Author: कविता बहार

  • मकर संक्रान्ति पर सुमित्रानंदन पंत की कविता

    मकर संक्रान्ति पर सुमित्रानंदन पंत की कविता

    14 जनवरी के बाद से सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर (जाता हुआ) होता है। इसी कारण इस पर्व को ‘उतरायण’ (सूर्य उत्तर की ओर) भी कहते है। और इसी दिन मकर संक्रान्ति पर्व मनाया जाता है. जो की भारत के प्रमुख पर्वों में से एक है। 

    patang-makar-sankranti

    सुमित्रानंदन पंत

    जन पर्व मकर संक्रांति आज
    उमड़ा नहान को जन समाज
    गंगा तट पर सब छोड़ काज।

    नारी नर कई कोस पैदल
    आरहे चले लो, दल के दल,
    गंगा दर्शन को पुण्योज्वल!

    लड़के, बच्चे, बूढ़े, जवान,
    रोगी, भोगी, छोटे, महान,
    क्षेत्रपति, महाजन औ’ किसान।

    दादा, नानी, चाचा, ताई,
    मौसा, फूफी, मामा, माई,
    मिल ससुर, बहू, भावज, भाई।

    गा रहीं स्त्रियाँ मंगल कीर्तन,
    भर रहे तान नव युवक मगन,
    हँसते, बतलाते बालक गण।

    अतलस, सिंगी, केला औ’ सन
    गोटे गोखुरू टँगे, स्त्री जन
    पहनीं, छींटें, फुलवर, साटन।

    बहु काले, लाल, हरे, नीले,
    बैगनीं, गुलाबी, पट पीले,
    रँग रँग के हलके, चटकीले।

    जन पर्व मकर संक्रांति आज

    जन पर्व मकर संक्रांति आज
    उमड़ा नहान को जन समाज
    गंगा तट पर सब छोड़ काज।

    नारी नर कई कोस पैदल
    आरहे चले लो, दल के दल,
    गंगा दर्शन को पुण्योज्वल!

    लड़के, बच्चे, बूढ़े, जवान,
    रोगी, भोगी, छोटे, महान,
    क्षेत्रपति, महाजन औ’ किसान।

    दादा, नानी, चाचा, ताई,
    मौसा, फूफी, मामा, माई,
    मिल ससुर, बहू, भावज, भाई।

    गा रहीं स्त्रियाँ मंगल कीर्तन,
    भर रहे तान नव युवक मगन,
    हँसते, बतलाते बालक गण।

    अतलस, सिंगी, केला औ’ सन
    गोटे गोखुरू टँगे, स्त्री जन
    पहनीं, छींटें, फुलवर, साटन।

    बहु काले, लाल, हरे, नीले,
    बैगनीं, गुलाबी, पट पीले,
    रँग रँग के हलके, चटकीले।

    सिर पर है चँदवा शीशफूल…

    सिर पर है चँदवा शीशफूल,
    कानों में झुमके रहे झूल,
    बिरिया, गलचुमनी, कर्णफूल।

    माँथे के टीके पर जन मन,
    नासा में नथिया, फुलिया, कन,
    बेसर, बुलाक, झुलनी, लटकन।

    गल में कटवा, कंठा, हँसली,
    उर में हुमेल, कल चंपकली।
    जुगनी, चौकी, मूँगे नक़ली।

    बाँहों में बहु बहुँटे, जोशन,
    बाजूबँद, पट्टी, बाँक सुषम,
    गहने ही गँवारिनों के धन!

    कँगने, पहुँची, मृदु पहुँचों पर
    पिछला, मँझुवा, अगला क्रमतर,
    चूड़ियाँ, फूल की मठियाँ वर।

    हथफूल पीठ पर कर के धर,
    उँगलियाँ मुँदरियों से सब भर,
    आरसी अँगूठे में देकर

    वे कटि में चल करधनी पहन

    वे कटि में चल करधनी पहन…
    वे कटि में चल करधनी पहन,
    पाँवों में पायज़ेब, झाँझन,
    बहु छड़े, कड़े, बिछिया शोभन,

    यों सोने चाँदी से झंकृत,
    जातीं वे पीतल गिलट खचित,
    बहु भाँति गोदना से चित्रित।

    ये शत, सहस्र नर नारी जन
    लगते प्रहृष्ट सब, मुक्त, प्रमन,
    हैं आज न नित्य कर्म बंधन!

