Author: कविता बहार

  • कारगिल विजय दिवस पर कविता  (16 दिसम्बर)

    कारगिल विजय दिवस पर कविता (16 दिसम्बर)

    आज सिंधु में ज्वार उठा है

    atal bihari bajpei
    अटल बिहारी वाजपेयी

    आज सिंधु में ज्वार उठा है, नगपति फिर ललकार उठा है,

    कुरुक्षेत्र के कण-कण से फिर, पांचजन्य हुंकार उठा है।

    शत-शत आघातों को सहकर, जीवित हिंदुस्तान हमारा,

    जग के मस्तक पर रोली-सा, शोभित हिंदुस्तान हमारा ।

    दुनिया का इतिहास पूछता, रोम कहाँ, यूनान कहाँ है ?

    घर-घर में शुभ अग्नि जलाता, वह उन्नत ईरान कहाँ है ?

    दीप बुझे पश्चिमी गगन के, व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा,

    किंतु चीरकर तम की छाती, चमका हिंदुस्तान हमारा।

    हमने उर का स्नेह लुटाकर, पीड़ित ईरानी पाले हैं,

    निज जीवन की ज्योति जला, मानवता के दीपक वाले हैं।

    जग को अमृत का घट देकर, हमने विष का पान किया था,

    मानवता के लिए हर्ष से, अस्थि-वज्र का दान दिया था।

    जब पश्चिम ने वन फल खाकर, छाल पहनकर लाज बचाई,

    तब भारत से साम-गान का स्वर्गिक स्वर था दिया सुनाई।

    अज्ञानी मानव को हमने, दिव्य ज्ञान का दान दिया था,

    अंबर के ललाट को चूमा, अतल सिंधु को छान लिया था ।

    साक्षी है इतिहास प्रकृति का, तब से अनुपम अभिनय होता,

    पूरब में उगता है सूरज, पश्चिम के तम में लय होता ।

    विश्व गगन पर गणित गौरव के, दीपक तो अब भी जलते हैं,

    कोटि-कोटि नयनों में स्वर्णिम, सपने उन्नति के पलते हैं।

    किंतु आज पुत्रों के शोणित से, रंजित वसुधा की छाती,

    टुकड़े टुकड़े हुई विभाजित, बलिदानी पुरखों की छाती ।

    कण-कण पर शोणित बिखरा है, पग-पग पर माथे की रोली,

    इधर मनी सुख की दीवाली, और उधर जन-धन की होली ।

    माँगों का सिंदूर, चिता की भस्म, बना हा हा खाता है,

    अगणित जीवन-दीप बुझाता, पापों का झोंका आता है।

    तट से अपना सर टकराकर, झेलम की लहरें पुकारतीं,

    यूनानी का रक्त दिखाकर, चंद्रगुप्त को हैं गुहारतीं।

    रो-रोकर पंजाब पूछता, किसने है दोआब बनाया,

    किसने मंदिर गुरुद्वारों को, अधर्म का अंगार दिखाया ?

    खड़े देहली पर हो, किसने पौरुष को ललकारा,

    किसने पापी हाथ बढ़ाकर, भारत माँ का मुकुट उतारा ?

    काश्मीर के नंदन वन को, किसने हैं सुलगाया,

    किसने छाती पर, अन्यायों का अंबार सजाया ?

    आँख खोलकर देखो! घर में भीषण आग लगी है,

    धर्म, सभ्यता, संस्कृति खाने, दानव क्षुधा जगी है।

    हिंदू कहने में शरमाते, दूध लजाते, लाज न आती,

    घोर पतन है, अपनी माँ को, माँ कहने में फटती छाती।

    जिसने रक्त पिलाकर पाला, क्षण भर उसका वेश निहारो,

    उसकी सूनी माँग निहारो, बिखरे-बिखरे केश निहारो ।

    जब तक दुःशासन है, वेणी कैसे बंध पाएगी,

    कोटि-कोटि संतति हैं, माँ की लाज न लुट पाएगी।

    जीत मरण को वीर

    भवानी प्रसाद तिवारी

    जीत मरण को वीर, राष्ट्र को जीवन दान करो,

    समर खेत के बीच अभय हो मंगल गान करो।

    “भारत माँ के मुकुट छीनने आया दस्यु विदेशी,

    ब्रह्मपुत्र के तीर पछाड़ो, उघड़ जाए छल वेशी ।

    जन्मसिद्ध अधिकार बचाओ, सह-अभियान करो,

    समर खेत के बीच, अभय हो, मंगल-गान करो।

    क्या विवाद में उलझ रहे हो हिंसा या कि अहिंसा ?

