए।


    दिल रखो जवां
    आनंद लो भरपूर
    यही समय है जीने का
    लालसा करिए पूर्ण


      अभी नहीं उतार की राहें
      थाम लो साथी की बांहे
    मीठी मीठी सूर ताल में
    कट जाएगी ये राहे


       धूम मचाओ नाचो खूब
        गा लो कोई मधुर गाना
        क्योंकि जिन्दगी
        एक सफर है सुहाना।

    *मधु गुप्ता “महक”*

  • कुछ चिन्ह छोड़ दें -गीता द्विवेदी

    कुछ चिन्ह छोड़ दें -गीता द्विवेदी

    मृत्यु आती है ,
    सदियों से अकेले ही ,
    बार – बार , हजार बार
    लाखों , करोड़ों , अरबों बार ।
    पर अकेले जाती नहीं ,
    ले जाती है अपने साथ ,
    उन्हें , जिन्हें ले जाना चाहती है ।


    एक , दो या हजार
    कुछ भयभीत रहते हैं ,
    उसके नाम से , उसकी छाया से ,
    कुछ आलिंगन करते हैं सहर्ष ,
    देश के लिए , धर्म के लिए ।
    कुछ आमंत्रित करते हैं ,
    ईर्ष्यावश दूसरों के लिए ।


    स्वयं डरते हैं ,
    जैसे प्रेतनी है ।
    कुछ लोगों का कहना है कि ,
    निगल लेती है सबको ,
    अजगरी सी …….
    तब एक प्रश्न निर्मित होता है ,
    कभी उसकी क्षुधा शांत हुई या नहीं ?


    निःसंदेह नहीं ….. क्योंकि …
    ऐसा कोई दिन , महिना , वर्ष नहीं ,
    जब उसकी परछाईं ,
    किसी ने भी न देखी हो …


    अब ये भी परम सत्य है ,
    वो आती रहेगी , प्रलय तक ,
    ले जाएगी सबको पारी-पारी ,
    तो उसके आने से पहले ,
    क्यों न कुछ ऐसा प्रबंध करें ,
    कि उसके साथ जाने का ,
    पश्चाताप न हो ,
    मुड़कर देखें भी नहीं ,
    हो सके तो कुछ चिन्ह छोड़ दें ,
    स्वर्णिम , चिरस्थायी , यश चिन्ह ,
    यही श्रेष्ठ होगा ,
    सार्थक भी ।

    -गीता द्विवेदी

  • ये उन्मुक्त विचार -पुष्पा शर्मा”कुसुम”

    ये उन्मुक्त विचार -पुष्पा शर्मा”कुसुम”

    नील गगन  के विस्तार से
    पंछी के फड़फड़ाते पंख से,
    उड़ रहे, पवन के संग
    ये उन्मुक्त विचार ।

    पूर्ण चन्द्र के आकर्षण से
    बढते उदधि में ज्वार से,
    उछलते, तरंगों के संग
    ये उन्मुक्त विचार।

    बढती , सरिता के वेग से
    कगारों के ढहते पेड़ से,
    रुकते नहीं, भँवर में
    ये उन्मुक्त विचार।

    निर्झर के कल-कल नाद से
    गिरि से गिरते सुन्दर प्रपात से,
    वारि में प्रतिबिंब से
    ये उन्मुक्त विचार।

    उमड़ते रहते लेकर हिलोरे,
    हृदय नभ घन गर्जन घेरे,
    चमकते दामिनी से
    ये उन्मुक्त विचार।

    सृजन पथ, प्रतिहार से
    ज्ञान ध्यान विवेक से,
    हृदय ग्रन्थि खोलते
    ये उन्मुक्त विचार ।

    पुष्पाशर्मा”कुसुम”

  • तृष्णा पर कविता

    तृष्णा पर कविता

    तृष्णा कुछ पाने की
    प्रबल ईच्छा है
    शब्द बहुत छोटा  है
    पर विस्तार  गगन सा है।
    अनन्त
    नहीं मिलता छोर जिसका
    शरीर निर्वाह की होती
    आवश्यकता
    पूरी होती है।

    किसी की सरल
    किसी  की कठिन
    ईच्छा  भी पूरी होती है।
    कभी कुछ कभी कुछ
    पर तृष्णा  बढती जाती
    पूरी नहीं होती।

    तृष्णा परिवार की
    तृष्णा धन की
    तृष्णा सम्मान की
    तृष्णा यश  की।

    बढती लाभ संग
    दिखाती अपना रंग
    छाती अंधड़ बन
    आती तूफान  सी
    बढती जाती बाढ सी
    बढाती जोड़ तोड़
    आपाधापी और होड़
    हरती  मन की शान्ति
    बढाती जाती  क्लान्ति।

    मानव  को बनाती
    लोभी, लालची, ईर्ष्यालु
    बढाती असंतोष प्राप्त से
    बढाती लोभ अप्राप्यका
       परिणाम
    झूठ ,कपट ,झगड़ा, फसाद
    बनते संघर्षों  के इतिहास
    बचना चाहिए इससे
    चलकर  संतोष की राह।

    पुष्पा शर्मा”कुसुम”

  • वृन्दा पंचभाई की हाइकु

    वृन्दा पंचभाई की हाइकु

    हाइकु

    वृन्दा पंचभाई की हाइकु

    छलक आते
    गम और खुशी में
    मोती से आँसू।

    लाख छिपाए
    कह देते है आँसू
    मन की बात।

    बहते आँसू
    धो ही देते मन के
    गिले शिकवे।

    जीवन भर
    साथ रहे चले
    मिल न पाए।

    नदी के तट
    संग संग चलते
    कभी न मिले।

    जीवन धुन
    लगे बड़ी निराली
    तुम लो सुन।

    जीवन गीत
    अपनी धुन में है
    मानव गाता।

    सुख दुःख के
    पल जीवन भर
    संग चलते।

    धुन मुझको
    एक तुम सुनाना
    खुद को भूलूँ।

    बसंत पर हाइकु

    धरती धरे
    वासन्ती परिधान
    रूप निखरे। 1

    ओस चमके
    मोती सी तृण कोर
    शीतल भोर।2

    वसन्त आया
    सुमन सुरभित
    रंग-बिरंगे।3

    गीत सुनाए
    मतवाली कोयल
    मन लुभाती। 4

    करे स्वागत
    खिले चमन जब
    बसन्त आता।5

    वृन्दा पंचभाई