    विश्वास मूढ़, निःसंशय मन,
    करने आये ये पुण्यार्जन,
    युग युग से मार्ग भ्रष्ट जनगण।

    इनमें विश्वास अगाध, अटल,
    इनको चाहिए प्रकाश नवल,
    भर सके नया जो इनमें बल!

    ये छोटी बस्ती में कुछ क्षण
    भर गये आज जीवन स्पंदन,
    प्रिय लगता जनगण सम्मेलन।

  • सरस्वती-पूजन वसंत पंचमी पर कविता

    बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजा का विशेष महत्व है। धार्मिक मतान्तरों के अनुसार माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि पर ज्ञान, विद्या, कला, साहित्य और संगीत की देवी मां सरस्वती का जन्म हुआ था। बसंत पंचमी के दिन से ही बसंत ऋतु की शुरुआत हो जाती है। इसके बाद से सर्दियाँ धीरे-धीरे-धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही हैं।

    sharde maa
    सरस्वती माँ

    हंसवाहिनी मातु

    ● कृष्णकांत ‘मधुर’

    हंसवाहिनी मातु शारदे, वीणावादिनी ऐसा वर दे |

    संस्कृति के उत्तम प्रकाश से, ज्योतिर्मय मम भारत कर दे ॥

    नैन दीप हैं, भाव सुमन हैं,

    शब्दों के अक्षत चंदन हैं।

    वंदन है, शत बार नमन है, पावन निर्मल स्वर निर्झर दे।

    वेद करे मन में उजियारा,

    सरसे सुखद धर्म की धारा ।

    ध्यान बने पुण्यमय परम ज्ञान का सुखसागर दे।

    निर्बलता अज्ञान मिटा दें,

    जीवनचर्या सुखद बना दे।

    सुमन खिला दें, दीप जला दे, नव सुरभित आलोक प्रखर दे ।

    मधुर करे आराधन तेरा,

    मन उपवन में करो बसेरा ।

    जगे सवेरा, भगे अँधेरा, मंगलमय भावों को स्वर दे।

    माँ मुझे आशीष दो

    ● श्रीकृष्ण मित्र

    माँ मुझे आशीष दो, मैं वेदना को गा सकूँ ।

    शब्द में, स्वर में समर्पित कल्पना को गा सकूँ ।

    मौन को मुखरित करूँ मैं अर्चनामय गीत में,

    कह सकूँ पीड़ा मनुज की स्नेहमय संगीत में।

    दो मुझे वह तूलिका, चित्रित करूँ साकार को,

    दो मुझे वह लेखनी, मैं लिख सकूँ श्रृंगार को ।

    हर व्यथा में भी सलोनी सांत्वना को गा सकूँ ।

    माँ मुझे आशीष दो, मैं वेदना को गा सकूँ ।

    राष्ट्र के उस देवता की कर सकूँ आराधना,

    कर सकूँ समवेत स्वर में शारदे माँ वंदना ।

    क्रांति के हर शब्द से स्वर शंख का गुंजित करूँ,

    ओज को अभिव्यक्ति दे संक्रांति को गुंजित करूँ ।

    सप्त स्वर में शारदे झंकार को बहला सकूँ ।

    माँ मुझे आशीष दो, मैं वेदना को गा सकूँ ।।

    मातृभू का करूँ अर्चन और अभिनंदन करूँ,

    राष्ट्र के उस देवता का काव्यमय वंदन करूँ ।

    गीत की हर पंक्ति में गाऊँ समर्पण की कथा,

    और मुखरित कर सकूँ संपूर्ण अर्पण की व्यथा ।

    जो थका-हारा मिलें, उसका हृदय बहला सकूँ,

    माँ मुझे आशीष दो, मैं वेदना को गा सकूँ ॥

    वीरों का कैसा हो वसंत

    ● सुभद्राकुमारी चौहान

    वीरों का कैसा हो वसंत ?

    आ रही हिमालय से पुकार

    है उदधि गरजता बार-बार

    प्राची- पश्चिम, भू नभ अपार

    सब पूछ रहे हैं दिग्-दिगंत

    वीरों का कैसा हो वसंत ?

    फूली सरसों ने दिया रंग

    मधु लेकर आ पहुँचा अनंग

    वसु-वसुधा पुलकित अंग-अंग

    हैं वीर वेश में किंतु कंत

    वीरों का कैसा हो वसंत ?

    गलबाँही हो, या हो कृपाण

    चल-चितवन हो या धनुष-बाण

    हो रस – विलास या दलित त्राण

    अब यही समस्या है दुरंत

    वीरों का कैसा हो वसंत ?

