Author: कविता बहार

  • सरस्वती वंदना/डॉ0 रामबली मिश्र

    सरस्वती वंदना/डॉ0 रामबली मिश्र

    सरस्वती वंदना/डॉ0 रामबली मिश्र

    सरस्वती वंदना/डॉ0 रामबली मिश्र

    दिव्य मधुर रस देनेवाली।
    कष्ट क्लेश को हरनेवाली।।
    चेतन सत्ता ज्ञानामृत हो।
    बनी लेखिका सत शुभ कृत हो।।

    अंतर्दृष्टि सहज देती हो।
    मिथ्या भ्रम को हर लेती हो।।
    सत्कर्मों की शिक्षा देती।
    प्रेम पंथ की दीक्षा देती।।

    क्षिति जल पावक गगन समीरा।
    सबमें रहती बनी सुधीरा।।
    परम विज्ञ ब्रह्माणी तुम हो।
    कला प्रवीण भव्य प्रिय तुम हो।।

    वरप्रदा नित कामरूप हो।
    वाग्देवी शिव शिवा रूप हो।।
    पापनाशिनी अभय प्रदाता।
    महाबला उत्साह विधाता।।

    वसुधा तीव्रा चंद्र वदन हो।
    गोविंदा प्रिय रमा सदन हो।।
    महाभुजा सावित्री सभ्या।
    पद्मनिलय पद्माक्षी भव्या।।

    नव्य नवल नूतन नर-नारी।
    सत्य सुघर सुन्दर शुभ सारी।।
    भद्र भवन भव भजन भरोसा।
    पावन पर्व पवित्र परोसा।।

    नायक नाविक नाव नरोत्तम।
    पुरुष प्रधान प्रेम पुरुषोत्तम।।
    न्यारी नारी नम नारायण।
    प्रोन्नत पर्वत पथ पारायण।।

    सरला तरला अचला अटला।
    वरदानी माता प्रिय सफला।।
    एकमेव सद्ज्ञान धरोहर।
    लोकातीत सत्य शिव सुन्दर।।
    रक्षा करती चलती हरदम।
    सदैव बोला करती बं बं।।

    जो करता है माँ का वंदन।
    बने सुगंधित शीतल चन्दन।।
    जिसको माता भाती रहती।
    उसको माता निकट बुलाती।।

    चतुर्वर्ग फल देनेवाली।
    विद्या रूपी अमृत प्याली।।
    त्रिकाल ज्ञानी शक्ति अंबिका।
    असुर वधिक माँ दिव्य कालिका।।

    चतुरानन साम्राज्य स्वयं माँ।
    हंस आसना कांता महिमा।।
    निरंजना वैष्णवी सुभागी।
    ब्रह्मा विष्णु महेश सुहागी।।

    शोभा बनकर जगत लुभाती।
    सबको रक्षा तुम्हीं दिलाती।।
    कवच प्रबल तुम संरक्षक हो।
    ज्ञान प्रदाता शिव शिक्षक हो।।

    शुभ पथ दर्शन तुम्हीं कराती।
    मैहर में माँ सदा बुलाती।।
    शिष्यगणों पर खुश रहती हो।
    आँचल दे कर नित ढकती हो।

    नहीँ कष्ट आने देती हो।
    सारी विपदा हर लेती हो।।
    तुम मृत्युंजय महा मंत्र हो।
    रक्ष रक्ष माँ दिव्य तंत्र हो।।

    शरणार्थी का साथ निभाती।
    उसे छोड़कर कहीं न जाती।।
    वर वर दे मातृ शारदे!
    कृपा अस्त्र माँ सिर पर रख दे।।

    डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी उत्तर प्रदेश

  • ईश्वर की दी धरोहर हम जला रहे हैं/मनोज कुमार

    ईश्वर की दी धरोहर हम जला रहे हैं/मनोज कुमार

    ईश्वर की दी धरोहर हम जला रहे हैं/मनोज कुमार

    JALTI DHARTI

    ईश्वर की दी हुई धरोहर हम जला रहे हैं
    लगा के आग पर्यावरण दूषित कर रहे हैं
    काटे जा रहे हैं पेड़ जंगलों के,
    सुखा के इन्सान खुश हो रहा है
    आते – जाते मौसम बिगाड़ रहा है

    हरी- भरी भूमि में निरंतर रसायन मिला रहा है
    अपने ही उपजाऊ भूमि को बंजर कर रहा है
    धरती को आग लगा रहा है
    जीवन बुझा रहा है।

    हवाओं का रुख न रहा,
    मेघ, बरखा सब बदल रहा
    फसलों को अब कीट पतंगे चुनते हैं,
    उसपर रेशा- रेशा बुनते हैं
    अब खो गए सब वन सारे,
    जब धरती पे फूटे अँगारे
    अब चारों तरफ है गर्मी,
    रिमझिम कहाँ है बूँदों में?