    कायरता से श्रेयस्कर है छल-प्रतिकारी हिंसा

    रक्षक शस्त्र सदा वंचित है, द्रुत संधान करो,

    समर-खेत के बीच, अभय हो मंगल-गान करो।

    कालनेमि ने कपट किया, पवनज ने किया भरोसा,

    साक्षी है इतिहास विश्व में किसका कौन भरोसा ।

    है विजयी विश्वास ‘ग्लानि’ का अभ्युत्थान करो,

    समर-खेत के बीच, अभय हो मंगल-गान करो।

    महाकाल की पाद-भूमि है, रक्त-सुरा का प्याला,

    पीकर प्रहरी नाच रहा है देशप्रेम मतवाला ।

    चलो, चलो रे, हम भी नाचें, नग्न कृपाण करो,

    समर – खेत के बीच, अभय हो मंगल-गान करो।

    आज मृत्यु से जूझ राष्ट्र को जीवन दान करो,

    रण- खेतों के बीच अभय हो मंगल गान करो।

    सबकी प्यारी भूमि हमारी

    कमला प्रसाद द्विवेदी


    सबकी प्यारी भूमि हमारी, धनी और कंगाल की ।

    जिस धरती पर गई बिखेरी, राख जवाहरलाल की ॥

    दबी नहीं वह क्रांति हमारी, बुझी नहीं चिनगारी है।

    आज शहीदों की समाधि वह, फिर से तुम्हें पुकारी है।

    इस ढेरी को राख न समझो, इसमें लपटें ज्वाल की ।

    जिस धरती पर … ॥१॥

    जो अनंत में शीश उठाएं, प्रहरी बन था जाग रहा।

    प्राणों के विनिमय में अपना, पुरस्कार है माँग रहा।

    आज बज गई रण की शृंगी, महाकाल के काल की ।

    जिस धरती पर… ॥२॥

    जिसके लिए कनक नगरी में, तूने आग लगाई है।

    जिसके लिए धरा के नीचे, खोदी तूने खाई है।

    सगर सुतों की राख जगाती, तुझे आज पाताल की।

    जिस धरती पर… ॥३॥

    रण का मंत्र हुआ उद्घोषित, स्वाहा बोल बढ़ो आगे ।

    हर भारतवासी बलि होगा, आओ चलो, चढ़ो आगे ।

    भूल न इसको धूल समझना, यह विभूति है भाल की 1

    जिस धरती पर … ॥४॥

    बज उठी रणभेरी

    शिवमंगलसिंह ‘सुमन’

    मां कब से खड़ी पुकार रही,

    पुत्रों, निज कर में शस्त्र गहो ।

    सेनापति की आवाज हुई,

    तैयार रहो, तैयार रहो।

    आओ तुम भी दो आज बिदा, अब क्या अड़चन, अब क्या देरी ?

    लो, आज बज उठी रण-भेरी।

    अब बढ़े चलो अब बढ़े चलो,

    निर्भय हो जय के गान करो।

    सदियों में अवसर आया है,

    बलिदानी, अब बलिदान करो।

    फिर मां का दूध उमड़ आया बहनें देतीं मंगल फेरी !

    लो, आज बज उठी रण-भेरी।

    जलने दो जौहर की ज्वाला,

    अब पहनो केसरिया बाना ।

    आपस की कलह डाह छोड़ो,

    तुमको शहीद बनने जाना ।

    जो बिना विजय वापस आये मां आज शपथ उसको तेरी !

    लो, आज बज उठी रण-भेरी।

  • राष्ट्रीय एकता दिवस पर कविता (19 नवम्बर)

    हम सब भारतवासी हैं

    निरंकारदेव ‘सेवक’

    हम पंजाबी, हम गुजराती, बंगाली, मदरासी हैं,

    लेकिन हम इन सबसे पहले केवल भारतवासी हैं।

    हम सब भारतवासी है !