    भर रही कोकिला इधर तान

    मारू बाजे पर उधर गान

    है रंग और रण का विधान

    मिलने आए हैं आदि अंत

    वीरों का कैसा हो वसंत ?

    कह दे अतीत अब मौन त्याग

    लंके ! तुझमें क्यों लगी आग

    ऐ कुरुक्षेत्र ! अब जाग, जाग

    बतला अपने अनुभव अनंत

    वीरों का कैसा हो वसंत ?

    हल्दीघाटी के शिलाखंड

    ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड

    राणा-ताना का कर घमंड

    दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत

    वीरों का कैसा हो वसंत ?

    तब समझँगा आया वसंत

    ० रामप्रसाद ‘बिस्मिल’


    जब सजी वसंती बाने में,

    बहनें जौहर गाती होंगी,

    कातिल की तोपें उधर,

    इधर नवयुवकों की छाती होंगी,

    तब समझँगा आया वसंत।

    जब पतझड़ पत्तों से विनष्ट,

    बलिदानों की टोली होगी,

    जब नव विकसित कोंपल-कर में,

    कुंकुम होगा, रोली होगी,

    तब समझँगा आया वसंत ।

    युग-युग से पीड़ित मानवता,

    सुख की साँसें भरती होगी,

    जब अपने होंगे वन – उपवन,

    जब अपनी यह धरती होगी,

    तब समझँगा आया वसंत ।

    जब विश्व-प्रेम-मतवालों के,

    खूँ से पथ पर लाली होगी,

    जब रक्त-बिंदुओं से सिंचित,

    उपवन में हरियाली होगी,

    तब समझँगा आया वसंत।

    जब सब बंधन कट जाएँगे,

    परवशता की होली होगी,

    अनुराग अबीर बिखेर रही,

    माँ-बहनों की टोली होगी,

    तब समझँगा आया वसंत ।

  • वाल्मीकि जयंती पर कविता

    वाल्मीकि जयंती पर कविता: सनातन धर्म में महर्षि वाल्मिकी को प्रथम कवि मनाया गया। दूसरी ओर महान ग्रंथ रामायण की रचना थी। वाल्मिकी जयन्ती महर्षि के जन्मदिवस के रूप में मनाई जाती है।

    वाल्मीकि जयंती पर कविता

    एक भगवान् आप

    o आचार्य मायाराम ‘पतंग’

    एक भगवान् आप थे मानव महा

    मृत्तिका का ढेर अपने शीश पर कैसे सहा ?

    आह अपना तन किया तरु का तना

    चींटियों ने घर लिये जिस पर बना

    किंतु तिल भी डगमगाए तुम नहीं

    भुनभुनाए, तमतमाए तक नहीं

    हे स्थिर मना सुदृढ़ तन

    पर बहुत कोमल मन

    सहज संवेदना आपने देखा

    लगा यह बाण हरने प्राण

    हा ! उस क्रौंच को पापी बधिक ने

    दे दिया दुःख गहन बिन अपराध के

    ‘सुख न पाएगा कभी’ मन कह गया

    दुर्भाग्य के दिन आ गए उस व्याध के

    तुम कह गए या स्वयं करुणा स्रोत से तुम बह गए।

    तड़पती क्रौंचनी-सी ही प्रखर गहरी चुभन मन में उठी

    तड़पन तुम्हारे सहज मुनिवर

    और व्याकुलता हुई अभिव्यक्त रामायण रची फिर आपने

    हो गए हम आज बिलकुल शून्य ही संवेदना से हीन

    सब कुछ आज है प्रतिकूल

    होती रोज हत्या, लूट

    सबको मिल गई छूट

    पशु-पक्षी बचाए कौन ?

    गिनती मानवों की ही नहीं होती

    कि कितने मर गए? मारे गए कितने ?

    न कोई पूछता है अब कहाँ कितने लूटे ? कितने पिटे ?

    अब हर गली में ही व्याध

    प्रतिदिन कर रहे अपराध

    हम सब देखते हैं पर न कोई उठ रही संवेदना

    बस सो गया अंत:करण मृत हो गया मन

    हाय ! हे ऋषिवर हमारा !

  • विजयादशमी पर कविता

    देशभर में दशहरे (Dussehra) के त्योहार पर रावण का पुतला दहन करने की परंपरा है. विजयादशमी के दिन भगवान श्रीराम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी. नौ दिन की नवरात्रि के दसवें दिन दशहरा मनाया जाता है और दशहरे से 21वें दिन पर दीपावली का त्योहार मनाया जाता है.