    • मनोज कुमार गोण्डा उत्तर प्रदेश
  • विश्व प्रदूषित हो रहा /प्रेमचन्द साव “प्रेम”,बसना

    विश्व प्रदूषित हो रहा /प्रेमचन्द साव “प्रेम”,बसना

    विश्व प्रदूषित हो रहा / प्रेमचन्द साव “प्रेम”,बसना

    JALTI DHARTI

    विश्व प्रदूषित हो रहा,फैल रहा है रोग।
    मानव सारे व्यस्त है,करने निज सुख भोग।।

    प्राणवायु दूषित हुआ,दूषित हर जल बूँद।
    मानव को चिंता कहाँ ?,बैठा अँखियन मूँद।।

    ताल तलैया कूप को,मनुज रहे अब पाट।
    निज स्वारथ के फेर में,वृक्ष रहे हैं काट।।

    धूल-धुआँ कूड़ा बढ़ा,बढ़ा मनुज का लोभ।
    फिर जीवन संघर्ष का,रहे नहीं क्यों क्षोभ।।

    पश्चिम की यह सभ्यता,लिया मनुज को घेर।
    इसीलिए हर द्वार में,है कूड़ो का ढेर।।

    श्रम करना सब छोड़कर,बने आलसी आज।
    लगे सफाई कर्म में,मानव को अब लाज।।

    स्वच्छ रहे पर्यावरण,करो प्रेम संघर्ष।
    तभी प्रेम का प्रेम से,रहे जनों में हर्ष।।

    पर्यावरण उपाय के,जग में युक्ति अनेक।
    वृक्ष लगाने का करो, कर्म सदा ही नेक।।

    हरियाली जग में रहे,जन-जन रहे प्रसन्न।।
    नाम नहीं हो भूख का,मिले सभी को अन्न।।

    मन-मतलब को छोड़कर,कर्म करे निष्काम।
    मानव जब संयम रखे, धरा बने सुखधाम।।

    प्रीति-रीति के भाव का,जब मन में हो हर्ष।
    मानव करता है तभी ,जीवन में उत्कर्ष।।

    पात-पात सुरभित रहे,पुष्ट रहे सब डाल।
    प्रेम तभी जग में बने,मानव धवल मराल।।

    हरियाली से हो जहाँ,हर मन में अनुराग।
    वृक्ष लताओं से रहे,सुरभित हर भूभाग।।

    वृक्षों से हमको मिले,प्राण वायु वरदान।
    फिर जन क्यों रखते नहीं,हरियाली का मान।।

    शुद्ध पवन जल से मिले,जीवनदायी प्राण।
    योग में करके साधना,मिट जाते सब त्राण।।

    धरती अंबर तक खिले,जीवन का सुखसार।
    जब मानव मन से करे,पर्यावरण सुधार।।

    “प्रेम” करो तुम प्रेम से,धरती पर उपकार।
    तब ही प्रेम के प्रेम से,सुरभित हो संसार।।

    प्रेमचन्द साव “प्रेम”,बसना

  • शिवरात्रि पर कविता /डॉ0 रामबली मिश्र

    शिवरात्रि पर कविता /डॉ0 रामबली मिश्र

    शिवरात्रि पर कविता /डॉ0 रामबली मिश्र

    shiv God
    Shiv God

    अद्वितीय शिव भोले काशी।
    अदा निराली प्रिय अविनाशी।।
    रहते सबके अंतर्मन में।
    बैठे खुश हो नित सज्जन में।।

    जगह जगह वे घूमा करते।
    तीन लोक को चूमा करते।।
    भस्म लगाये वे चलते हैं।
    शुभ वाचन करते बढ़ते हैं।।

    परम दिव्य तत्व रघुवर सा।
    कोई नहीं जगत में ऐसा।।
    रामेश्वर शंकर का धामा।
    विश्व प्रसिद्ध स्वयं निज नामा।।

    बहुत जल्द वे खुश होते हैं।
    सारे पापों को धोते हैं।।
    सहज सफाई करते चलते।
    आशीर्वाद देत वे बढ़ते।।

    डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।

  • अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर रचना/सुशी सक्सेना

    अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर रचना/सुशी सक्सेना

    अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर रचना/सुशी सक्सेना

    अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर रचना/सुशी सक्सेना

    नारी की गौरव गाथा/सुशी सक्सेना

    प्रसिद्ध बड़ी है जग में, नारी की गौरव गाथा है।

    हर रूप में प्यार हमें देती है, ये हमारी माता है।

    अपनी भारत माता पर, मुझे है अभिमान बहुत

    शहीदों ने दिए हैं, इसकी रक्षा में बलिदान बहुत

    माता के पावन चरणों में शीश चढ़ाना सौभाग्य है

    चारों ओर हम गाएंगे, अब इसकी गौरव गाथा है।

    रूप अद्भुत प्रकृति का, लीला भी इसकी न्यारी है

    कहीं उड़ती धूल धरा पर, कहीं छाई हरियाली है

    मां की तरह करती प्यार, सब कुछ देती जाती है

    जीवन को सरल बनाती, ये प्रकृति हमारी माता है।

    देती है जन्म वो, इसलिए जननी मां कहलाती है

    उसकी छाया में पलता जीवन, सब कुछ सह जाती है

    मां बिना जीवन का, कोई न अस्तित्व होता है

    मां तो मां होती है, बस इक यही तो सच्चा नाता है।

    गंगा माता की ये धारा, पवित्र बड़ी होती है

    कष्ट कर देती है दूर, पाप लोगों के हरती है

    उतर कर धरती पर, गंगा ने धरती को प्यार दिया

    दुख नाशिनी, पाप नाशिनी होती ये गंगा माता है।

    मां की सेवा धर्म हमारा, चरणों में इसके जन्नत है

    मां ही रखती ख्याल हमारा, आंचल में उन्नत है

    रौद्र रूप धारण करती है, जब होता अत्याचार है

    बन जाती है नारियों की ताकत, ये शक्ति माता है।

    सुशी सक्सेना इंदौर मध्यप्रदेश