    हमें प्यार आपस में करना, पुरखों ने सिखलाया है,

    हमें देश-हित, जीना मरना पुरखों ने सिखलाया है।

    हम उनके बतलाये पथ पर, चलने के अभ्यासी हैं।

    हम बच्चे अपने हाथों से, अपना भाग्य बनाते हैं,

    मेहनत करके बंजर धरती से, सोना उपजाते हैं !

    पत्थर को भगवान् बना दें, हम ऐसे विश्वासी हैं!

    वह भाषा हम नहीं जानते, बैर-भाव सिखलाती जो,

    कौन समझता नहीं, बाग में बैठी कोयल गाती जो ।

    जिसके अक्षर देश-प्रेम के, हम वह भाषा-भाषी है!

    एकता अमर रहें

    ताराचंद पाल ‘बेकल’

    देश है अधीर रे!

    अंग-अंग-पीर

    वक़्त की पुकार पर,

    उठ जवान वीर रे !

    दिग्-दिगंत स्वर रहें !

    एकता अमर रहें !!

    एकता अमर रहें !!

    गृह कलह से क्षीण आज देश का विकास है,

    कशमकश में शक्ति का सदैव दुरुपयोग है।

    हैं अनेक दृष्टिकोण, लिप्त स्वार्थ साध में,

    व्यंग्य-बाण-पद्धति का हो रहा प्रयोग है।

    देश की महानता,

    श्रेष्ठता, प्रधानता,

    प्रश्न है समक्ष आज,

    कौन, कितनी जानता ?

    सूत्र सब बिखर रहें !

    एकता अमर रहें !!

    एकता अमर रहें !!

    राष्ट्र की विचारवान शक्तियां सचेत हों,

    है प्रत्येक पग अनीति एकता प्रयास में ।

    तोड़-फोड़, जोड़-तोड़ युक्त कामना प्रवीण,

    सिद्धि प्राप्त कर रही है धर्म के लिबास में।

    बन न जाएं धूलि कण,

    स्वत्व के प्रदीप्त-प्रण,

    यह विभक्ति-भावना,

    दे न जाएं और व्रण,

    चेतना प्रखर रहें !

    एकता अमर रहें !!

    एकता अमर रहें !!

    संगठित प्रयास से देश कीर्तिमान् हो,

    आंच तक न आ सकेगी, इस धरा महान् को।

    शत्रु जो छिपे हुए हैं मित्रता की आड़ में,

    कर न पाएंगे अशक्त देश के विधान को ।

    पन्थ हो न संकरा,

    उर्वरा, इसलिए उठो, बढ़ो !

    जगमगाएंगे धरा,

    हम सचेत गर रहें !

    एकता अमर रहें !!

    एकता अमर रहें !!

    ज्योति के समान शस्य-श्यामला चमक उठें,

    और लौ-से पुष्प-प्राण-कीर्ति की गमक उठें।

    यत्न हों सदैव ही रख यथार्थ सामने,

    धर्मशील भाव से नित्य नव दमक उठें ।

    भव्य भाव युक्त मन,

    अरु प्रत्येक संगठन,

    प्रण, प्रवीण साध लें,

    नव भविष्य- नींव बन,

    दृष्टि लक्ष्य पर रहें !

    एकता अमर रहें !!