    विजयादशमी पर कविता

    हे राम तुम्हारी महिमा

    o आचार्य मायाराम ‘पतंग’

    हे राम ! तुम्हारी महिमा को गाते-गाते ऋषि-मुनि हारे ।

    तप किए हजारों वर्ष अनेकों शास्त्र ग्रंथ भी रच डारे ।।

    नारद, शारद और शेष सतत महिमा कल्पों से गाते हैं।

    रटकर रत्नाकर नाम राम का, वाल्मीकि बन जाते हैं ।

    फिर ऐसी रामायण रचते जो मन को शीतलता देती ।

    सबको आदर्श दिखाती है पर नहीं किसी से कुछ लेती ॥

    है धन्य गिरा लेखनी सफल जो रामनाम के मतवाले ।

    हे राम तुम्हारी महिमा को गाते-गाते ऋषि-मुनि हारे ।

    आदर्श पुत्र, माता, भ्राता आदर्श पति-पत्नी ऐसे ।

    आदर्श मित्र, आदर्श शत्रु, राजा आदर्श बने कैसे

    आदर्श सभी व्यवहार बनें जग को ऐसा पथ दिखलाया ।

    युग-युग तक याद रहें ऐसा वह राम-राज्य सबको भाया ॥

    अपने जीवन की एक झलक दें, हे राम दयाकर दिखला दो ।

    हे राम तुम्हारी महिमा को गाते-गाते ऋषि-मुनि हारे ।

    मुनियों के यज्ञों की रक्षा, कर में लेकर शर-चाप करी ।

    शापित उस शिला अहिल्या को, छूकर चरणों से मुक्त करी ॥

    र-दूषण खर- त्रिशिरा बालि वधे यूँ निशाचरों का नाश किया।

    ऋषियों के आश्रम घूम-घूमकर मनचाहा संतोष दिया ।।

    शबरी के जूठे बेर चखे, फिर क्या संदेश दिया प्यारे ।

    हे राम तुम्हारी महिमा को गाते-गाते ऋषि-मुनि हारे ।

    हनुमत सुग्रीव नील नल से, लाखों वानर एकत्र किए।

    जो राम नाम के लिए लड़े, जो राम नाम के लिए जिए ॥

    रावण कुल का संहार किया, संस्कृति की सिया बचाने को ।

    लंकेश विभीषण बना दिया, भक्तों का मन समझाने को ।

    मिटता है आखिर अहंकार, जाते शरणागत सब तारे ।

    हे राम तुम्हारी महिमा को गाते-गाते ऋषि-मुनि हारे ।

  • कृष्ण जन्माष्टमी पर कविता

    कृष्ण जन्माष्टमी पर कविता: ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था और वे अपने सबसे बड़े वर्ष के अधिनायक बने थे। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान कृष्ण – देवकी और वासुदेव के पुत्र – का जन्म मथुरा के राक्षस राजा कंस को नष्ट करने के लिए हुआ था।

    कृष्ण
    कृष्ण

    ओ प्यारे कृष्ण

    o आचार्य मायाराम ‘पतंग’

    ओ प्यारे कृष्ण ओ कन्हैया, हिंद को बचा लो फिर से आय के ।

    भूल गए भारत माता को, अपनी संस्कृति भूले।

    नकल विदेशों की करने में, हम घमंड से फूले।

    भूल गए गंगा की गरिमा, रामायण और गीता ।

    गायत्री जप, त्याग, तपस्या, श्रद्धा विनय पुनीता ।

    ओ भटके हाय गाय मैया, हिंद को बचा लो फिर से आय के।

    यज्ञ, हवन, पूजा सब भूले, गावें गंदे गानें।

    करके नशा जागरण करते, माँ को चले मनाने।

    ओ रोवें देवकी सी मैया, हिंद को बचा लो फिर से आय के ।

    भूले, मंत्र, छंद, रस कविता, शास्त्र शस्त्र सब छोड़े।

    करते डिस्को नाच, कूदते, जैसे बंदर घोड़े ।

    ओ बाँके बांसुरी बजैया, हिंद को बचा लो फिर से आय के ।

    गली-गली दुर्योधन फिरते, घर-घर खड़े दुशासन ।

    अर्जुन बैठे कायर बनकर, न्याय न करता शासन ।।

    ओ गीता – ज्ञान के रचैया, हिंद को बना लो फिर से आय के ।