Author: कविता बहार

  • एक कविता हूँ

    एक कविता हूँ!

    उंगलियों में कलम थामे
    सोचता हूँ…
    कि कहीं
    है वह ध्वनि
    जो उसे ध्वनित करे…!
    मैं अंतरिक्ष में तैरता..
    कल्पनाओं में
    छांटता हूँ
    शब्द
    मीठे -मीठे
    कोई शब्द मिलता नहीं मुझे
    जो इंगित करे उसे
    बस….
    उंगलियों से ही उसे –
    उकेरता हूँ …
    मिटाता हूँ ।
    उंगलियों में कलम थामे…
    मैं सोचता हूँ ।।
    उसकी खूबसूरती
    वो भोलापन
    तो मुझपे क़यामत ढाई
    न कोई उपमा सूझी
    न अतिशयोक्ति ही काम आई
    जब भी लिखना चाहूँ
    उसपे कोई कविता –
    न कोई शब्द सूझता है…
    न भाता है
    और मैं…
    बस लकीरें ही खींचते जाता हूँ ।
    उंगलियों में कलम थामे…
    मैं सोचता हूँ ।।
    उन आड़ी-तिरछी लकीरों में भी
    वो ही तो मुझको दिखती है…
    जो आहिस्ता से कानों में मेरे कहती है–
    ‘इन पन्नों पर खींची है तुमने
    जो आड़ी-तिरछी रेखाएँ …
    वो मैं ही तो हूँ ‘
    “एक कविता हूँ “!!!

    -@निमाई प्रधान’क्षितिज’
          03/09/2016

  • विश्वास टूटने पर कविता

    विश्वास टूटने पर कविता

    HINDI KAVITA || हिंदी कविता
    HINDI KAVITA || हिंदी कविता

    खण्डित जब से विश्वास हुआ है ,
                         मनवा सिहर गया है।
    जीना         दूभर     लगता    जाने
                     क्या क्या गुज़र गया है।
    तिनका तिनका    जोड़   घरौंदा
                  मिल जुल सकल बनाया।
    ख्वाबों ,अरमानों   ने    मिल के
                 पूरा         महल   सजाया ।
    वज्रपात जब हुआ   नियति   का
                जीवन बिखर गया    है ।
    जीना दूभर  लगता  ,        जाने
               क्या क्या गुज़र गया   है।
    आशाएँ  सब धूमिल   लगतीं ,
              कैसे          राह    निकालूँ
    उलझ गये सब   रिश्ते  नाते ,
              कैसे    स्वयं   सम्भालूँ !
    सब्र का बंधन टूट  गया   औ
             सब कुछ बिखर  गया है ।
    जीना दूभर लगता ,     जाने
            क्या क्या गुज़र गया  है !
    खण्डित जब से विश्वास हुआ है
           मनवा        सिहर गया है ।
    जीना   दूभर     लगता  , जाने
           क्या क्या  गुज़र गया  है !!!
      

    नीलम सिंह

  • मधुमासी चौपाइयाँ

    मधुमासी चौपाइयाँ

    शरद शिशिर ऋतु कब के बीते, हाथ प्रकृति के रहे न रीते।
    दिनकर चले मकर के आगे, ठंडक सूर्य ताप से भागे।1
    बासंती मधुमास महीना, सर्व सुगन्धित भीना- भीना।
    घिरा कुहासा झीना-झीना, धरा सजी ज्यों एक नगीना।2
    कलियों पर हैं भ्रमर घूमते, ऋतु बसंत को सभी पूजते।
    मादकता वन उपवन छाई, आतुरता हर हृदय समाई।3
    नये पात आये तरुओं पर, मंजरियाँ सजतीं पेड़ों पर।
    मादक गंध नासिका भरती, मन मतवाला मद में करती।4
    पुष्प अनेकों प्रतिदिन खिलते, नेह भरे दिल हिलते मिलते।
    मद मधुमासी कर मतवाला, बीज नेह का दिल में डाला।5
    प्रणय निवेदन की है बेला, मन में स्वप्नों का है मेला।
    प्रेम पाश में युगल बँधेंगे, सुखमय जीवन तभी बनेंगे।6
    पुष्प खिले चंहुँ ओर छबीले, दिल में भरते भाव रसीले।
    फागुन- माघ माह दो उत्तम, तन मन स्वस्थ रहे सर्वोत्तम।7
    फागुन की आहट मन पाया, तन मस्ती में मन बौराया।
    नशा रंग का सार चढ़ बोले, भंग तरंग भाव हर खोले।8
    रंगों का मेला धरती पर, तन पर लगते चढ़ते मन पर।
    रास-फाग अब जन जन खेले, लगते हैं खुशियों के मेले।9
    ऋतु बसंत सबके मन भाती, ऊर्जित तन सबके कर जाती।
    नव भविष्य नव स्वप्न सजायें, सहज कर्म में फिर जुट जायें।10
    प्रवीण त्रिपाठी, नई दिल्ली, 14 फरवरी 2019
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • बेचकर देखों मुझे जरा

    बेचकर देखों मुझे जरा


    पूछने से पहले जवाब बना लिये।
    यार  सवाल तो गजब़ बना लिये।


    किसी ने पूछा ही नहीं मैं जिंदा हूँ,
    मगर तुम हसीन ख्वाब बना लिये।

    और और,और कहते रहे गम को,
    लो आशुओं का हिसाब बना लिये।


    मेरी मिलकियत न रहीं वजूद मेरा,
    समाज से कहों कसाब बना लिये।

    सौ-सौ सवाल गोजे पे रसीद मार,
    जला यों की आफताब बना लिये।


    मेरे दर्द पर नमक भी छिंड़क दो,
    हमनें जिंदगी को किताब बना लिये।

    बड़ा घमंड़ है जातीय व्यवस्था पर,
    तुम्हे क्या पता तेजाब बना लिये।


             ✍पुखराज यादव प्रॉज
                      महासमुन्द (छ.ग.)

                       9977330179

  • नाराच ( पंच चामर ) छंद

    नाराच ( पंच चामर ) छंद  :

          24 मात्रा,   ज र ज र ज गुरु ।

    महान  देश  की  ध्वजा  पुनीत  राष्ट्र  गान  है ।
    उठे  सदा  झुके  नहीं  अतीत  गर्व  प्राण   है ।।
    खड़े   रहे  डटे   रहे   मिसाल   दे  जवान  है ।
    अनंत  कर्मयोग  को  सिखा  रहा  किसान है ।।
    दिशा  सभी  पुकारते  निशा  प्रभा  बिखेरती ।
    सनेह   गंध   घोलते   समीर   मंद   डोलती ।।
    समुद्र  पाँव   चापते   हिमाद्रि   ताज  राजते ।
    निशंक  लोग  राष्ट्र  के  सुपात्र  धर्म  पालते ।।
    विलास प्राण प्राण में  नहीं  विषाक्त भावना ।
    नदी  पवित्र  गंग है  हिताय  नित्य  कामना ।।
    बसंत  भाव  प्रेम   का  यहाँ  नहीं   प्रवंचना ।
    अमाप   मातृभूमि  की  करें  सदैव   वंदना ।।
                      ~   रामनाथ  साहू ”  ननकी  “
                                     मुरलीडीह