    भारत का मस्तक नहीं झुकेगा

    अटलबिहारी वाजपेयी

    एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते

    पर स्वतन्त्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा

    अगणित बलिदानों से अर्जित यह स्वतन्त्रता

    अश्रु, स्वेद, शोणित से सिंचित यह स्वतन्त्रता

    त्याग, तेज, तप बल से रक्षित यह स्वतन्त्रता

    प्राणों से भी प्रियतर अपनी यह स्वतन्त्रता ।

    इसे मिटाने की साज़िश करने वालों से

    कह दो चिनगारी का खेल बुरा होता है।

    औरों के घर आग लगाने का जो सपना

    अपने ही घर में सदा खरा होता है।

    अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र न खोदो

    अपने पैरों आप कुल्हाड़ी नहीं चलाओ

    ओ नादान पड़ोसी अपनी आँखें खोलो

    आजादी अनमोल न उसका मोल लगाओ।

    पर तुम क्या जानों आज़ादी क्या होती है।

    तुम्हें मुफ़्त में मिली न कीमत गई चुकायी

    अंग्रेजों के बल पर दो टुकड़े पाये हैं

    माँ को खण्डित करते तुमको लाज न आई।

    अमरीकी शस्त्रों से अपनी आज़ादी को

    दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो

    दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली

    बरबादी से तुम बच लोगे, यह मत समझो।

    जब तक गंगा की धारा, सिंधु में तपन शेष

    स्वातंत्र्य समर की बेदी पर अर्पित होंगे

    अगणित जीवन, यौवन अशेष ।

    अमरीका क्या, संसार भले ही हो विरुद्ध

    काश्मीर पर भारत का ध्वज नहीं झुकेगा,

    एक नहीं, दो नहीं, करो बीसों समझौते

    पर स्वतंत्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा।

    एकता गीत

    माधव शुक्ल


    मेरी जां न रहें, मेरा सर न रहें

    सामां न रहें, न ये साज रहें !

    फकत हिंद मेरा आजाद रहें,

    मेरी माता के सर पर ताज रहें !

    सिख, हिंदू, मुसलमां एक रहें,

    भाई-भाई-सा रस्म-रिवाज रहें !

    गुरु-ग्रंथ वेद- कुरान रहें,

    मेरी पूजा रहें और नमाज रहें !

    मेरी जां न रहें….

    मेरी टूटी मड़ैया में राज रहें,

    कोई गर न दस्तंदाज रहें !

    मेरी बीन के तार मिले हों सभी,

    इक भीनी मधुर आवाज रहें !

    ये किसान मेरे खुशहाल रहें,

    पूरी हो फसल सुख-साज रहें !

    मेरे बच्चे वतन पे निसार रहें,

    मेरी माँ-बहनों की लाज रहें !

    मेरी जां न हो…

    मेरी गायें रहें, मेरे बैल रहें

    घर-घर में भरा सब नाज रहें !

    घी-दूध की नदियां बहतीं रहें,

    हरष आनंद स्वराज रहें !

    माधों की है चाह, खुदा की कसम,

    मेरे बादे बफात ये बाज रहें !

    खादी का कफन हो मझ पड़ा,

    ‘वंदेमातरम्’ अलफाज रहें !

    कोई गैर नहीं

    कोई नहीं है गैर !

    बाबा! कोई नहीं है गैर !

    हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई

    देख सभी हैं भाई-भाई

    भारतमाता सब की ताई,

    मत रख मन में बैर !

    बाबा ! कोई नहीं है गैर !

    भारत के सब रहने वाले,

    कैसे गोरे, कैसे काले ?

    हिंदू-मुस्लिम झगड़े पाले,

    पड़ गए जिससे जान के लाले,

    काहे का यह बैर !

    बाबा ! कोई नहीं है गैर !

    राम समझ, रहमान समझ लें,

    धर्म समझ, ईमान समझ लें,

    मसजिद कैसी, मंदिर कैसा ?

    ईश्वर का स्थान समझ लें,

    कर दोनों की सैर !

    बाबा ! कोई नहीं है गैर !

    सोचेगा किस पन में बाबा !

    क्यों बैठा है वन में बाबा !

    खाक मली क्यों तन में बाबा !

    ढूँढ़ लें उसको मन में बाबा !

    माँग सभी की खैर !

    बाबा ! कोई नहीं है गैर !

    कोई नहीं है गैर !

    बाबा ! कोई नहीं है गैर !

    भू को करो प्रणाम

    जगदीश वाजपेयी

    बहुत नमन कर चुके गगन को, भू को करो प्रणाम !

    भाइयों, भू को करो प्रणाम !

    नभ में बैठे हुए देवता पूजा ही लेते हैं,

    बदले में निष्क्रिय मानव को भाग्यवाद देते हैं।

    निर्भर करना छोड़ नियति पर, श्रम को करो सलाम।

    साथियों, श्रम को करो सलाम !

    देवालय यह भूमि कि जिसका कण-कण चंदन-सा है,

    शस्य – श्यामला वसुधा, जिसका पग-पग नंदन-सा है।

    श्रम- सीकर बरसाओ इस पर, देगी सुफल ललाम,

    बन्धुओं, देगी सुफल ललाम !

    जोतो, बोओ, सींचो, मेहनत करके इसे निराओ,

    ईति, भीति, दैवी विपदा, रोगों से इसे बचाओ ।

    अन्य देवता छोड़ धरा को ही पूजो निशि-याम,

    किसानों, पूजो आठों याम !

  • बाल-दिवस पर कविता

    बाल-दिवस पर कविता

    बाल-दिवस पर कविता

    आ गया बच्चों का त्योहार/ विनोदचंद्र पांडेय ‘विनोद’

    जवाहरलाल नेहरू

    सभी में छाई नयी उमंग, खुशी की उठने लगी तरंग,

    हो रहे हम आनन्द-विभोर, समाया मन में हर्ष अपार !

    आ गया बच्चों का त्योहार !

    करें चाचा नेहरू की याद, जिन्होंने किया देश आजाद,

    बढ़ाया हम सबका, सम्मान, शांति की देकर नयी पुकार ।

    आ गया बच्चों का त्योहार !

    चलें उनके ही पथ पर आज, बनाएं स्वर्ग-समान समाज,

    न मानें कभी किसी से बैर, बढ़ाएं आपस में ही प्यार !

    आ गया बच्चों का त्योहार !

    देश-हित में सब-कुछ ही त्याग, करें भारत मां से अनुराग,

    बनाएं जन सेवा को ध्येय, करें दुखियों का हम उद्धार ।

    आ गया बच्चों का त्योहार ।

    कदम मिला बढ़े चलो/ मलखानसिंह सिसोदिया

    सुनील आसमान है हरी-भरी धरा,

    रजत भरी निशीथिनी, दिवस कनक भरा।

    खुली हुई जहान की किताब है पढ़ो,

    बढ़ो बहादुरों, कदम मिला चलो बढ़ो ||

    चुनौतियाँ सदर्प वर्तमान दे रहा,

    भविष्य अंध सिंधु बीच नाव खे रहा ।

    भिड़ो पहाड़ से अलंघ्य श्रृंग पर चढ़ो,

    विकृत स्वदेश का स्वरूप फिर नया गढ़ो ।

    विवेक, कर्म, श्रम, ज्योति-दीप को जला,

    प्रमाद, बुजदिली, विषाद हिमशिला गला ।

    अजेय बालवीर ले शपथ निडर बढ़ो,

    सुकीर्ति दीप्त से स्वदेश भाल को मढ़ो ||

    समाज-व्यक्ति, राष्ट्र- विश्व शृंखला मिला,

    अटूट प्रेम-सेतु बाँधते हुए बढ़ो,

    अखंड ऐक्य-केतु गाड़ते हुए बढ़ो।

  • गरीबी उन्मूलन दिवस पर कविता (17 अक्टूबर)

    गरीबी उन्मूलन दिवस पर कविता

    गरीबी से संग्राम

    आचार्य मायाराम ‘पतंग’

    चलो साथियों! हम सेवा के काम करें।

    आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।

    यह न समझना हमें गरीबी थोड़ी दूर हटानी है।

    अपने आँगन से बुहारकर नहीं पराए लानी है।

    एक शहर से नहीं उठाकर दूजे गाँव बसानी है।

    करें इरादा भारतभर से इसकी जड़ें मिटानी हैं।

    ठोस करें हम काम, न केवल नाम करें।

    आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।

    यह भारी अभिशाप कसकती पीड़ा हृदय दुखाती है।

    दीमक बनकर मानवता को भीतर-भीतर खाती है।

    जिसको लेती पकड़ पीढ़ियों तक भी उसे सताती है।

    इच्छा के अंबार लगाती डगर-डगर तरसाती है।

    आओ इसका मिलकर काम तमाम करें।

    आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।

    आलस इसका पिता और माता है इसकी बेकारी।

    पालन-पोषण करती इसका सदा अशिक्षा की नारी।

    साकी प्याला और मधुशाला सखी-सहेली लाचारी ।

    चारों मोहरों पर लोहा लेने की कर लो तैयारी।

    बस्ती-बस्ती गली-गली में ऐलान करें।

    आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।

    हथियारों से नहीं गरीबी, हारेगी औजारों से ।

    नहीं बनेगी बात भाषणों, लेखों या अखबारों से।

    मेहनत ही आधार मिला, कटती मंजिल कब नारों से।

    सारे जोर लगाएँ मिलकर, बस्ती शहर बाजारों से।

    हाथ करोड़ों साथ निरंतर काम करें।

    आज गरीबी से जमकर संग्राम कर।।

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    कुटिया बाट निहार रही है

    आचार्य मायाराम ‘पतंग’


    सेवा पथ के राही हो तुम,

    मंजिल तुम्हें पुकार रही है।

    उठो, देश की पावन माटी,

    साहस को ललकार रही है।

    अभी कोठियों में, बँगलों में,

    कैद पड़ी आजादी सारी।

    गली-मोहल्लों में, गाँवों में,

    छाई है अब तक अँधियारी,

    किस दिन पहुँचेगी उजियारी ।

    कुटिया बाट निहार रही है ।

    सेवा पथ के…

    आज स्वयं दीपक बन जाओ,

    गली-गली तुम रोशन कर दो।

    सेवा है संकल्प तुम्हारा,

    हर बगिया हरियाली कर दो ॥

    जन-जन के मन में रस भर दो.

    जननी तुम्हें दुलार यही है ।

    सेवा पथ के.

    इसी देश के बेटे, अब भी,

    एक जून भूखे सोते हैं।

    तड़प रहे दाने-दाने को,

    सुबह-शाम बच्चे रोते हैं।

    दान नहीं कुछ काम दिलाओ।

    युग की आज पुकार रही है।

    सेवा पथ के….

    रोजी-रोटी पाकर भी कुछ,

    बन जाते अनजान अनाड़ी।

    व्यसनों में जीवन खोते हैं,

    मारें अपने पाँव कुल्हाड़ी।

    सदाचार का पंथ दिखाओ।

    सेवा का आधार यही है।

    सेवा पथ के राही हो तुम,

    मंजिल तुम्हें पुकार रही है।

    उठो, देश की पावन माटी,

    साहस को ललकार रही है।

  • चालान- धनेश्वर पटेल

    चालान- धनेश्वर पटेल

    चालान

    cycle

    एक दिन निकले हम सैर पर
    तो हेलमेट लगाना भूल गए
    हुआ हादसा कुछ ऐसा कि
    फटफटिया चलाना भूल गए!
    स्पीड बढ़ी कांटा लटका दूसरी छोर
    हम समझ थे अपने बाप की रोड़
    बुलेट घुमाई और मुड़े घर की ओर
    ट्रैफिक पुलिस खड़ी थी दूसरी ओर
    उनकी नजरों ने हमें देखा
    इन सहमी नजरों ने उन्हें देखा
    देख भागते जोर की सीटी बजाई
    पकड़े तो गए करनी पड़ेगी भरपाई

    थोड़ा चिल्लाया फिर मुस्कुराया
    चालान की पर्ची हमें दिखाया

    हमने जेब से सौ दो सौ की नोट निकाली
    और झट से उनकी जेब में पकड़ा दी
    जोर जोर हंसे और फिर कुछ कहने लगे
    लो बेटा आखिर तूने अपनी औकात दिखा दी

    लाइंसेंस मांगी,बीमा मांगा,
    और ना जाने क्या क्या मांगा
    शुक्र था कि हमसे किडनी ना मांगा
    सब थे मेरे पास पर उन्हें तो घर पर था टांगा

    हमने उनके कानों में चुपके से कहा
    भई घर में बीबी से हो गई हमारी लड़ाई
    वापस घर गए तो होगी अच्छी पिटाई

    उसे जेब में से पांच की नोट और दिखाई

    एक न सुनी हमारी और चालान भरवाई
    वो बीते पल याद आने लगें
    अपनी किस्मत पर पछताने लगे
    अच्छी खासी साइकिल थी मेरे पास
    तो क्यों दहेज की मोटरसाइकिल चलाने लगे

    ©धनेश्वर पटेल
    रायगढ़ छत्तीसगढ़
    संपर्क सूत्र -7024601095